Traditional Tribal Food:लब्दा खाये हैं कभी…? मतलब उबले हुए चटपटे बेर…।

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Traditional Tribal Food: लब्दा खाये हैं कभी…? मतलब उबले हुए चटपटे बेर…।

क्योंकि बेर तो प्रभु श्रीराम जी ने खाये थे, सबरी माँ के हाथों से। तब से अब तक कुछ नही बदला है।
बेर हमारी संस्कृति से वैसे ही जुड़ी है जैसे श्री राम चन्द्र जी और श्री कृष्ण जी। जो बेर का संरक्षण करता है, ईश्वर उसका संरक्षण करते हैं। वनवासियों और ग्रामीणों के कई तीज त्यौहारों में बेर पूजन का विशिष्ट स्थान है। देव उठनी ग्यारस की ये पंक्तियाँ तो आपको याद ही होंगी?
बेर भाजी आँवला…
उठो देव साँवला…।
हमारे देश में वीरता प्रतीक महाराणा प्रताप जी जब अकबर से युद्ध करते हुए अरावली की पहाड़ियों में शक्ति संग्रह कर रहे थे, उस संदर्भ में राजकुमारी और खास की रोटी नामक कविता लिखी गई। उसी प्रसंग में राजकुमारी के भोजन को लेकर एक पंक्ति में भी बेर का उल्लेख मिलता है।
तीन बेर खाती थी वह अब तीन बेर खाती है…
प्रथम बेर का अर्थ बार से है और दूसरे का बेर फल से ही है।
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बेर, वैसे तो एक जंगली फल है जो जंगली जानवरों जैसे सियार, बंदर, हिरन तथा कई पक्षियों को बहुत प्रिय है, लेकिन यह जंगली फल मुझ जैसे जंगली इंसानों को भी बहुत पसंद है। इसकी कटीली झाड़ियाँ सियार, खरा, तीतर, बटेर, हिरणों के शावक और न जाने ऐसे कितने जीव जंतुओं को भोजन, आश्रय और सुरक्षा प्रदान करती हैं। इस फल में विटामिन ए, विटामिन बी 3, विटामिन सी आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं जो त्वचा तथा आंखों के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं।
कार्बोहायड्रेट एवं प्राकृतिक शर्करा शरीर को ऊर्जा प्रदानं करती है वहीं विशिष्ट प्रोटीन्स की उपस्थिति शरीर के घावों को भरकर नई चमक से भर देते हैं। कई सूक्ष्म तथा वृहद पोषक तत्व जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम, आयरन, जिंक, फॉस्फोरस शरीर की मेटाबोलिक क्रियाओं को नियंत्रित करने का कार्य करते हैं।
अगर बचपन की यादों को टटोलूं तो बोरकुट के स्वाद का एहसास आज भी मेरे मन मे है। स्कूल जाते समय रास्ते से पत्थर मारकर बेर तोड़ना और जेब मे भरकर ले आना। फिर चुपके चुपके कक्षा में निकालकर मुँह चलाते रहना, पता नही कितनी बार तो मास्टर जी से धोये गये हैं, इस बेर की खातिर। खैर बैर से चूके तो लब्दे पर टूट पड़ते थे, जो स्कूल के सामने बैठी अम्मा जी की दुकान पर मिल जाते थे। 50 पैसे में एक कागज की प्लेट भर लब्दा मिल जाता था उस समय। जो मित्र लब्दा नही जानते वे धैर्य रखें उसे बनाने की विधि भी बता रहा हूँ। कुछ ही साल पहले की बात है गाँव मे दादी बोरी भर बेर सूखा कर रखती थी हमारे लिये, जो लगभग पूरे साल चलती थी। अब दादी तो ईश्वर के पास चली गईं लेकिन वे बेर के पेड़ न यहाँ रहे न ईश्वर के पास पहुँच पाये, क्योंकि विकास नामक दांव उन्हें निगल गया।
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चलिये अब उस भूले बिसरे भारतीय व्यंजन लब्दा की बात कर लेते हैं। लब्दा ग्रामीण भागों में खासकर आदिवासी अंचलों में खाया जाने वाला एक जाना माना व्यंजन है जिसे चटपटे नास्ते के रूप में पसंद किया जाता है। शहरों में भी इसे अच्छी खासी ख्याति प्राप्त है। महादेव मेले में तो यह श्रद्धालुओ की पहली पसन्द के साथ लगभग हर दूसरी दुकान में उपलब्ध होता है। लब्दा/लबदा बनाने के लिये देशी सूखे हुये बेर को हांडी में नमक, मसाला, बिल्कुल थोड़ा गुड़, थोड़ा पिसा हुआ जीरा और अजवाईन मिलाकर उबाल लें। थोड़ी मात्रा में तेल से बघार भी लगाया जा सकता है, किन्तु यह आवश्यक नही है। 2-3 शीटियों के बाद कुकर को ठंडा होने दें। गरमा- गर्म लब्दा तैयार है। इसे स्थानीय पेड़ो की पत्तियों से बनी कटोरियों में परोसें। कटोरी बनाना न आये तो बड़े आकार की पत्तियों को मोड़कर इसी में परोसें। जीभ, पेट और मन तीनों को सुकून मिलेगा।
और एक खास बात बताऊँ, कोई भोजन कभी स्वादिष्ट नही होता। वह स्वादिष्ट बनता है, उस पर हमारी श्रद्धा, समर्पण, पकाने के लिये किया जाने वाला परिश्रम और सबसे महत्वपूर्ण उसे किस स्थान पर किसके साथ या किनके बीच परोसा जा रहा है इन सभी चीजों से। मेरा आप सभी से व्यक्तिगत निवेदन है कि अपने बच्चों को भारतीय खानपान, जंगली फलों और हमारी गौरवशाली भोजन परंपरा का ज्ञान अवश्य कराइयेगा, वरना वो दिन दूर नही जब पैकेट बंद बासा खाना महीने के किराने के साथ आपके घर आयेगा और भोजन बनाने की कला किसी के भेजे में समाहित न होने से अच्छा भोजन स्वप्न या स्वर्ग की विषय वस्तु होगा। आखिर में चलते चलते सिर्फ इतना कि अगर सड़क के बाजू में कोई ग्रामीण या बुजुर्ग बेर, लब्दा आदि बेचते नजर आएं तो रुककर स्वाद लीजियेगा, उन्हें आर्थिक सहयोग कीजियेगा और उनका हौसला बढियेगा। बेर पर गुरूदेव डॉ. दीपक आचार्य जी की पोस्ट कई लोगो को प्रकृति के करीब खीच लाई थी। उसे भी अवश्य पढ़ें।
डॉ. विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई,
जिला छिंदवाडा (म.प्र.)