राज्य धर्म व मानव धर्म की त्रासदियों के मध्य श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही अग्रसेन जी क्षत्रिय से बने थे वैश्य

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राज्य धर्म व मानव धर्म की त्रासदियों के मध्य श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही अग्रसेन जी क्षत्रिय से बने थे वैश्य

*प्रसंग-वश- वरिष्ठ लेखक,कवि पत्रकार व मीडियावाला के संभागीय प्रमुख चंद्रकांत अग्रवाल का कालम*

*श्री अग्रसेन जयंती पर एक चिंतन* 

 

*श्री राम के बाद उनके ही वंशज अग्रसेन थे समाजवाद के प्रणेता* आज देश में राम राज्य के बाद समाजवाद के प्रथम प्रणेता माने जाने वाले अग्रकुल प्रवर्तक श्री अग्रसेन जी का पावन जयंती पर्व हैं। सम्पूर्ण देश को,अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक की सेवा का दावा करने वाली किसी भी राजनीतिक पार्टी से जुड़े,किसी भी विचारधारा के व्यक्ति को आज श्री अग्रसेन जी के कृतित्व व व्यक्तित्व को आत्मसात करना देश हित में,जन हित में प्रासंगिक होगा,यदि हम आत्म चिंतन हेतु तैयार हों। क्योंकि अग्रसेन जी की विचारधारा, श्री राम की तरह ही सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय की थी। श्री कृष्ण की तरह अधर्म के खिलाफ की थी। महाभारत के युद्ध में अग्रसेन जी के पिताश्री ने भी अग्रसेन जी को अपने साथ रखकर पांडवों के पक्ष में अपनी विशाल सेना के साथ युद्ध किया था। इस युद्ध में अग्रसेन जी के पिता महाराज वल्लभ सैन भीष्म पितामह के हाथो वीर गति को प्राप्त हुए थे। तब मात्र 16 वर्ष की आयु में अग्रसेन जी ने महाभारत के 11वें से 18 वें दिन तक युद्ध में भाग लिया था।अग्रसेन भगवान राम की 35 वीं पीढ़ी के वंशज व भगवान राम के पुत्र कुश की 34 वीं पीढ़ी में थे। युद्ध के बाद भी जब क्षत्रियों की हिंसा से धरती जलती रही तो ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण की प्रेरणा से ही श्री अग्रसेन ने क्षत्रिय वर्ण छोडक़र वैश्य वर्ण को स्वीकार किया था व धर्म एवंं भक्ति के मार्ग पर चलते हुए समाजवाद के सिद्धांत के साथ शांतिपूर्वक जीने का संदेश पूरे देश को दिया था।

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अत: अग्रवालों को बनिया मानकर कमजोर समझने की भूल भी किसी को नहीं करनी चाहिए। सबको यह याद रखना चाहिए कि ये अग्रवाल पहले क्षत्रिय हुआ करते थे। महाराजा अग्रसेन जी का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी माता का नाम भगवती था। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।

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इतिहास के मुताबिक इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम चरण में हुआ था। उस समय के राजा प्रजा के हित में कार्य करते थे। यही सिद्धांत राजा अग्रसेन ने भी बढ़ाया, जिनके कारण वे इतिहास में अमर हुए। इनकी नगरी का नाम प्रतापनगर था, बाद में उन्होंने अग्रोहा नामक नगरी बसाई थी, जो आज एक प्रसिद्ध स्थान है। महाराजा अग्रसेन की जन्म तिथि और समय के बारे में कोई सटीक साक्ष्य मौजूद नहीं हैं, परन्तु कहा जाता हैं उनका जन्म 3130+ संवत 2073 ( विक्रम संवत शुरु होने से करीब 3130 साल पहले हुआ था। महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया। इस स्वंयवर में देव लोक से राजा इंद्र भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे, परन्तु माधवी द्वारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये। इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर अकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने महालक्ष्मी माता की आराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न क परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी।

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कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पड़ेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो । कोलापुर में नागराज महीरथ का शासन था। राजकुमारी सुन्दरावती के स्वयंवर में अनेक देशों के राजकुमार, वेश बदलकर अनेक गंधर्व व देवता उपस्थित थे, तब भगवान शंकर एवं माता लक्ष्मी की प्रेरणा से राजकुमारी ने श्री अग्रसेन को वरण किया। दो-दो नाग वंशों से संबंध स्थापित करने के बाद महाराजा वल्लभ के राज्य में अपार सुख समृद्धि व्याप्त हुई, इन्द्र भी श्री अग्रसेन से मैत्री के बाध्य हुये।

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एक नए राज्य के लिए जगह चुनने के लिए अग्रसेन ने अपनी रानी के साथ पूरे भारत में यात्रा की। अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का शासन सौंप दिया। अपनी यात्रा के दौरान एक समय में, उन्हें कुछ बाघ शावक और भेड़िया शावकों को एक साथ देखे । राजा अग्रसेन और रानी माधवी के लिए, यह एक शुभ संकेत था कि क्षेत्र वीरभूमि ( बहादुरी की भूमि) था और उन्होंने उस स्थान पर अपना नया राज्य पाया। ऋषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है। अग्रोहा हरियाणा वर्तमान दिन हिसार के पास स्थित है। वर्तमान में अग्रोहा के पवित्र स्थल के रूप में विकसित हुआ है, जिसमें कुल देवी मां महालक्ष्मी, अग्रसेन और वैष्णव देवी का एक बड़ा मंदिर है। माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ऋषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ऋषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ऋषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ऋषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ऋषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ऋषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ऋषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ऋषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ऋषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ऋषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ऋषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ऋषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ऋषि मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ऋषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे।

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जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने वैश्य धर्म को अपना लिया । अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ऋषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया। ऋषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया। एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है। महाराजा अग्रसेन ‘एक ईट और एक रुपया’ के सिद्धांत की घोषणा की। जिसके अनुसार नगर में आने वाले हर नए परिवार को नगर में रहनेवाले हर परिवार की ओर से एक ईट और एक रुपया दिया जाएं। ईटों से वो अपने घर का निर्माण करें एवं रुपयों से व्यापार करें। इस तरह महाराजा अग्रसेन जी को समाजवाद के प्रणेता के रुप में पहचान मिली। दरअसल यह शिक्षा महाराजा अग्रसेन को एक घटना देखने के बाद मिली हुवा था की एक बार अग्रोहा में अकाल पड़ने से चारों तरफ भूखमरी, महामारी जैसे विकट संकट की स्थिति पैदा हो गई थी। वहीं इस विकट समस्या का हल निकालने के लिए जब अग्रसेन महाराज अपनी वेषभूषा बदलकर नगर का भ्रमण कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। इसी दौरान उन्होंने देखा कि एक परिवार में सिर्फ 4 लोगों का भी खाना बना था, और उस परिवार में एक मेहमान के आने पर खाने की समस्या उत्पन्न हो गई, तब परिवार के सदस्यों ने एक हल निकाला और अपनी-अपनी थालियों से थोड़ा-थोड़ा खाना निकालकर आए मेहमान के लिए पांचवी थाली परोस दी। इस तरह मेहमान की भोजन की समस्या का समाधान हो गया। इससे प्रभावित होकर अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य में ‘एक ईट और एक रुपया’ के

सिद्धांत को लागू किया। महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे सर्वजन हिताय सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें। यह एक प्रिय राजा की तरह प्रख्यात थे । उन्होंने महाभारत युद्ध में पांडवो के पक्ष में युद्ध किया था। राजा अग्रसेन ने अपने जीवन कई महान कार्य किये और एक सकुशल राज्य की स्थापना की। जीवन के अंतिम क्षण में उन्होंने अपने कार्यभार अपने जेष्ठ पुत्र विभु को सौंप दिया। और स्वयं वन में चले गए। इन्होने लगभग 100 वर्षो तक शासन किया था। इन्हें न्यायप्रियता, दयालुता, कर्मठ एवम क्रियाशीलता के कारण इतिहास के पन्नो में एक भगवान के तुल्य स्थान दिया गया है। अग्रसेन महाराज ने अपने विचारों एवम कर्मठता के बल पर समाज को एक नयी दिशा दी। उनके कारण समाजवाद एवम व्यापार का महत्व सभी ने समझा। इसी कारण भारत सरकार ने 24 सितम्बर 1976 को सम्मान के रूप में 25 पैसे के टिकिट पर महाराज अग्रसेन की आकृति डलवाई | भारत सरकार ने 1995 में एक बड़ा जहाज लिया जिसका नाम अग्रसेन रखा गया था। अब अंत में यदि सबसे अहम बात अग्रसेन जी की श्री कृष्ण की सलाह से क्षत्रिय से वैश्य बनने की करें तो उसके लिए पहले हमें धर्म क्षेत्र की त्रासदियों को रेखांकित करने वाले महाभारत के महायुद्ध में श्री कृष्ण की भूमिका अच्छी तरह समझनी होगी। क्योंकि तभी हम यह रहस्य भी समझ सकेंगे कि श्री कृष्ण ने करुणा से लबालब भरे महावीर श्री अग्रसेन को क्यों क्षत्रिय से वैश्य बनने को कहा। तो आइए हम अपने चिंतन को महाभारत से जोड़ते हैं। महाभारत के युद्ध के प्रारंभ होने के बाद क्रमश: अन्यायियों की मदद में खड़े युद्ध नियमों को भी बदल डालते हैं । श्री राम कभी भी सत्य का त्याग नहीं करते और श्रीकृष्ण सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर को देर तक औेर जोर देकर समझाते हैं कि धर्म के पक्ष में लड़ा जाने वाला यह युद्ध तब तक जीता नहीं जा सकेगा जब तक द्रोणाचार्य जैसे महारथी मारे नहीं जाते। युधिष्ठिर भी अड़े हुए हैं, किंतु अंतत: वहीं आचरण करते हैं जिसे कृष्ण सुझाते हैं ,यानी अर्द्ध सत्य बोलना। महात्मा गांधी शायद यह कभी न करते। पर कृष्ण कराते हैं और द्रोणाचार्य मारे जाते हैं। यह एक वीभत्स दृश्य था, जैसा कि महाभारत में चित्रित हैं। तो क्या वह यह भी मान लें कि धर्म का मार्ग कभी कभी ऐसी वीभत्सताओं से होकर भी गया हैं? या यह कि यह अपवाद स्थिति हैं, जो कभी कभी अनिवार्य हो उठती हैं। आज तो हम धर्म के मार्ग में ऐसी वीभत्सताएं कदम कदम पर बार बार देखने को विवश है। कलयुग में जीने की सजा हैं यह शायद, कृष्ण जैसा लीला पुरूषोत्तम इसी अपवाद स्थिति की कल्पना है, किंतु अनिवार्य सांस्कृतिक मांग की कल्पना भी है। कारागार में जन्म लेकर गोकुल में लीलाएं कर, महाभारत के युद्ध का अविस्मरणीय नेतृत्व कर उन्होनें जीवन और समय को समझने और उससे व्यवहार करने की जो चाबी इस देश को दी हैं, वह आज भी पुरानी नहीं पड़ी है,न अप्रासांगिक सिद्ध हुई हैं। कलयुग में शायद और कारगर लगे और सिद्ध हो। कौरवों पर पांडवों की जीत पर कृष्ण का लौकिक और परलौकिक सर्वस्व दांव पर लगा हुआ है। कौरवों पर पांडवों की जीत अधर्म पर धर्म की जीत होगी। कृष्ण के संभवामि होने का अभीष्ट भी यही है कि दृुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना। इसके अतिरिक्त पांडव उनके भक्त और शरणागत भी हैं । न में भक्ता: प्रणाष्यति का मिथ्या साबित नहीं होना चाहिए और यत: धर्म:तते जय: की भी रक्षा करनी है। कौरवों की शक्ति पांडवों से अधिक है। अपनी जीत के प्रति पूर्ण आश्वस्त दुर्याेधन, पांडवों से डरे हए धृतराष्ट्र से कहता हैं कि पांडवों के पास सिर्फ सात महारथी हैं पांच पांडव, सत्यकि और धृष्टद्युम्न। मेरे पास भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य,कर्ण, अश्वत्थामा, विकर्ण आदि सहित इक्कीस। पांडवों के पास सात अक्षौहिणी सेना है,मेरे पास ग्यारह। बलराम जी का कहना हैं कि गदा युद्ध में पृथ्वी पर मेरे समान कोई यौद्धा नहीं। पांडवों की तुलना में मेरी सेन्य शक्ति तीन गुना ज्यादा है। देव गुरू बृहस्पति का कहना हैं कि जिसके पास शत्रु से तीन गुनी शक्ति हो उसे युद्ध से डरना नहीं चाहिए। दंभी दुर्याेधन के कथन में अतिशयोक्ति हो सकती हैं। लेकिन कृष्ण जानते हैं कि शक्ति संतुलन निर्णायक रूप से कौरवों के पक्ष में हैं। अपने से अधिक शक्तिशाली आततायी शत्रु से धर्मयुद्ध लडक़र विजय नहीं पायी जा सकती । इसके लिए बुद्धि और युक्ति की भी जरूरत हैं। अपराजेय, भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्याेधन से कैसे पार पाया जाये, इसे लेकर कृष्ण के मन में कोई नैतिक असमंजस नहीं। युद्ध के 18 दिन कृष्ण के लिए चरम सन्नद्धता, चिंता और आपद्धर्म के दिन हैं। उनकी दृष्टि बहुत साफ हैं। न्यायोचित उद्देश्य के लिए अनुचित साधन अपनाना अधर्म नहीं। पांडवों के साथ अब तक छल कपट करते आये दुर्याेधन को, सिर्फ उसी के तरीकों से परास्त किया जा सकता हैं। मरने से पहले भीम के गदा प्रहार से युद्ध भूमि में टूटी जंघाएं लिए दुर्याेधन कृष्ण पर आरोप लगाता हेैं। मेरे साथ कपट युद्ध करने के लिए पांडवों को उन्होंने ही उकसाया। उनकी आज्ञा से ही अर्जुन ने शिखंडी की ओट से भीष्म को मारा, द्रोण से अस्त्र रखवाने के लिए अश्वत्धामा के मरने की अफवाह पांडवों ने उनकी प्रेरणा से ही फैलायी।उनकी आज्ञा से ही अर्जुन ने रथ का पहिया निकालते हुए नि:शस्त्र कर्ण को मारा। उनके संकेत से ही भीम ने नाभि के नीचे गदा प्रहार कर उसकी जंघाएं तोड़ी। इस तरह पांडवों ने उसे युद्ध से नही अधर्म से पराजित किया। पांडव हतप्रभ होते हैं, क्योंकि दुर्याेधन के आरोपों में आंशिक सच हैं। लेकिन कृष्ण अविचलित हैं। उनका उत्तर होता हैं कि पांडवों ने जो किया, अपनी प्राण रक्षा के लिए किया। हमारे पूर्वज देवता भी आततायी दानवोंं पर छल कपट से विजय पाते आये हैं। यहां वे विशेष रूप से वामन और बलि का उदाहरण देते हैं। दुर्याेधन पर आकाश से पुष्पवृष्टि होती है तो इसलिए नहीं कि उसका कथन आंशिक सत्य हैं, बल्कि इसलिए कि वह वीरोचित भाव से बिना किसी आत्दया के मृत्यु का वरण कर रहा हैं और इसीलिए भी कि उसके कथन में ईश्वर के बरक्स मनुष्य की स्वतंत्रता का उद्घोष हैं। कृष्ण के दबाव में युधिष्ठिर को कहना पड़ता है, अश्वत्धामा नहीं रहा, लेकिन बाद में धीरे से जोड़ देते हैं, नरो व कुंजरोवा। कृष्ण युधिष्ठिर का मनोविज्ञान समझते हेैं। वे जानते हैं कि बाद मे वे जरूर कोई ऐसे ढंग से बात कहेगें। अत: पहला वाक्य समाप्त होते ही शंख फूंक देते हैं। युधिष्ठिर का नरो व कुंजरोवा शंख के तुमुलनाद में डूब जाता हैं। इसके बाद द्रोण साधारण सैनिकों के लिए सर्वथा वर्जित पांडवी सेना का ब्रह्मास्त्र से वध करते हैं तो उनके इस घोर कर्म पर आकाश में अनेक ऋषि प्रकट होकर भत्र्सना करते हैं ओर अपने को पांडवों का अपराधी मानते हुए द्रोण पश्चाताप से भरे हुए शस्त्र रख देते हैं और समाधिस्थ हो रथ में ही प्राण त्याग देते हैं। इसके बाद धृष्टद्युम्न जिनका सिर काटता हैं, वह जीवित द्रोण सिर न होकर निष्प्राण द्रोण का सिर होता है। युधिष्ठिर से झूठ बोलने का आग्रह करते हुए कृष्ण, यहां एक भिन्न सूत्र देते हैं, यदि झूठ बोलने से किसी की प्राण रक्षा होती हेै,तो वह सत्य से भी बढ़कर धर्म हैं। अत: विजय उन्हीं की होगी, इसी तरह फलित हो सकता था। भीष्म शिखंडी के बाणों से नहीं मरे,अर्जुन के बाणों से मरे। धृष्टद्युम्न ने भी जीवित द्रोण का नहीं, उनके शव का वध किया। कृष्ण ने वही किया जो नियति द्वारा बहुत पहले निर्दिष्ट हो चुका था, जो द्रोण ने स्वयं चाहा था और जो उनका कर्म फल था। महाभारत के ऐसे विलक्षण कृष्ण का आगे क्या हुआ? उन्होंनें पांडवों को विजय, राज्य और धन तो प्राप्त करा दिया, परंतु क्या वह सब टिक पाया? कृष्ण अपने जीवन के उत्तराद्र्ध में क्या पूरे संतोष समाधान के साथ मृत्यु के सम्मुख जा पाये? इन प्रश्नों के जो उत्तर महाभारतकार ने दिये हैं वे सब नकारात्मक हैं। महाभारत के युद्ध में पांडवों ने जिस पद्धति से सभी कौरव वीरों को मार दिया था। अश्वत्धामा ने उसी पद्धति से पांडव वीरों की हत्या की। युद्ध के बाद कौन बचे हैं? पांच पांडव, द्रौपदी और कुंती, धृतराष्ट्र और गांधारी, युयुत्सु और उत्त्रा का गर्भ और अंत में कृष्ण। कुल मिलाकर बारह व्यक्ति बचे होंगें शायद। युद्ध के समापन पर युद्ध भूमि पर शवों का ढेर लग गया था। सभी मृत वीरों की पत्नियां उनकी छाती पर सिर रखकर विलाप कर रही थी। गांधारी की बंद आंखों को यह करूण दृश्य बह़ुत साफ दिखलाई दे रहा था। इसी समय कृष्ण को गांधारी से मिले शाप का प्रभाव कहे अथवा कृष्ण का कर्म फल, गांधारी ने जो कहा, वैसा ही घटित हुआ। यादव कुल का सर्वनाश शराब में नशे के कारण हुआ। पहली शरारत शैलेय सत्यकि ने की और कृतवर्मा भडक़ उठा। विषय था, महा भारत युद्ध में धर्म अधर्म का और मूल्यवान स्यमंतक मणि की चोरी का कृतवर्मा महाभारत युद्ध में अश्वत्धामा की सहयोगी था। गहरी नींद सो रहे द्रोपदी के पुत्रों को मारते समय उसने अश्वत्धामा की सहायता की थी, इसलिए सत्यकि उसे दोष दे रहा था। दुर्याेधन ओर कृष्ण एक दूसरे के दोषों को गिन रहे थे। यह प्रसंग भी वैसा ही था। इसमें कौन दोषी और कौन निर्दाेष यह कैसे सावित कर सकेंगे? परंतु शराब का नशा जैसे जैसे चढ़ता गया वैसे वैसे उनका झगड़ा बढ़ता गया। यह झगड़ा जब स्यमंतक मणि की चोरी के पुराने प्रकरण तक आया, तब सत्यभामा रोने लगी। सात्यकि कृतवर्मा में युद्ध शुरू हुआ और कौरव कुल के विनाश की ही भांति कृष्ण के यादव कुल का भी विनाश हो गया। कृष्ण ने इसमेें शौर्य का प्रदर्शन किया परंतु उनका शौर्य कुल विनाश के लिए अधिक कारणी भूत शामिल हुआ। कृष्ण ने बलराम के अंत को निकटता से देखा ओर वह निराश हो गये। ऐसी निराश अवस्था में बगैर मनको संतुलित रखने का अन्य कोई उपाय उपलब्ध नही होने के कारण वह योगस्थ बैठ गये। उधर हस्तिनापुर में क्या हुआ? विदुर और कुंती तथा धृतराष्ट्रऔर गांधारी वन में चले गये। वहां विदुर मतिभ्रम की अवस्था में गुजर गए। जो शेष थे उन्होनें दावाग्नि में आत्महत्या कर ली। महाभारत के युद्ध में बच गया उतरा के पेट का गर्भ आगे परीक्षित के रूप में बड़ा हुआ। पांडवों ने उसे राज गददी पर बैठाया और वे भी द्रौपदी के साथ वन की ओर निकले। भयावह श्रम से वह एक के बाद एक धराशाई होते गये। इसका वर्णन महाभारतकार ने अतिशय तन्मय होकर किया हैं। युधिष्ठिर द्वारा द्रोपदी को दिया गया दूषण और भीम का द्रोैपदी पर प्रेम इनसे मनुष्य की दो प्रवृत्तियां स्पष्ट हो जाती हैं। अर्जुन का उत्तराधिकारी हस्तिनापुर का तो कृष्ण का उत्तराधिकारी इंद्रप्रस्थ का राजा हुआ। परंतु उन्हें भी सुख प्राप्त नहीं हो सका। परीक्षित को खंडव वन के मूल स्वामी तक्षक ने मार दिया और उसका लडक़ा जनमेजय निरंतर प्रतिशोध और हिंसा के चक्र में भयभीत जीवन जीता रहा। उत्तर दिशा की ओर से जब नये नये वंश के राजाओं के आक्रमण हुए तब इन दोनों राज्यों को छोडऩा पड़ा इस कारण महाभारत काल के सभी क्षत्रिय कुल अपनी रक्षा हेतु इधर उधर भागने लगे। पुरानी स्थिति, पुरानी व्यवस्था, पुराना धर्म और नीति नई परिस्थिति के सम्मुख कमजोर साबित हुए। धीरे धीरे वह नष्ट भी होती गयी। महाभारत केवल एक राजकुल के अंत का ब्यौरा देने वाला इतिहास काव्य नहीं हैं,वह मानव विकास क्रम में दीर्घ काल तक अस्तित्व में रहे कुल समाज के युग के अंत का ब्यौरा देने वाला एक इतिहास काव्य हैं, इसलिए वह युगांत हैं। अग्रसेन जी के क्षत्रिय से वैश्य बनने की सामाजिक व राष्ट्रीय जरूरत का मर्म भी हमें तभी समझ में आ सकता हैं। आज अग्रसेन जयंती हैं और अग्रसेन जी के क्षत्रिय से वैश्य बनने का इतिहास युग पुरूष श्री कृष्ण की एक और अलौकिक लीला का ही प्रतिफल था यही बताने के लिए आज मुझे महाभारत युद्ध के बाद का इतना वृतांत विस्तार से बताना पड़ा। श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही अग्रसेन जी ने माँ लक्ष्मी की कठोर साधना की थी और उनसे अपने कुल के लिए सदैव उनकी कृपा दृष्टि का वरदान पाया। जिसके कारण ही आज देश भर में निवास कर रहे लगभग साढ़े चार करोड़ अग्रवाल प्राय: आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि *देश में भरे जाने वाले कुल आयकर का 24 प्रतिशत, कुल दान राशि का 62 प्रतिशत योगदान अग्रवालोंं का ही हैं। देश भर में संचालित अधिकांश मानवसेवी सेवा प्रकल्प अग्रवलों द्वारा ही या उनके विशेष सहयोग से ही संचालित हैं। देश जी डी पी में 25 प्रतिशत योगदान अग्रवालों का ही माना जाता हैं। देश भर में अग्रवालों द्वारा ही लगभग 50 हजार हिंदू मंदिरों का संचालन हो रहा हैं। देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले शेयर मार्केट के लगभग 50 प्रतिशत ब्रोकर अग्रवाल ही हैं। देश भर के लगभग सभी प्रमुख दैनिक अखबारों के मालिक भी अग्रवाल ही हैं। एक क्षत्रिय राजा को वैश्य बनाकर मेरे श्रीकृष्ण ने सचमुच आज के भारत पर कितना बड़ा उपकार किया है यह उपरोक्त आंकड़ों से सहज ही समझा जा सकता हेैं।जय श्री कृष्ण, जय श्री अग्रसेन।*