Unique Punishment:इंदौर पुलिस कमिश्नर की नसीहत रंग ला सकती है

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Unique Punishment:इंदौर पुलिस कमिश्नर की नसीहत रंग ला सकती है

 

पिछले दिनों दोपहिया वाहन से टक्कर मारने और विवाद के बाद दर्ज हुए एक प्रकरण में इंदौर पुलिस कमिश्नर राकेश गुप्ता ने आरोपियों को किसी तरह का कानूनी दंड दने की बजाय सबक सिखाने के लिहाज से ऐसी व्यवस्था दी है,जिसमें व व्यक्ति के आचरण में सुधार व दूसरों को सावधान रहने का संदेश मिलेगा। उन्होंने दो आरोपियों को एक वर्ष तक दोपहिया वाहन न चलाने और पीछे भी बैठने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसका उल्लंघन करन पर जेल भेज दिया जायेगा।

 

पुलिस आयुक्त के इस फैसले को लेकर दोनों तरह की चर्चायें हो रही हैं। कुछ इसे बेवजह की रियायत बताते हुए आरोपियों के आचरण में किसी सुधार की गुंजाइश नहीं देख रहे तो अनेक का मानना है कि यह पहल कारगर हो सकती है। मेरा ऐसा मानना है कि न्यायिक जगत में इसका स्वागत किया जाना चाहिये। आम तौर पर ऐसी व्यवस्थायें पश्चिमी देशों में प्रचलित हैं। वहां समाज के अलग-अलग प्रकल्पों में सेवा कार्य में अनिवार्यत: संलग्न कर दिया जाता है। ऐसा उन प्रकरणों में होता है, जिसमे अपराध गंभीर ना हो,कोई बड़ी शारीरिक चोट न पहुंची हो,जिसे कभी अनायास तो कभी लापरवाही से उपजी घटना माना जाता हो, उसमें सेवा कार्य की सजा सुना दी जाती है।

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अनेक ऐसी खबरें आती रही हैं, जब शराब पीकर वाहन चलाने या सार्वजनिक स्थान पर अमर्यादित आचरण करने,किसी तरह की बदतमीजी करने या किसी नियम की अनदेखी करने जैसे मामले में बेहद खास व्यक्ति को भी इस तरह की कोई सजा दे दी जाती है। यह किसी वृद्धाश्रम में एक निश्चित समय तक जाकर उनकी देखरेख करना, वहां बागवानी करना,वहां कोई प्रशासकीय कार्य करना जैसी व्यवस्था दी जाती है। यातायात संभालने,आरोपी के पेशे को देखते हुए कुछ उस तरह की सेवा देने का प्रचलन भी वहां है। इसे कोई अन्यथा भी नहीं लेता और पूरे मनोयोग से वह जिम्मेदारी निभाई भी जाती है।

इस तरह की सजायें न्यायालयों में अनावश्यक दबाव कम करती है। प्रक्रियागत जटिलतायें रोकती हैं। न्यायालयों,वकील,मुवक्किल का समय व धन बचता है। जेलों में बेवजह भीड़ नहीं होती और सामाजिक प्रताड़ना से प्रतिष्ठा पर आने वाली आंच से बचने के लिये आचरण में भी सुधार नजर आता है। इस तरह की दंड प्रक्रियायें भारत जैसे देश के लिये कारगर हो सकती हैं। हमारे यहां न्यायालयों में प्रकरणों का अंबार बढ़ता ही जा रहा है। सबसे ज्यादा विसंगति तो यह होती है कि जिस अपराध में आरोपी को सजा ही नहीं होना था या थोड़े ही समय के लिये होना था या आर्थिक जुर्माने से काम चल सकता था, वैसे प्रकरणों में आरोपी सालोसाल जेल में पड़ा रहता है। ऐसा भी आम है कि रास्ते चलते टक्कर लगने,साइकिल,बाइक टकराने जैसे मामलों या बच्चों की लड़ाई में हुई हाथापाई भी पुलिस,अदालत तक पहुंच जाती है और फिर प्रारंभ होता है पुलिस,अदालत,वकील के चक्कर लगाने का अनवरत सिलसिला । बरसों बाद जाकर प्रकरण खारिज कर दिया जाता है, लेकिन तब तक दोनों ही पक्ष जो मानसिक प्रताड़ना झेल चुके होते हैं और समय व धन खर्च कर चुके होते हैं, वह असह्य होता है।

 

ऐसे मामलों में इंदौर पुलिस कमिश्नर द्वारा दी गई व्यवस्था कारगर हो सकती है। ऐसे प्रकरण चिन्हित कर थाने के स्तर पर ही निराकरण करने का समय अब आ चुका है। कई मामले ऐसे होते हैं जिसमें जेल में बंद रखने से अधिक असर सामाजिक शर्मिंदगी झेलने का हो सकता है। इसके लिये कोई भारी भरकम कानून भी नहीं बनाने पड़ेंगे। इसके लिये तो नियमावली बनाकर काम चलाया जा सकता है । पूरे देश के लिये एकसमान व्यवस्था की जा सकती है। थानों में भी प्राथमिकी लिखने का भार कम ही होगा और छोटे-छोटे प्रकरणों में पुलिस बल खपाने की बजाय कानून व्यवस्था पर ध्यान दिया जा सकेगा। जरूरत है इस पर समग्र सोच के साथ आगे बढ़ने की।

 

हालांकि इस मसले का एक अप्रिय पहलू यह है कि आरोपी द्वारा निर्धारित कार्य किया जा रहा है या नहीं,इसकी निगरानी कैसे की जायेगी या कौन करेगा? फिर भी यह इतना जटिल या असंभव नहीं । जिस तरह से नागरिक सुरक्षा समितियां होती हैं, उन्हें ही या थानेवार चुनिंदा लोगों की एक समिति बनाकर उन्हें यह जिम्मेदारी दी जा सकती है। इसमें खास तौर से पेंशनर्स,अपेक्षाकृत प्रौढ़,महाविद्यालयीन शिक्षा कर रहे विद्यार्थी और समाज सेवा का भाव रखने वालों को आसानी से लगाया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि पहले इसका खाका तैयार किया जाये और एक निश्चित समय तक उस पर क्रियान्वयन कर देखा जाये।