Bindeshwari Pathak : मैला ढोने की परम्परा से मुक्ति दिलाने वाला जिद्दी इंसान!
– अशोक जोशी
इन दिनों देशभर में चल रहे स्वच्छ भारत अभियान ने देश की काया पलट दी। खुले में शौच अब गुजरे जमाने की बात हो गई। लेकिन, एक समय ऐसा भी था, जब न केवल खुले में शौच एक शर्मनाक परम्परा के रूप में कायम था बल्कि जो बंद या पुराने जमाने के गढ्ढे वाले शौचालय होते थे। उनके मैला निपटान में प्रचलित सिर पर मैला ढोने की परम्परा भी मानव जाति के लिए सर्वाधिक शर्मनाक घटना थी। वैसे तो महात्मा गांधी ने हरिजनों को इससे मुक्ति दिलाने की जोरदार पहल की, लेकिन पिछली सदी के अंत तक कस्बों और गांवों में यह प्रणाली अभिशाप के रूप में जारी थी।
1973 से इस त्रासदी से निजात दिलाने का जो सिलसिला बिहार के एक ब्राह्मण युवा ने आरंभ किया। उसने आखिर में मैला ढोने वाले कर्मचारियों को इस से छुटकारा दिला ही दिया। स्वच्छता के इस ऐतिहासिक अभियान का नाम है ‘सुलभ इंटरनेशनल’ जो कभी सुलभ शौचालय के रूप आरंभ हुई थी। बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि इस अभियान के जनक बिन्देश्वर पाठक , जिनका अभी स्वाधीनता दिवस के दिन निधन हुआ। वे सम्पन्न ब्राह्मण परिवार जन्मे थे।
उन्होंने महात्मा गांधी से प्रेरित होकर खुले में शौच तथा सिर पर मैला ढोने की कुरीति से देश के लोगों को छुटकारा दिलाने के लिए अपनी मां और पत्नी के गहने बेचकर सुलभ शौचालय का अभियान शुरू किया था। आज वह सुलभ इंटरनेशनल के रूप में पल्लवित हो चुका है। इसके निर्मित लगभग 15 लाख सुलभ शौचालय के माध्यम से रोजाना लगभग 2 करोड लोग शौच निवृत्ति करते है। इस संस्थान से जुडे 50 हजार से अधिक कर्मचारी अपनी आजीविका चलाने के साथ साथ हर साल लगभग 500 करोड रूपए का व्यवसाय भी कर रहे है।
बिन्देश्वर पाठक के पिता अपने इलाके के प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थे और उनके दादाजी एक प्रसिद्ध ज्योतिष थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी, कि यह बालक बड़ा होकर देश और दुनिया में नाम करेगा। लेकिन, किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक ब्राह्मण परिवार का यह बालक ऐसे काम से अपना नाम करेगा जो इस वर्ग के लिए प्रतिबंधित और घृणित समझा जाता है।
दरअसल, बिन्देश्वर के मन मस्तिष्क में अपनी बाल्यावस्था की एक घटना ने घर कर लिया था, जिससे आहत होकर उन्होने हरिजन वर्ग को इस त्रासदी से मुक्त कराने का संकल्प लिया। जिस समय वे पांच-छह साल के थे, उनके गांव में एक दलित महिला सामान बेचने आती थी। उस महिला का ध्यान आकर्षित कराने के लिए बालक बिन्देश्वर ने उसे छू क्या लिया, उस पर परिवार का क्रोध बरस पड़ा। उसे पहले तो खूब डांट मिली। बाद में उन्हें गौमूत्र से शुद्ध किया गया।
उन्हें सिर पर मैला ढोने की परिपाटी से लोगों को निजात कराने का पहला अवसर 1968 में तब मिला, जब वे पटना में गांधी शताब्दी समारोह समिति के मैला ढोने वालों की मुक्ति प्रभाग में शामिल हुए। वहां उन्हें मैला ढोने वालों के साथ मिलकर काम करना पड़ा। पहले तो वह अपने ब्राह्मण होने के कारण इस कार्य के लिए अनिच्छूक थे, लेकिन गांधी जी के दर्शन से प्रभावित होकर उन्होने न केवल मैला ढोने वालों के साथ काम किया बल्कि उनके साथ मिलकर मैला भी ढोया।
बाद में उन्हें एहसास हुआ कि इससे काम नहीं बनने वाला है। इसलिए उन्होंने 1970 में कर्ज लेकर टॉयलेट इंस्टीटयूट की स्थापना की। पटना में 200 वर्ग फीट क्षेत्र में सात-आठ कर्मचारियों के साथ मिलकर काम आरंभ किया। जिसमें उन्हें एसबीआई, मारूति लिमिटेड, भारती फाउण्डेशन, ओएनजीसी जैसे औद्योगिक घरानों से सहायता और समर्थन मिला। शुरूआत मे उन्हें शौचालय बनाने के आर्डर नही मिले, तो आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्हें अपनी मां और पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे।
1973 में जब उन्हें बिहार के आरा जिले में दो निजी शौचालय बनाने के काम के लिए पैसे मिले तो उनकी गाड़ी चल पड़ी और सुलभ शौचालय आज सुलभ इंटरनेशनल बनकर देशभर में छा गया। इसने न केवल स्वच्छता अभियान में अपना योगदान दिया, बल्कि 50 हजार से अधिक लोगों को रोजगार भी दिया। उनके इस काम ने उन्हें नाम, दाम और पदमभूषण सहित देश विदेश के ढेरों पुरस्कार और सम्मान मिले। आज भले ही वह सजीव रूप से हमारे बीच न हो लेकिन स्वच्छता का जो अभियान उन्होंने चलाया, वह स्वच्छता की राह में एक मील का पत्थर बनकर दिशा दिखाता रहेगा।