हर भारतीय नागरिक की विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में जगह दी गई है। हर व्यक्ति को अपनी बात बोलने या लिखने का अधिकार है किंतु संविधान यह भी कहता है कि बोलने की या फिर लिखने की यह आजादी जरूर है किंतु तब तक कि जब तक बोलना या लिखना हमारे संवैधानिक मूल्यों को चुनौती न देता हो। संवैधानिक मूल्यों की चुनौती के अलावा नस्लीय विवादों को उभारना,ईश निंदा करना, जाति का अपमान करना, देश के खिलाफ टिप्पणी करना जैसी छूट भी नहीं है।
संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों को छोड़ दें तब भी समाज में नैतिकता का भी तकाजा होता है। सैद्धांतिक तौर पर राजनेताओं को इस मर्यादा का सदैव ध्यान रखना चाहिए पर इस मर्यादा का सबसे ज्यादा चीर हरण यही वर्ग करता है । यह सोचने का समय और समझ ऐसे नेताओं के पास होनी चाहिए कि समाज व देश पर उनके बयानों का क्या असर हो रहा है या भविष्य में हो सकता है।
भारतीय राजनीति में असंसदीय छींटाकशियों और अपने प्रतिद्वंद्वियों के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों का एक लंबा इतिहास रहा है। शायद इसकी शुरुआत आजादी से पहले तीस के दशक में हुई थी जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने महात्मा गांधी से अपने मतभेदों के चलते उनके लिबास पर अभद्र टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘नंगा फकीर’ तक कह डाला था।
बिगड़े बोल या विवादास्पद टिप्पणियों को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है। एक वो टिप्पणियां जो जान-बूझकर एक रणनीति के तहत, पार्टी के दिशा निर्देश पर या स्वविवेक से अपने प्रतिद्वंदी को छटपटाने के लिए की जाती हैं। ऐसी टिप्पणियों को विवाद बना कर छोड़ दिया जाता है और नेता कभी भी अपनी ओर से सफाई देने सामने नहीं आते हैं। उनके समर्थक उनके बयान को सही सिद्ध करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं।
दूसरे प्रकार की टिप्पणियां वो होती हैं जो अनायास किसी नेता के कम अनुभवी, अपरिपक्व और अकुशल होने के नाते जुबान से निकलती हैं और पार्टी तक के लिए क्लेश का कारण बन जाती हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कई बार नेताओं की जुबान फिसल जाती है और उनके बयान विवाद का कारण बन जाते हैं। वही कुछ नेता ऐसे भी हैं जो जानबूझकर अपनी जुबान को फिसलने देते हैं यानी उनका यह प्रयास सायास होता है ताकि वे किसी भी प्रकार चर्चा में बने रहें और मीडिया में जगह पा सकें।
हाल के दिनों में मध्यप्रदेश में ऐसे बयानों की बाढ़ सी आ गई है। भाजपा के मध्यप्रदेश प्रभारी पी मुरलीधर राव ने बनिया और ब्राह्मण समाज को जेब में रखा बताया, भाजपा विधायक व प्रोटेम स्पीकर रहे रामेश्वर शर्मा ने सिंधी राजपूत समाज पर गैरजरूरी टिप्पणी कर के मुसीबत मोल ले ली और सबसे ताजा मामला भाजपा के ‘आयातित’ मंत्री बिसाहुलाल सिंह, जो प्रदेश का खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय संभाल रहे हैं, का है। मंत्री बिसाहुलाल सिंह पर राजपूत महिलाओं के लिए अपमानजनक टिप्पणी का मामला तो माफी मांगने के बावजूद थमने का नाम नहीं ले रहा है।
उपरोक्त तीनों मामलों में आप देखेंगे कि नेताओं में अति उत्साह और बड़बोलापन ही ऐसे बयानों का एकमात्र कारण है।इनके पीछे किसी भी तरह पार्टी को लाभ दिलाने की मंशा तक नहीं है, बल्कि इन नेताओं ने ऐसे अविवेकी बयान देकर पार्टी की जान ही सांसत में डाल दी। तभी तो मंत्री बिसाहुलाल सिंह के बयान से हुए डैमेज के कंट्रोल करने के लिए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा तक को माफी मांगनी पड़ी।
मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने भी अपनी मंत्री को मुख्यमंत्री आवास पर बुलाकर जमकर ‘कठोर’ समझाइश दी तब जाकर उन्होंने सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी। इससे पहले भाजपा के मध्यप्रदेश प्रभारी पी मुरलीधर राव और भाजपा विधायक रामेश्वर शर्मा भी अपने बयानों के लिए सफाई दे चुके हैं और माफी भी मांग चुके हैं।
यह अलग बात है कि बिगड़े बोलों के बाद जारी किए गए स्पष्टीकरण का वैधानिक महत्व हो सकता है पर लोगों के मन पर जो अंकित हो चुका होता है, वह कभी भी नहीं मिटता है और वक्त जरूरत पर सभी लोग उन बयानों को अपने हित में प्रयोग करने से कतई नहीं चूकते हैं।
ऐसा भी देखा गया है कि कई बार प्रवाह के दौरान कुछ ऐसी बात निकल जाती है जो सोच के बोली नहीं जाती है पर उसके परिणाम काफी घातक होते हैं। एक बार केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने पुरुषों और महिलाओं के बीच होने वाले भेदभाव पर चर्चा कर रहे थे, बात आईक्यू लेवल तक पहुंच गई थी।
मंत्री नितिन गडकरी ने बोल गए कि ‘अगर साइंटिफिक भाषा में हम कहें तो दाऊद इब्राहिम और स्वामी विवेकानंद का आईक्यू लेवल एक ही था लेकिन एक ने इसे गुंडागर्दी में लगाया और दूसरे ने इसे समाज सेवा में लगाया’। उनकी मंशा चाहे जो भी रही हो लेकिन इस बयान पर खूब हंगामा हुआ और मंत्री की फजीहत भी हुई थी। यहां गडकरी को गलत तुलना करने का खामियाजा भुगतने पड़ गया।
1984 के दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दंगे भड़क उठे। उसी संदर्भ में राजीव गांधी ने बयान दे दिया था कि, “बड़ा पेड़ गिरता है तब धरती हिलती तो है।” उनके इस बयान ने उस दौर में बड़ा विवाद उत्पन्न कर दिया था। उस बयान के समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे।
2010 में पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा ने उस समय कर्नाटक के मंत्री यदियुरप्पा पर ऐसे शब्दों से हमला किया था जिसे यहां लिखा तक नहीं जा सकता है। 2011 के विधानसभा चुनाव में केरल के पूर्व मुख्यमंत्री अच्युतानंद ने कहा था कि राहुल एक अमूल बेबी है जो दूसरे अमूल बेबियों के लिए प्रचार करने आए हैं।
इस जुमले की वजह यह थी कि राहुल गांधी ने अपने भाषण में अच्युतानंद की बढ़ती उम्र का जिक्र किया था जिससे वे तिलमिला गए थे। थोड़ा और पीछे जाएं तो देखेंगे कि 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर तक कहा था। उनकी यह टिप्पणी विवादित गोधरा कांड से संबंधित थी। वही 2013 -14 के दौरान सहारनपुर में कांग्रेसी नेता इमरान मसूद ने कहा था कि नरेंद्र मोदी की बोटी बोटी एक कर देंगे।
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बिगड़े बोलों के लिए किसी एक पार्टी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। सभी पार्टी अपने राजनीतिक उद्देश्यों को साधने के लिए समय-समय पर इस तरह के बयानों का इस्तेमाल करती रहती हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा था कि शशि थरूर अंतरराष्ट्रीय लव गुरु हैं, जिन्हें लव अफेयर्स मंत्रालय का मंत्री बना दिया जाना चाहिए था। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह भी राजनेता का काम सरहदों पर फौजियों का जो काम होता है, उससे भी ज्यादा जोखिम वाला काम है, ऐसा बोल कर फंस चुके हैं।
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राजनीति में टारगेटेड मिसाइल छोड़ना एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा हो सकता है पर बंदूक की नाल साफ करते हुए किसी व्यक्ति को गोली लगे तो यह उसकी बहादुरी नहीं बल्कि अपरिपक्वता और अकुशलता को इंगित करता है। इसी प्रकार राजनीति मेंअपने प्रतिद्वंदी नेता के खिलाफ आक्रमण करना एक रणनीति का हिस्सा हो सकता है लेकिन बड़बोलेपन के कारण अनर्गल बयान देकर खुद और अपनी पार्टी को संकट में डाल देना कहां की बुद्धिमानी है। सभी नेताओं के लिए समय समय पर वर्कशाप कर इस तरह की ट्रेनिंग दी जाने की बहुत जरूरत है कि कब, कहां कितना बोलना है आपको।