श्रद्धा सुमन : बाबा महाराज सातारकर  

उनके श्रीमुख से झरता था जीने का सुलभ रास्ता!    - सीमा जयंत भिसे

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श्रद्धा सुमन : बाबा महाराज सातारकर  

वारकरी संप्रदाय के महान कीर्तनकार, प्रवचनकार बाबा महाराज सातारकर अपने मधुर वाणी के लिए सुप्रसिद्ध थे। उनके श्रीमुख से जीवन जीने की महत्वपूर्ण विधाएं झरती थी। आज उनका करीब 89 साल की आयु में मुंबई में निधन हो गया। मुझे उनके प्रवचन दो बार सुनने का अवसर मिला। उसके वचनों का असर ऐसा था कि तीन दशक बाद भी वो मेरे कानों में गुजते हैं। मेरी तरह उनके अनुयायियों की संख्या लाखों में है।

इंदौर में 1994 और 1995 में दो बार मुझे बाबा महाराज सातारकर जी के कीर्तन और प्रवचन सुनने का सुअवसर मिला। एक बार ‘सानंद न्यास’ के आयोजन में और दूसरी बार ‘साहित्य संवाद’ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में जो अभय प्रशाल और गांधी हॉल प्रांगण में हुए थे। उनके वचनों का ही प्रभाव था कि लम्बे अरसे तक लोग जब भी मिलते उनके प्रवचनों का जिक्र करना नहीं भूलते थे।

कार्यक्रम समाप्ति पर श्रोता मंत्रमुग्ध होकर जब उनसे मिलने पहुंचते तो वे उनसे पूछते थे आपने गीता पढी है, ज्ञानेश्वरी पढी है या दासबोध पढा है! लोगों का एक ही जवाब था, समय ही नही मिलता, सेवानिवृत्ति के बाद पढेंगे। इस पर महाराज जी का कहना था कि जिन ग्रंथो में जीवन का सार है कि इसे कैसे जिया जाए, वह आप जीवन जीने के बाद पढेंगे? दूसरी बात यह कि आप सेवानिवृत्ति तक जीवित रहोगे, ये आपको पता है! ग्रंथों को पढ़ने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली और उसके बाद मैंने कई ग्रंथों का अध्ययन किया।

वे कहते थे कि अध्यात्म आम की गुठली जैसा है। वो हमेशा जीवन से आम के रस की तरह लिपटा रहता है। इसी तरह सांसारिक जीवन चीकू की बीज जैसा है, जो फल के अंदर होते हुए भी बाहर साफ़ नजर आता है। इसलिए अलिप्त रहकर सांसारिक जीवन जियो। पैसा और लक्ष्मी में अंतर बताते हुए वे कहते थे कि जो पीछे के दरवाजे से आता है, वह पैसा और है। असल लक्ष्मी वो है जो आगे के दरवाजे से गाजे-बाजे के साथ आए। वो पैसा जो जेब में हो और सीने में धड़धड़ हो, तो वह सिर्फ पैसा है। लेकिन, जिसके जेब में रखने से सीना गर्वित हो, वह असल लक्ष्मी है। टेबल के नीचे से आने वाला पैसा होता है और टेबल के ऊपर से सम्मान के साथ जो आती है वह लक्ष्मी है।

जीवन जीने का तत्वज्ञान सहज सरल भाषा में सुमधुर वाणी में रखने वाले बाबा महाराज सातारकर आज हमारे बीच नहीं रहे। उन दिनों इंदौर में चार-पांच दिन मुझे उनके सानिध्य में रहने का सुअवसर मिला, जो जीवन का बहुमूल्य उपहार रहा। उनके कारण ही मुझे हमारे प्राचीन ग्रंथों को पढ़ने की प्रेरणा मिली। शायद उससे ही मुझे सुलभ जीवन जीने का रास्ता मिला। महाराज जी को श्रद्धापूर्ण शत-शत नमन।