Law & Justice: चुनाव कानून और फैसले

उम्मीदवारों के अपराधों की जानकारी देना आसान नहीं

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चुनाव कानून और फैसले

विनय झैलावत

चुनावों के इस मोसम में राजनैतिक पार्टीयों को अपने उम्मीदवारों द्वारा किए गए अपराधों की जानकारी देना पड़ रही है। यह सर्वोच्च न्यायालय के आदेषों के कारण उन्हें मजबूरीवष देना पड़ रही है। लेकिन आपराधिक मामलों की आम जनता को जानकारी देने की एक लंबी और निरंतर कहानी है। सन् 1999 में एसोसिएषन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स (एडीआर) द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करने के साथ शुरू हुई थी। इसमें अनुरोध किया गया था कि संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित है, उन्हें अपना नामांकन पत्र दाखिल करते समय आपराधिक मामलों का खुलासा करना आवश्यक है। उच्च न्यायालय ने 2 नवंबर, 2000 को दिए गए फैसले में अनुरोध को स्वीकार किया। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेष दिया कि सांसद और विधायक चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों को अपने नामांकन पत्रों के एक आवश्यक हिस्से के रूप में शपथ पत्र दाखिल करने की आवष्यकता होगी, जिसमें उनके खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों को घोषित किया जाएगा।

उच्च न्यायालय का यह निर्णय उस समय की सरकार को अस्वीकार्य लग रहा था। इसलिए भारत संघ ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में एक विषेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर की। कई राजनीतिक दल सरकार के समर्थन में मामले में हस्तक्षेप करने लगे। दावा किया गया कि यह एक विधायी मामला है और न्यायपालिका के पास इस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने 2 मई, 2002 को दिए गए अपने फैसले में उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि इस न्यायालय के बहुत से निर्णयों का समग्र अध्ययन से यह स्पष्ट है कि यदि विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र को लोकहित के विपरित कार्य करने के लिए छोड़ दिया जाता है, तो इस न्यायालय के पास संविधान के अनुच्छेद 141 और 142 के साथ पठित अनुच्छेद 32 के तहत लोक हित को कम करने के लिए कार्यपालिका को आवष्यक निर्देष जारी करने के लिए पर्याप्त अधिकार क्षेत्र होगा।

उक्त आदेश भी राजनीतिक दलों को स्वीकार्य नहीं था। इस निर्णय के खिलाफ एक सर्वदलीय बैठक आयोजित की गई थी। इसमें यह निर्णय लिया गया कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को लागू नहीं होने दिया जाएगा और इसके लिए संसद के उसी सत्र में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया जाएगा। इसके लिए मंत्रिमंडल ने एक अध्यादेश जारी करने का निर्णय लिया। अध्यादेश को हस्ताक्षर के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा गया। लेकिन राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए बिना अध्यादेश को वापस कर दिया। इसके बाद मंत्रिमंडल ने इसे फिर से ठीक उसी रूप में राष्ट्रपति के पास भेजा और स्थापित परंपरा के बाद, राष्ट्रपति को इस पर हस्ताक्षर करने पड़े। इस प्रकार जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया और उच्चतम न्यायालय के फैसले को अप्रभावी बना दिया गया।

इस संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में तीन जनहित याचिकाएं दायर की गई। उच्चतम न्यायालय ने 13 मार्च, 2003 को दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में घोषणा की कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम का संशोधन संवैधानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और इसके परिणामस्वरूप अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत स्वतंत्रता की गारंटी का उल्लंघन हुआ है। अनुच्छेद 19 (1) (ए) बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है। इस तरह मतदाताओं को पहली बार संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि का पता चला।

इस कहानी का अगला चरण सन् 2011 में शुरू हुआ। पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेषन नामक एक नागरिक समाज संगठन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक और जनहित याचिका दायर कर राजनीति का गैर-आपराधिक बनाने की मांग की और सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया कि यह सुनिश्चित करने के लिए उचित दिशा निर्देश/ढांचा निर्धारित करें कि गंभीर आपराधिक अपराधों के आरोपी चुनाव लड़कर राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने में असमर्थ है और कुछ अन्य अनुरोधों के साथ छह महीने की समय सीमा निर्धारित करें, जिसके दौरान ऐसे व्यक्तियों के मुकदमे को समयबद्ध तरीके से समाप्त किया जाता है। उच्चतम न्यायालय ने 10 मार्च, 2014 को एक आदेश जारी किया। इसमें निर्देश दिया गया कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई जितनी संभव हो सके उतनी तेजी से की जाए। किसी भी मामले में आरोप तय होने की तारीख से एक साल बाद नहीं की जाए।

इस बीच, सन् 2005 में दायर एक जनहित याचिका पर 27 अगस्त, 2014 को निर्णय लिया गया। मामला मनोज नरूला बनाम भारत संघ का था। याचिका में यह कहा गया था कि गंभीर और जघन्य अपराधों में शामिल होने के बावजूद भारत के केंद्रीय मंत्रिपरिषद में इन्हें नियुक्त किया गया है। मूल रूप से, जनहित याचिका की सुनवाई तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की गई। 24 मार्च, 2006 को यह निर्णय दिया गया था कि समस्या की गंभीरता और इसके महत्वपूर्ण महत्व को ध्यान में रखते हुए, यह उचित है कि याचिका की सुनवाई पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जाए। इस प्रकार पांच न्यायाधीशों ने अगस्त 2014 में फैसला सुनाया था। तीन न्यायाधीशों के बहुमत के फैसले ने इसे प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ दिया था। यह कहा गया कि प्रधानमंत्री से हमेशा यह उम्मीद की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले ऐसे व्यक्ति को नहीं चुने, जिसके खिलाफ जघन्य या गंभीर आपराधिक अपराधों या भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए आरोप हैं। यह भी कहा कि यह प्रधानमंत्री से संवैधानिक अपेक्षा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उसके पास संविधान के अनुच्छेद 141 और 142 के साथ पठित अनुच्छेद 32 के तहत पर्याप्त अधिकार क्षेत्र है कि वह कार्यपालिका को लोकहित में काम करने के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सके। न्यायालय ने कहा कि इन निर्देशों को लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सही भावना और सही गंभीरता से लागू किया जाना चाहिए। किसी कानून या विधायी अधिनियम में कुछ खामियां हो सकती हैं। इन्हें निश्चित रूप से विधायिका द्वारा संबोधित किया जा सकता है यदि यह स्थिति को सुधारने के लिए सही सोच वाले उचित इरादे, मजबूत संकल्प और दृढ़ इच्छाशक्ति द्वारा समर्थित हो।

यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि संबंधित अधिकारियों द्वारा इसके कड़े कार्यान्वयन की कमी के लिए कानून को हमेशा दोषी नहीं पाया जा सकता है। इसलिए, यह सभी संबंधितों की गंभीर जिम्मेदारी है कि वे राजनीति और लोकतंत्र में शुद्धता की संस्कृति को बढ़ावा देने और एक जानकार नागरिक को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानूनों और निर्देशों को लागू करें। क्योंकि अंततः यह नागरिक ही हैं जो एक राष्ट्र में राजनीति के भाग्य और पाठ्यक्रम का फैसला करते हैं। वे इस तरह यह सुनिश्चित करते हैं कि हम अपने योग्यता से बेहतर शासित नहीं होंगे। इस प्रकार उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में पूरी जानकारी नागरिकों द्वारा बुद्धिमान निर्णय लेने और उम्मीदवारों का विकल्प का आधार बनती है। उम्मीदवारों का विकल्प एक शुद्ध और मजबूत लोकतंत्र की आधारशिला है।

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय अपनी सभी आशाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करने के बाद, निर्णय एक पवित्र टिप्पणी पर समाप्त होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हमें यकीन है, इस देष के लोकतंत्र की कानून बनाने वाली शाखा इस दुर्भावना को ठीक करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेगी। इस तरह की घातकता लाइलाज नहीं है। यह केवल उस समय और चरण पर निर्भर करता है जब कोई इसका इलाज करना शुरू करता है। इससे पहले कि यह लोकतंत्र के लिए घातक हो जाए, जितनी जल्दी हो सके इसका इलाज उतना ही बेहतर है।