Election Fever : Indore-5 कांग्रेस की बेरुखी ने इस इलाके को 20 साल से भाजपा का गढ़ बनाया!

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Election Fever : Indore-5 कांग्रेस की बेरुखी ने इस इलाके को 20 साल से भाजपा का गढ़ बनाया!

– हेमंत पाल

Indore : इसे पहले शहर के बाहरी इलाके वाली सीट माना जाता था। लेकिन, पिछले 10 सालों में ये नए और आधुनिक इंदौर में बदल गई। यह सीट 1977 में अस्तित्व में आई थी। नई बसाहट होने के कारण यहां शुरुआत में किसी भी पार्टी का प्रभाव नहीं था। कांग्रेस के लिए फायदे वाली बात यह थी कि मुस्लिम बहुल इलाका खजराना और मूसाखेड़ी इस सीट का हिस्सा हैं। आसपास जो ग्रामीण क्षेत्र इसमें आते थे, वहां भी मुस्लिम आबादी ज्यादा रही! यहां वोटरों की संख्या भी करीब 4 लाख है और इनमें मुस्लिम वोटर भी दूसरी सीटों के मुकाबले ज्यादा ही हैं।

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इस बार फिर यहां पिछले चुनाव के दोनों परंपरागत उम्मीदवार महेंद्र हार्डिया (भाजपा) और सत्यनारायण पटेल (कांग्रेस) आमने-सामने हैं। महेंद्र हार्डिया यहां से पिछले 4 चुनाव से लगातार जीत रहे हैं। इसलिए कि इस सीट पर कांग्रेस ने कभी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। यही वजह है कि शहर की यह प्रमुख विधानसभा सीट भाजपा का गढ़ बन गई। भाजपा के महेंद्र हार्डिया लगातार चार विधानसभा चुनाव जीते और पांचवी बार पार्टी ने फिर उन्हें उम्मीदवार बनाया। कांग्रेस की हार का मुख्य कारण बेरुखी ही माना जा सकता है। कांग्रेस ने रणनीति के तहत यहां किसी को नेता के रूप में तैयार नहीं किया।

पार्टी ने पिछले 20 साल में भी यहां से ऐसा कोई चेहरा खड़ा नहीं किया, जो इस सीट से भाजपा को चुनौती दे सके। जबकि, यहां से टिकट चाहने वालों की फेहरिस्त बहुत लम्बी रही। लगातार दो चुनाव हारी शोभा ओझा और पंकज संघवी भी हर बार दावेदारी करते हैं। जबकि, पूर्व विधायक सत्यनारायण पटेल ने भी देपालपुर छोड़कर 2018 में इस सीट से किस्मत आजमाई और अच्छी टक्कर भी दी। उन्हें वोट भी अच्छे मिले, पर वे चंद वोट (1133) के अंतर से जीत से वंचित हो गए। इस सीट का एक बड़ा इलाका मुस्लिम वोटरों का है और वे कांग्रेस के साथ खड़े दिखाई भी देते हैं, पर भाजपा उनमें भी सेंध लगाने में कामयाब रहती है।

यहां का चुनाव इतिहास
1977 में यहाँ से सुरेश सेठ (कांग्रेस) चुनाव जीते, 1980 और 1985 में फिर सुरेश सेठ चुनाव जीते! लेकिन, 1985 में वे स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीते। 1990 में यहाँ कांग्रेस ने अशोक शुक्ला को मैदान में उतारा और वे चुनाव जीते भी। लेकिन, 1993 में यहाँ भंवरसिंह शेखावत (भाजपा) ने पहली बार जीत दर्ज की। इसके बाद 1998 में सत्यनारायण पटेल (कांग्रेस) ने देपालपुर से आकर यहाँ अपना झंडा गाड़ा। लेकिन, इसके बाद से लगातार चार चुनाव 2003, 2008, 2013 और पिछली बार 2018 में भाजपा के महेंद्र हार्डिया ने डेरा डाल दिया।

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दोनों उम्मीदवारों की जमीन
चार बार भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते महेंद्र हार्डिया ने पिछला चुनाव (2018) मात्र 1133 वोट से जीते थे। यही कारण है कि इस बार उनके नाम पर लम्बे समय तक असमंजस बना रहा। लेकिन, भाजपा के सभी सर्वें में उनका पलड़ा भारी रहा और पार्टी ने उन्हें फिर मौका दिया। भाजपा में उनकी जगह कई दावेदार थे। संघ के कुछ पदाधिकारियों ने भी कोशिश की, पर भाजपा ने किसी के नाम पर रिस्क लेना ठीक नहीं समझा।

कांग्रेस इस बार सत्यनारायण पटेल को फिर से दांव पर लगाया। इसलिए कि वे पिछला चुनाव बहुत कम वोटों से हारे थे। दूसरा कारण यह माना गया कि उत्तर प्रदेश चुनाव में वे प्रियंका गांधी के साथ कंधे से कंधा लगाकर लगे रहे और फ़िलहाल गांधी परिवार के निकट समझे जाते हैं। निश्चित रूप से प्रियंका गांधी से नजदीकी उनके लिए टिकट के फैसले में काम आई होगी।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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