फिल्म समीक्षा : लापता लेडीज़

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फिल्म समीक्षा : लापता लेडीज़

यह फार्मूला फिल्म नहीं है। इसमें वैसा मनोरंजन नहीं होता, जैसा आम मुंबइया फिल्मों में होता है। इसमें साधारण ग्रामीण पात्रों की असाधारण कहानियां हैं। यह आमिर खान की भूतपूर्व बीवी किरण राव की निर्देशित अभूतपूर्व फिल्म है, जिसमें संजीदगी के साथ  गांव की दो दुल्हनों के अट्टस-बट्टस यानी अदल-बदल हो जाने की कहानी है। इस बहाने फिल्म हंसाती है, गुदगुदाती है, रुलाती है, सोचने को मज़बूर कर देती है। कई विषयों को फिल्म छूती हुई निकल जाती है जैसे दहेज़ प्रथा, जेंडर दुराग्रह, लड़कियों की अशिक्षा, रूढ़िवाद, पितृ सत्तात्मक सोच, असमानता, घरेलू हिंसा, भ्रष्टाचार आदि। इस फिल्म में पात्रों के माध्यम से  इन समस्याओं से निपटने का रास्ता भी दिखाया गया है। ये तमाम  बातें इतनी सहजता से दिखाई गई हैं कि लगता है यह हमारे ही गाँव की कहानी है।

इस फिल्म की अनूठी बात यह है कि रवि किशन के अलावा सभी कलाकार नए हैं।  लोकेशन असली हैं। पात्रों की भाषा और भूषा गाँवों की है – मध्यप्रदेश (निर्मल प्रदेश) और छत्तीसगढ़ के सरल लोग हैं। फिल्म में कोई भी खलनायक नहीं है।  कहानी ही इसकी नायक है और कहानी ही खलनायक ! यह सन 2001 के आसपास की कहानी है, जब मोबाइल की आमद हुई ही थी। मोबाइल भी मोटरसाइकिल की तरह  दहेज़ का सामान हुआ करता था।  छत्तीसगढ़ बना ही था। शिक्षा और जागृति का स्तर थोड़ा कम था। जनधन के खाते खुले नहीं थे और जैविक खेती का चलन इतना नहीं हुआ था।

हिन्दी  फिल्मों में जब भी कोई युवती कहीं खो जाती थी तब वह या गुंडों के चक्रव्यूह में फंस जाती थी।  इसमें दोनों लापता नई दुल्हनें शरीफ़ों के संपर्क में रहती हैं।  उनके साथ कोई जोर जबरदस्ती भी नहीं होती, लेकिन उनके हालात दर्शकों को हंसाते और रुलाते हैं।  सोचने पर मज़बूर कर देते हैं। यह फिल्म इस बात की ताकीद है कि हमारे देश में अधिसंख्य लोग भले ही बुड़बक हों, उनके इरादे आम तौर पर अच्छे ही हैं। पुलिस महकमा कितना भी बदनाम हो, इंसानियत उनमें  भी है। हर शख्स दूसरे की मदद करने को तैयार है चाहे वह रेल कर्मचारी हो या स्टेशन पर कैंटीन चलानेवाली महिला, कोई बाल मज़दूर हो या भिखारी। हमेशा ‘जागते रहो’ कहनेवाला रिटायर्ड चौकीदार हो पति की सेवा को ही धर्म माननेवाली ग्रामीण स्त्री !

यह फिल्म बिप्लव गोस्वामी की मूल लघुकथा पर है जिसमें स्नेहा देसाई ने पटकथा और संवाद लिखे हैं। अतिरिक्त संवाद दिव्य निधि शर्मा ने लिखे हैं।   सिनेस्तान इंडियाज़ स्टोरीटेलर्स प्रतियोगिता में प्रस्तुत  यह कहानी आमिर खान ने पसंद की थी। इसकी हर महिला पात्र ने  रूढ़ियों को ख़ारिज किया और यही इसकी रचनात्मकता है। दशकों बाद हिन्दी की कोई फिल्म आई है जिसमें गांव और गांव के लोगों की कहानी है।

साफ़-सुथरी ग्रामीण परिवेश की यह फिल्म मनोरंजक है।   संवादों में चुटीलापन है।  रोमिल मोदी की कास्टिंग, सिनेमेटोग्राफर नौलखा का फिल्मांकन और राम संपत का संगीत मोहक है। यह फिल्म देखनीय है।