Big Loss to BSP : इस बार सबसे ज्यादा घाटे में बसपा, एक भी सीट नहीं मिली, वोट भी घटे!

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Big Loss to BSP : इस बार सबसे ज्यादा घाटे में बसपा, एक भी सीट नहीं मिली, वोट भी घटे!

उत्तर प्रदेश की किसी भी सीट पर वो दूसरे नंबर पर नहीं रही, कई जगह जमानत जब्त!

Lucknow : उत्तर प्रदेश की राजनीति में गरीब दलितों की पक्षधर बनकर उभरी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) पिछले दो चुनाव से पूरी तरह ध्वस्त हो गई। इस बार भी बसपा को कोई सीट नहीं मिली। उसका वोट शेयर भी 10% से नीचे गिर गया। कई साल बाद ऐसा चुनाव हुआ, जिसके नतीजों ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को झूमने का मौका दिया। सभी पार्टियों के लिए नतीजे उत्साहजनक रहे, बसपा को छोड़कर। सपा खुश है क्योंकि उसके सांसदों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। कांग्रेस के बाद वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। कांग्रेस भी खुश है। क्योंकि, वो उत्तर प्रदेश में वह एक सीट से 6 सीट पर पहुँच गई।

एक ही पार्टी में मायूसी फैली है और वो बसपा। बहुजन समाज पार्टी के लिए लोकसभा के नतीजे विधानसभा चुनाव 2022 से भी खराब रहे। विधानसभा में तो कम से कम पार्टी को एक सीट मिल गयी थी। लेकिन, लोकसभा के चुनाव में तो उसका खाता खुलना तो छोड़िए एक भी उम्मीद्वार ऐसा नहीं है जो दूसरे नंबर पर भी हो। ऐसी बुरी गत पार्टी ने पहले नहीं देखी। यूपी की सभी 80 सीटों में से हर जगह बसपा या तो तीसरे नंबर पर रही या चौथे नंबर पर। वोटरों ने पार्टी का वो हाल कर दिया कि बसपा शायद ही किसी सीट पर अपनी जमानत बचा पाई हो।

चुनाव दर चुनाव बसपा टूटी

इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनाव दर चुनाव बसपा टूटती चली जा रही है। चौंकाने वाली बात तो ये है कि अब से पहले ये कभी नहीं कहा गया कि जाटव वोटबैंक में टूट हुई। लेकिन, इस बार के चुनाव में वो भी देखने को मिला। जाहिर है, 2027 में होने वाला यूपी का अगला विधानसभा भी बसपा के लिए निराशाजनक ही रह सकता है। संभव है कि चन्द्रशेखर आजाद के इर्द गिर्द बहुजन जमात सिमटने लगे।

9.38% ही वोट मिले बसपा को

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बसपा थी। उसने 10 सीटें जीती थीं। लेकिन, पांच साल के बाद उसे एक भी सीट नसीब नहीं हुई। बसपा को 10% भी वोट नहीं मिले। 2022 विधानसभा चुनाव में बसपा को 12.88% वोट मिले थे। लेकिन, इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 9.38% वोट ही मिले।

चुनाव अकेले लड़ने का फैसला नुकसानदेह

गठबंधन के दौर में मायावती ने अकेले लड़ने का फैसला किया। उनके इस फैसले के बाद से ही कहा जा रहा था कि मायावती हारी हुई बाजी लड़ रही है। विधानसभा चुनाव 2022 के रिजल्ट के बाद ये तो तय हो ही गया था कि बसपा यूपी में भाजपा और सपा से काफी पीछे हो गई है। ऐसे में इस लोकसभा चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की कुव्वत पार्टी में तो थी नहीं। मायावती को लगा होगा कि यदि त्रिकोणीय मुकाबला हुआ तो पार्टी को कुछ सीटें मिल जाएंगी। नतीजे से पता चलता कि मुकाबला द्विपक्षीय हुआ, ऐसे में बसपा कहीं की नहीं रही।

बीजेपी की बी टीम

लंबे समय से ये कहा जा रहा था मायावती भाजपा को जिताने के लिए चुनाव लड़ेगी। चुनाव के शुरुआती दिनों में यही भावना जनमानस में फैली थी। टिकट बटवारे के बाद इस सोच में थोड़ा बदलाव आया लेकिन, भाजपा की बी टीम के लेवल से पार्टी उबर नहीं पायी।

चंद्रशेखर आजाद नए दलित चेहरा बनकर उभरे

माना जा रहा है कि दलित वोटबैंक में बड़ी टूट हुई। वैसे तो ये टूट पहले से चली आ रही है। लेकिन, माना जा रहा है कि बसपा का मूल जाटव वोटरों में भी टूट हुई। बसपा से वे टूटकर भाजपा और सपा की ओर गए। लेकिन, बड़ा हिस्सा सपा और कांग्रेस की ओर जाता दिखा। जाटवों के टूटने की स्थिति में और भी दलित जातियों ने पार्टी से मुंह मोड़ लिया। नगीना और सहारनपुर की सीट इसका बढ़िया उदाहरण है।

नगीना में आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रशेखर आजाद जीते। उन्हें 5 लाख से ज्यादा वोट मिले। इसका साफ मतलब है कि दलित वोटरों ने बसपा को छोड़ आजाद को वोट दिया। बसपा इस सीट पर चौथी पोजिशन पर है। उसे 15 हजार भी वोट मिलता नहीं दिखा। सहारनपुर में भी ऐसा ही हुआ। यहां बसपा तीसरे नंबर पर रही। माजिद अली को डेढ़ लाख से थोड़े ज्यादा वोट मिले। इसमें बड़ी संख्या मुसलमानों की मानी जा रही है. यानी दलित वोटबैंक कांग्रेस के इमरान मसूद की ओर गया। इसी वोट की कमी के कारण मसूद कई चुनाव हारे और अब इसे पाकर वे जीत गए।

मायावती की आरक्षण मुद्दे पर चुप्पी

चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियां ये नैरेटिव कायम कर पाने में सफल हो पायीं कि भाजपा आरक्षण और संविधान को खत्म करने पर अमादा है। इसे कांग्रेस और सपा ने जोर-शोर से उठाया। लेकिन, आरक्षण और संविधान को लेकर सबसे आगे रहने वाली बसपा के नेता ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी। दलित वोटबैंक में ये संदेश गया कि मायावती बहुजन आंदोलन से दूर हो गई। आकाश आनन्द को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते समय पुराने बहुजन नेताओं ने दबी जुबान यही बातें की थीं।

चुनाव से पहले आकाश आनन्द को उत्तराधिकारी घोषित करना भी बसपा के लिए घातक ही हुआ। बहुजन नेताओं ने अपने काडर को ऐसा कोई संदेश कभी नहीं दिया। लिहाजा सीनियर लीडर्स और काडर में अंदर ही अंदर नाराजगी थी। खैर, चुनाव में आकाश आनन्द ने अपने भाषणों से माहौल तो खड़ा कर लिया था। लेकिन, एकाएक मायावती ने उन्हें पीछे खींच लिया। इससे जुड़े कार्यकर्ता भी हताश हो गए। अब उनके पास दूसरी पार्टी की तरफ जाने के अलावा कोई रास्ता न दिखा।