राजस्थान से राष्ट्रपिता का रहा गहरा नाता,यही से ही किया था सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन का सूत्रपात

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गांधी तुम्हें समर्पित सेवन स्टार, फाइव स्टार और स्वच्छतम राज्य मध्यप्रदेश का उपहार ...

राजस्थान से राष्ट्रपिता का रहा गहरा नाता,यही से ही किया था सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन का सूत्रपात

 

गोपेंद्र नाथ भट्ट की रिपोर्ट

 

नई दिल्ली। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का राजस्थान से गहरा रिश्ता और लगाव रहा। गांधीजी अपने पूरे जीवनकाल में तीन बार राजस्थान आए। ख़ास कर उन्होंने अजमेर की यात्राएँ की। इन यात्राओं में महात्मागांधी ने राजस्थान में सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन का सूत्रपात किया था ।

गांधीजी ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान पूरे भारत का भ्रमण किया था । आंदोलन के दौरान वे केवल तीन बार 1921, 1922 और 1934 में राजस्थान आए। तीनों ही बार वे अजमेर ही आए। अपनी नौ महीने की हरिजनयात्रा के सिलसिले में गांधीजी 4 जुलाई की रात को अजमेर शहर आए और यहां की दो दिन की यात्रा के बाद 6 जुलाई को ब्यावर पहुंचे।

 

गांधीजी 1934 में जब राजपूताना के अजमेर में आए थे तब अजमेर-मेरवाड़ा में सीधे ब्रिटिश हुकुमत थी। बाकीराजस्थान छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था । वहाँ के राजा महाराजा  अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत हुक्म चला रहेथे।

राजपूताना हरिजन सेवक संघ के निमंत्रण पर 4 जुलाई 1934 की रात गांधीजी अजमेर पहुंचे थे । स्तब बनीवागत समिति के अध्यक्ष हरविलास शारदा और मंत्री रामनारायण चौधरी और कृष्णगोपाल गर्ग मंत्री थे।

 

5 जुलाई 1934 को गांधीजी अजमेर में महिलाओं की एक सभा में गए और कहा अस्पृश्यता प्रेम और दया कीभावना के विपरीत है। इसलिए इस पाप का अंत होना चाहिए। ख़ास बात यह थी कि इस सभा में सभी जातियों का प्रतिनिधित्व रहा था ।

दो दिनों की अजमेर यात्रा में  गांधीजी का प्रभाव ऐसा रहा कि सूबे में आगे जाकर जातियों का भेद मिटता चला गया। राजपूताना में तब कुएं-बावड़ी तक जातियों में बंटे थे। मंदिर-स्कूलों में प्रवेश भी जाति के आधार पर हीहोता था लेकिन गांधीजी की इस यात्रा ने समाज की सोच को  झकझोर दिया।

 

राजपूताना के हरिजन नेताओं ने बेगार प्रथा के बारे में बापू को बताया। गांधीजी अजमेर में राजस्थान चरखा संघ के कार्यकर्ताओं से भी मिले। इन कार्यकर्ताओं ने गांधीजी को बताया कि  1926 में अमरसर जयपुर में स्थापित की गई हरिजन पाठशाला इतने अच्छे ढंग से चल रही है कि अब सवर्णों के बच्चे भी इसमें पढ़ रहे हैं।इसी दिन गांधीजी ने हरिजन सेवकों को भी संबोधित किया।

गांधीजी की सोच थी- आजादी की लड़ाई जीतने के लिए भारतीयों का एकजुट होना जरूरी हैं। हरिजनों औरअन्य कई जातियों को छोटा मानकर भेदभाव-छुआछूत की स्थिति को दूर करना जरुरी है। गांधीजी अजमेर कीहरिजन बस्तियों में गए और अजमेर के दिल्ली दरवाजा की बस्ती, तारागढ की ढाल की मलूसर बस्ती आदि को देखा- वहाँ सड़ी गली झोंपडियां थीं। पानी के नाम पर 400 परिवारों के मध्य मात्र एक नल। रैगरोंके मौहल्ले की भी यही दुर्दशा थी ।

 

गांधीजी की इस यात्रा का पहला असर यह दिखा कि अजमेर की तत्कालीन म्युनिसिपल कमेटी ने हरिजनों और छोटी कही जाने वाली जातियों के लिए बड़ा तालाब खोल दिया।

गांधीजी ने समाज को सामाजिक भेदभाव और छुआछूत की बुराई दिखाई।हरिजनों के मंदिरों-स्कूलों में प्रवेश पर रोक, बेगार, पानी और अन्य सुविधाओं से वंचित रखना, कर्ज का बोझ जैसी लाचारी आदि के बारे मेंबताया।साथ ही शराब-मांस जैसी बुराईयों के बारे में भी जानकारी दी। गांधीजी ने सबको सावचेत किया कि वे इन बुराइयों को छोड़े। इससे प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन के नेता अर्जुनलाल सेठी सहित अन्य कई लोगों ने छोटी जातियों के उत्थान के लिए धन दिया।

गांधीजी की इस यात्रा की खूबी यह रही कि उनकी राजस्थान हरियन यात्रा की व्यवस्थाएं स्वर्ण जातियों के लोगों ने कीं। उनकी सभाओं में सभी जातियां, एवं सभी कौम के लोग शामिल हुए । सामाजिक बुराइयों को पहचान कर सुधार की शुरुआत हुई। हरिजन स्कूल खुले, जिनमें अगड़ी जाति के बच्चे भी पढ़ने लगे।

इस अवसर पर राजपूताना हरिजन सेवक संघ ने गांधीजी को सम्मान पत्र भेंट किया। तब  राजपूताना कीआबादी  1 करोड़ 12 लाख 25 हजार 712 थी जिनमें  15,65,407 हरिजन आबादी थी जोकि कुल आबादी का14 प्रतिशत और हिन्दू आबादी का 15.5 प्रतिशत थे।

 

*गाँधी जी की राजस्थान यात्राओं के किस्से*

अजमेर की दो दिन की यात्रा के बाद गांधी जी 6 जुलाई को ब्यावर पहुंचे थे । यहां उन्हें चम्पालाल रामेश्वरक्लब की इमारत में ठहराया गया। जहां बाद में चम्पानगर बस गया। गांधीजी के ब्यावर पहुंचने के साथ ही एक घटना घटी जो कि ऐतिहासिक बन गई। जब गांधीजी ब्यावर पहुंचे तो वहां एक 24 साल के युवा पं चंद्रशेखर ने अपने साथियों के साथ गांधीजी को काले झंडे दिखाए। यह नौजवान काशी से शिक्षा प्राप्तसंस्कृत का मूर्धन्य विद्वान था।

इसके उपरांत पं.चंद्रशेखर गांधीजी से मिले और उनको शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी। इसके जवाब में गांधीजी ने हंसते हुए कहा कि तुम घोषणा कर दो कि गांधी बिना शास्त्रार्थ के ही हार गया।

यह घटना साधारण-सी लगती है, लेकिन ब्यावर की जमीन पर इतिहास रच गई। पं.चंद्रशेखर आगे चलकर पुरी के शंकराचार्य बने और स्वामी निरंजनदेव तीर्थ कहलाए। वे 1964 से 1992 तक शंकराचार्य रहे। इससे पूर्व वे अखिल भारतीय रामराज्य परिषद के मंत्री के अलावा 1955 से 1964 तक महाराजा संस्कृत कालेज जयपुर के प्राचार्य रहे। बहरहाल, स्वामी और महात्मा की यह मुलाकात उक्त घटना तक ही सीमित रही।

विधवा विवाह की प्रशंसा

उस जमाने में विधवा विवाह किसी क्रांति से कम नहीं था। ब्यावर के गोविन्द प्रसाद कौशिक ने पहला विधवा विवाह कराया था। वे यह साहसिक  कदम उठाने वाले ब्यावर के पहले  व्यक्ति थे। कौशिक कीविधवा पुत्री शारदा का विवाह दिल्ली के गोपालचंद्र शर्मा के साथ हुआ। इसमें भिवानी (हरियाणा ) के बड़े कांग्रेसी नेता नेकीराम शर्मा भी शामिल हुए। गांधीजी विवाह में तो शामिल नहीं हुए थे, लेकिन नेकीरामशर्मा जब नव दम्पति को गांधीजी के पास आशीर्वाद दिलाने लेकर गए तो गांधीजी अत्यंत प्रसन्न हुए औरनवविवाहित जोड़े को अपना आशीर्वाद दिया, किन्तू वधु को जेवर पहने देख कर बोले- यह बोझ क्यों लादे हो?

गांधीजी से जैन साधु भी जुड़

ब्यावर प्रवास के दौरान मिशन ग्राउंड पर गांधीजी की सभा हुई। इस सभा में स्थानकवासी जैन साधुओं नेगांधीजी को मानपत्र दिया और हरिजन कल्याण कोष के लिए धन संग्रह किया। दस्तावेज बताते हैं किसाधु चुन्नीलाल और लक्ष्मी ऋषि गांधीजी के मार्ग पर रचनात्मक कार्यों में लग गए। सभा में गांधीजी को जनता और हरिजनों ने मानपत्र भेंट किया और हरिजन कोष के लिए 1172 रुपए और कुछ आने दिए।गांधीजी हरिजन बस्तियों में गए। ब्यावर से गांधीजी मारवाड़ जंक्शन होते हुए रेल से लूणी गडरा रोड होतेहुए कराची गए।

अजमेर की गुप्त यात्रा भी की

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक बार गुप्त यात्रा पर अजमेर आए थे। इस यात्रा की जानकारी उनके करीबियों को ही थी। रात में बापू शहर की तंग गलियों से गुजरते हुए रास्ता भटक गए और एक नोहरे में जा पहुंचे।वहां उनके प्रशंसक माणकचंद सोगानी ने उन्हें पहचान लिया और बापू ने रात उन्हीं के घर गुजारी। सोगानीवर्ष 1972 में अजमेर पूर्व से विधायक रह चुके हैं। दिवंगत सोगानी के पुत्र सुधीर सोगानी को आज भी उनके पिता की ओर से सुनाया गया वह किस्सा याद है। बात वर्ष 1930 की है। खजाने के नोहरे में स्थित उनके पुराने घर में रात करीब 11 बजे उनके पिता माणकचंद सोगानी झरोखे में बैठे थे। तभी अचानक उनकी नजरगांधीजी पर पड़ी। उन्होंने झरोखे से ही आवाज दी बापू आप यहां कैसे? वे नीचे उतरे और गांधीजी से बात की। तब पता चला कि गांधीजी खजाना गली से कहीं जा रहे थे, तो रास्ता भटककर नोहरे में आ गए।उन्होंने गांधीजी को घर पर बुलाया और गांधीजी से आग्रह किया कि आज रात आप यहीं विश्राम करें और वे मान गए। गांधीजी को घर में देखकर उनके दादा दिवंगत नेमीचंद सोगानी, चाचा निहालचंद और चाची अनूप कंवर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। घर में घुसते ही गांधीजी ने कुछ भी विशेष इंतजाम करने से मना कर दिया। गांधीजी ने दूध पिया और सो गए। तडक़े ही घर से चले गए। जाते-जाते उन्होंने माणकचंदसोगानी को उनकी यात्रा का किसी से भी जिक्र नहीं करने की हिदायत दी, क्योंकि उस जमाने की अंग्रेज राज की पुलिस उनके परिवार को परेशान करती। इस घटना के कई दिनों बाद स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत ज्वालाप्रसाद शर्मा ने माणकचंद सोगानी की प्रशंसा भी की। सोगानी ने अपने परिवार से भी आजादी केबाद यह किस्सा साझा किया। विधायक माणकचंद सोगानी नगर परिषद सभापति, नगर विकास न्यासअध्यक्ष रह चुके हैं।

 

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हां उनके प्रशंसक माणकचंद सोगानी ने उन्हें पहचान लिया और बापू ने रात उन्हीं के घर गुजारी। सोगानी वर्ष 1972 में अजमेर पूर्व से विधायक रह चुके हैं। दिवंगत सोगानी के पुत्र सुधीर सोगानी को आज भी उनके पिता की ओर से सुनाया गया वह किस्सा याद है। बात वर्ष 1930 की है। खजाने के नोहरे में स्थित उनके पुराने घर में रात करीब 11 बजे उनके पिता माणकचंद सोगानी झरोखे में बैठे थे। तभी अचानक उनकी नजर गांधीजी पर पड़ी। उन्होंने झरोखे से ही आवाज दी बापू आप यहां कैसे? वे नीचे उतरे और गांधीजी से बात की। तब पता चला कि गांधीजी खजाना गली से कहीं जा रहे थे, तो रास्ता भटककर नोहरे में आ गए। उन्होंने गांधीजी को घर पर बुलाया और गांधीजी से आग्रह किया कि आज रात आप यहीं विश्राम करें और वे मान गए। गांधीजी को घर में देखकर उनके दादा दिवंगत नेमीचंद सोगानी, चाचा निहालचंद और चाची अनूप कंवर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। घर में घुसते ही गांधीजी ने कुछ भी विशेष इंतजाम करने से मना कर दिया। गांधीजी ने दूध पिया और सो गए। तडक़े ही घर से चले गए। जाते-जाते उन्होंने माणकचंद सोगानी को उनकी यात्रा का किसी से भी जिक्र नहीं करने की हिदायत दी, क्योंकि उस जमाने की अंग्रेज राज की पुलिस उनके परिवार को परेशान करती। इस घटना के कई दिनों बाद स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत ज्वालाप्रसाद शर्मा ने माणकचंद सोगानी की प्रशंसा भी की। सोगानी ने अपने परिवार से भी आजादी के बाद यह किस्सा साझा किया। विधायक माणकचंद सोगानी नगर परिषद सभापति, नगर विकास न्यास अध्यक्ष रह चुके हैं।

 

*राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दिल्ली की 80 बार यात्रा-अन्तिम यात्रा भी दिल्ली में ही निकली*

 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आज से सौ साल से भी सबसे पहले दिल्ली की यात्रा की थी।

दक्षिण अफ्रीका से बैरिस्टर बनकर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक भारतीय राष्ट्रवादी, चिंतक और संगठनकर्ता की छवि लेकर भारत लौटे मोहनदास करमचंद गांधी ने दिल्ली में पहली बार पदार्पण किया था।

 

गांधी जी अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर भारत को गहराई से जानने के लिए भ्रमण पर निकले थे। वे 12 अप्रैल 1915 को दिल्ली पहुंचे। आधिकारिक दस्तावेजों के मुताबिक यहां अपने दो दिन के प्रवास के दौरान वे कुतुबमीनार, लाल किला, सेंट स्टीफेंस कॉलेज और संगम थियेटर आदि मशहूर स्थल देखने गए थे।

 

बैरिस्टर गांधी से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बनने तक के अपने सफर में यूं तो बापू कई बार दिल्ली आए, लेकिन उनका यह पहला प्रवास इस लिहाज से अहमियत रखता है कि इस दौरान वे हिंदुस्तान के जीवन को नजदीक से समझने निकले थे। इस दौरे में उनके साथ पत्नी कस्तूरबा गांधी, रावजीभाई कोटवाल, देवधर व कुछ अन्य लोग भी दिल्ली आए थे। हालांकि यहां से वे सिर्फ देवधर के साथ आगे की यात्रा के लिए रवाना हुए।

बापू की डायरी में 13 अप्रैल की सुबह उनके छात्रों के एक कार्यक्रम में होने का उल्लेख है। यह कार्यक्रम सेंट स्टीफेंस कॉलेज का था। संभवत: वे कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल सुशील कुमार रुद्र के पास रुके थे, हालांकि डायरी में इसका उल्लेख नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करके भारत लौटे गांधीजी दिल्ली को अपनी नजर से परख रहे थे। कुतुबमीनार और लाल किला तो महज पत्थर की इमारतें थीं, गांधीजी तो भविष्य के भारत की नींव देख रहे थे।

 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दिल्ली में 80 बार आए और 720 दिन ठहरें। यहां उन्होंने अपने जीवन के आखिरी 144 दिन बिड़ला हाउस में बिताए थे, जो आज ‘गांधी स्मृति’ के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर उनकी हत्या हुई थी और दिल्ली के राजघाट पर उनका अंतिम संस्कार भी हुआ।

 

दिल्ली में गांधी जी से जुड़े महत्वपूर्ण स्थलों के अलावा उन कुछ अन्य स्थलों पर उनकी स्मृतियां अनूठे रूप में संजोई

हुई हैं।

 

गांधी स्‍मृति

 

गांधी स्‍मृति या गांधी स्‍मृति संग्रहालय वह स्‍थल है जहां राष्‍ट्रपिता, महात्‍मा गांधी ने अपने जीवन के आखिरी 144 दिन बिताएं थे। गांधी स्‍मृति को पहले बिड़ला हाउस या बिड़ला भवन के नाम से पुकारा जाता था। यह वह जगह भी है जहां 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्‍मा गांधी की गोली मारकर हत्‍या कर दी थी।

इस घर को केंद्रीय सरकार ने 1971 में अपने कब्‍जे में कर लिया और आम जनता के लिए 15 अगस्‍त 1973 को खोल दिया। यहां एक शहीद स्‍तंभ भी है जहां महात्‍मा गांधी की गोली मारकर हत्‍या कर दी गई थी। संग्रहालय में महात्‍मा गांधी के जीवन और मृत्‍यु से संबंधित कई लेख भी दर्शाए गए हैं।

संग्रहालय में तस्‍वीरों को विशाल संग्रह है और उनके द्वारा इस्‍तेमाल की जाने वाली किताबें व अन्‍य सामान भी रखा गया है। मूलत: यह घर बिड़ला परिवार का था, जहां महात्‍मा गांधी दिल्‍ली आने के दौरान रूका करते थे। इस संग्रहालय के बाहर एक खंभा है जिस पर एक स्‍वास्‍तिक चिन्‍ह् और ओम का प्रतीक बना हुआ है।

अगर आप शांति का दूत महात्‍मा गांधी, के जीवन को महसूस करना चाहते हैं तो इस जगह अवश्‍य जाएं। इस जगह की शांति और ठहरा हुआ वातावरण आपको यहां और समय बिताने के लिए प्रेरित करता है। यह संग्रहालय सोमवार और अन्‍य राष्‍ट्रीय अवकाश के दौरान बंद रहता है और सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।

 

राजधाट : जहां अरबसागर साबरमती और यमुना के त्रिवेणी संगम वाले महात्मा की समाधि हैं

 

 

 

महात्मा गांधी द्वारा 1932 में शुरू किया हरिजन सेवक संघ भी दिल्ली के कुछ सबसे महत्वपूर्ण स्थलों में से एक हैं। गांधी सबसे पहले 1915 में दिल्ली आए थे। उस समय उनकी उम्र 45 साल थी और वे दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे। उन्होंने तब कुतुबमीनार और लाल किला का भ्रमण किया था। वे सेंट स्टीफन कॉलेज भी गए थे, जो तब कश्मीरी गेट में हुआ करता था। उस इमारत में अब दिल्ली प्रदेश चुनाव आयोग का दफ्तर है। उस समय कॉलेज के प्रिंसिपल सुशील कुमार रुद्र ने अपने घर पर गांधी की मेजबानी की थी। साल 1921 में गांधी ने एक बार फिर एक कॉलेज का भ्रमण किया। इस बार वे करोल बाग में स्थित आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज के नए भवन का उद्घाटन करने आए थे, जिसका शिलान्यास तत्कालीन ब्रिटिश वाइसराय ने किया था।

 

दिल्ली के मंदिर मार्ग पर निर्मित सुंदर वाल्मीकि मंदिर के परिसर में स्थित बापू निवास अपने सीने में इतिहास को समेटे हुए है। गांधी यहां 1 अप्रैल 1946 से लेकर 1 जून 1947 तक रहे थे। दिल्ली में गांधी से जुड़े स्थलों में यह शायद सबसे कम ज्ञात स्थल है। यह बड़ा शांत कमरा पवित्र संग्रहालय जैसा है। यहां प्रदर्शित चीजों को आप छू सकते हैं। दीवारें प्रसिद्ध लोगों के साथ गांधी के श्वेत-श्याम छायाचित्रों से सजी हैं।

 

जब दिल्ली बन गई फिल्म का सेट

 

दिल्ली ने रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित और कई ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘गांधी’ में अहम भूमिका निभाई थी। इस फिल्म के कई दृश्य मुंबई, पटना व पुणे में तथा उनके आसपास के इलाकों में फिल्माए गए थे। इस फिल्म के कई शानदार और विशाल सेटों को बढ़इयों, राजमिस्त्रियों व दस्तकारों की एक समर्पित टीम द्वारा नई दिल्ली के फ्रेंड्स कॉलोनी स्थित मेनर होटल में तैयार किया गया था। कॉस्ट्यूम डिजाइनरों ने भी फिल्म के अतिरिक्त कलाकारों के पोशाक तैयार करने के लिए मध्य दिल्ली के अशोक होटल के कन्वेंशन हॉल के बेसमेंट में कड़ी मेहनत की थी।

 

गांधी के अहमदाबाद के साबरमती आश्रम का सेट राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के फरीदाबाद के पास तैयार किया गया था। जालियांवाला बाग नरसंहार के दृश्य राजधानी में फिल्माए गए थे। उत्तरी दिल्ली में स्थित रोशनआरा क्लब को बिहार के चंपारण क्रिकेट क्लब का रूप दिया गया था। वहीं गुरुग्राम के पास स्थित एक छोटे-से रेलवे स्टेशन गढ़ी-हरसरु को पीटरमॉरित्जबर्ग स्टेशन बनाया गया। दक्षिण अफ्रीका के इसी रेलवे स्टेशन पर गांधी को फस्र्ट क्लास डब्बे से बाहर निकाल फेंका गया था। इस फिल्म का वल्र्ड प्रीमियर 30 नवंबर, 1982 को सिनेमाहॉल चाणक्य थियेटर में हुआ था। इसके वल्र्ड प्रीमियर में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी शामिल हुई थीं।

 

गांधी की अंतिम यात्रा

 

किसी भी दिल्ली वॉकिंग गाइड में गांधी की अंतिम यात्रा का मार्ग, बिड़ला हाउस, जहां उन्हें गोली मारी गई और यमुना का तट, जहां उनकी अंत्येष्टि हुई थी, नहीं बताया जाता, जो काफी हैरानी की बात है।  गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम बिड़ला हाउस में हुई थी। ब्रिटेन की पत्रिका ‘हिस्ट्री टुडे’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ‘उनका पार्थिव शरीर बिड़ला हाउस की छत पर रखा गया था। उन्हें सूती कपड़े में लपेटा गया था। चेहरा खुला रखा गया था। मात्र एक स्पॉटलाइट जल रही थी, जिसका प्रकाश उन पर पड़ रहा था।’

गांधी का अंतिम संस्कार अगले दिन शाम को ही कर दिया गया। लाखों लोगों का जुलूस सुबह 11.45 बजे से अल्बुकर्क रोड (अब 30 जनवरी मार्ग) से शुरू हुआ।  यह जुलूस क्वींसवे, किंग्सवे और हार्डिंग एवेन्यू से होते हुए गुजरा। पत्रकार लुई फिशर के अनुसार, ‘उस दिन बहुत ठंड थी। तेज हवा चल रही थी। गांधी का पार्थिव शरीर शाम 4.20 बजे अंत्येष्टि स्थल पर पहुंचा। 25 मिनट बाद गांधी जी के तीसरे पुत्र रामदास ने चिता को अग्नि दी। 14 घंटे बाद अवशेषों को घर में बुनी गई सूत की थैली में एकत्र किया गया, फिर उसे तांबे के एक कलश में रख कर उस पर यमुना के पवित्र जल का छिड़काव किया गया और वापस बिड़ला हाउस ले जाया गया।’

 

दो महान हस्तियों का मेल

 

अमेरिका के मानवाधिकार नेता मार्टिन लूथर किंग गांधी को ‘अहिंसक सामाजिक परिवर्तन के हमारे रास्ते का पथप्रदर्शक’ मानते थे। वह 1959 में भारत की पांच सप्ताह की यात्रा पर आए थे। पालम एयरपोर्ट पर उतर कर उन्होंने एक बात कही, ‘दूसरे देशों की यात्रा पर मैं एक यात्री के रूप में जाता हूं, पर भारत आता हूं तीर्थयात्री के रूप में।’ दिल्ली का ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ इन दो महापुरुषों के बीच के आत्मिक संबंधों का स्मरण कराता है, जो संयोग से कभी नहीं मिले। गांधी-किंग प्लाजा एक छोटा-सा बगीचा है, जो इस सेंटर के एक कोने में स्थित है। यहां एक धूसर स्तंभ है, जिस पर अंग्रेजी व हिंदी में दोनों महापुरुषों की उक्तियां उत्कीर्ण  हैं।

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