Hathras Tragedy:कौन बनेगा दोषी और कौन बच निकलेगा?

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Hathras Tragedy:कौन बनेगा दोषी और कौन बच निकलेगा?

अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि हाथरस हादसे में मारे गये करीब सवा सौ लोगों की मौत का दोषी कौन है? सिवाय इसके कि शायद किसी प्यादे को सजा हो जाये या सबूत-गवाही के अभाव में सभी बच निकले।कोई बहुत अलग निष्कर्ष निकलना चमत्कार ही होगा। वैसे ही जैसे नारायण साकार हरि बाबा या ऐसा ही कोई बाबा चमत्कार का दावा करता है, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं । ले-देकर सारी बलाये सरकार के माथे फोड़ दी जायेंगी कि कहीं भीड़ जुटे या कोई हादसा हो जाये तो जवाबदार केवल शासन-प्रशासन होता है।

 

हाथरस हादसे की जो चिंता करना चाहिये वह तो होती रहे और कानून जितने लंबे हाथ कर सकता हो, करके दिखाये। फिर भी बात तो इस पर होना चाहिये कि हजारों-लाखों लोगों के रैले इन बाबाओं की ओर क्यों लपकते रहते हैं? इस कलियुग में कितने बाबा चमत्कारी हुए और उन्होंने कितने व कैसे-कैसे चमत्कार किये? बीसवीं सदी तक लोगों की धार्मिक आस्थायें कथा-प्रवचन सुनने तक सीमित थी। तब के अधिकतर कथा वाचक प्रामाणिक,ज्ञानी और वेद-शास्त्र के अध्येता होते थे।वे उनका वाचन कर लोगों को सद्मार्ग पर चलने,सात्विक जीवन जीने,प्रेम-सौहार्द से रहने की नसीहतें देते थे। असंख्य लोगों के जीवन इनसे बदले भी, लेकिन सदी क्या बदली,सबके मायने ही बदल गये। सारी गड़बड़ यहीं से प्रारंभ हुई।

 

सवाल यह है कि लोगों के जीवन में आखिरकार कितनी हताशा-निराशा,परेशानी,तनाव,असंतोष बढ़ गया कि पूरे समय उन्हें कोई बाबा-भभूति की आवश्यकता रहने लगी? जैसे-जैसे इन कथा-प्रवचनों के पांडाल की तरफ जनसैलाब उमड़ने लगा, वैसे-वैसे बाबाओं के इस नये पेशे के प्रति वक्तृत्व कला में माहिर,थोड़े सुदर्शन,थोड़े अभिनय में दक्ष,थोड़ी-थोड़ी विपणन कला में निपुण लोग आकर्षित होते गये। इस तरह इक्कीसवीं सदी के इस नये कारोबार ने खूब तरक्की की। यह काम तो बढ़ना ही था, क्योंकि भौतिक संसाधनों के पीछे,सुख-सुविधा के पीछे,अधिकाधिक धनार्जन के पीछे भागने की होड़ ने लोगों को आत्मीयता,संतोष से दूर कर दिया, जो अंतत: उनके मानसिक अवसाद,तनाव,प्रतिस्पर्धा की कड़वाहट से उपजी खीज व रोगग्रस्त शरीर का कारण बनते चले गये।इससे मुक्ति के दो ही रास्ते हैं। एक चिकित्सक के पास जाता है, दूसरा बाबाओं की तरफ। हम देख ही रहे हैं कि इन दोनों ही रास्तों पर भीड़ का महासागर लहराता रहता है। किसे कहां से इलाज मिल रहा है, कहां से निदान मिल रहा है,कहां से संतुष्टि मिल रही है,इस पर भी भला क्या बात करना। यदि इन मार्गों पर चलकर ही किसी तरह का संतोष,सुखद परिणाम ही मिलता तो हाथरस जैसे हादसे होते ही नहीं, क्योंकि धर्म या अध्यात्म की शरण में जाने वालों के बीच न तो कोई प्रतिस्पर्धा होती है,न धक्का-मुक्की, न बेवजह की कोई आशा।

 

एक अन्य सवाल भी अत्यंत सामयिक और आवश्यक है, जिसका जवाब हम सबको देना होगा। सरकारों को तो खास तौर से इस पर चिंतन कर नियम-कायदे बनाने पड़े तो करना चाहिये। ऐसे किसी भी आयोजन में,जहां किसी व्यक्ति विशेष के लिये हजारों लोग एकत्र होते हैं,वह स्थान कहां होना चाहिये। उनके आवास,भोजन का प्रबंधन आयोजक को करना चाहिये। उस आयोजन से मुख्य सड़क का यातायात न प्रभावित हो, न ही उस मार्ग के यातायात को किसी अन्य मार्ग पर भेजा जाये। उसके भीड़ प्रबंधन का दायित्व आयोजक का हो,जिसमें संख्या के हिसाब से कार्यकर्ता तैनात हों, जिसकी सूचना स्थानीय प्रशासन के पास हो।जब बाबा लोग अपनी सुरक्षा के लिये हट्‌टे-कट्‌टे बाउंसर तैनात कर सकते हैं तो अपने चाहने वालों की सुरक्षा के लिये गार्ड भी रखने ही चाहिये। पार्किंग की व्यवस्था भी आयोजक ही करे,जो निशुल्क हो,ताकि उनके प्रवचन-दर्शन के लिये आने वालों पर उसका भार न पड़े और पार्किंग शुल्क को भी कमाई का जरिया न बना लिया जाये।पार्किंग के लिये किसी भी सार्वजनिक स्थान का उपयोग नहीं किया जा सकता। इसके लिये स्थान निजी भूमि हो।यदि कोई शासकीय या सार्वजनिक स्थान दिया जाये तो उसका किराया लिया जाये और उससे शहर,नगर का दैनंदिन जीवन बाधित न हो,यह भी सुनिश्चित हो।

 

आप-हम देख ही रहे हैं कि इन कथित बाबाओ,कथा वाचकों के पास करोड़ों की दौलत है। वे कमायें,लेकिन समाज के शोषण से बाज आयें।उनके आवास आलीशान महलों जैसे हैं। उनके आसपास कोई सामान्य भक्त तो फटक नहीं सकता। वे पारिवारिक ट्रस्ट बनाकर किसी तरह के कर भी देने से बच जाते हैं। राजनेता उनके दरबार में हाजिरी लगाते हैं, क्योंकि उनके एक इशारे पर थोकबंद वोट जो मिल जाते हैं। आपराधिक मामलों में जेलों में विचाराधीन कैदी का जीवन बिताने वालों को चुनाव के समय अदालतें जमानत नहीं देती तो सरकारों की तरफ से पैरोल मिल जाता है। हमें समझना होगा कि कथा-प्रवचन कुछ लोगों के लिये उम्दा,फायदे का बिना कर अदायगी का कारोबार है। लाखों करोड़ रुपये के इस कारोबार के हिस्सेदार वे बाबा तो हैं ही, साथ में नेता,अधिकारी,विभिन्न जाति-समुदायों के ठेकेदार,स्थानीय दादा-पहलवान आदि भी रहते हैं। मिल-बांटकर सहकारिता आधार पर चलने वाले इस धंधे की तब तक पौ बारह रहेगी, जब तक स्वयं जनता आत्म विश्वासी,धर्मांधता से मुक्त,भयविहीन और धर्म को सही अर्थों में समझने वाली नहीं हो जाती। सारे काम सरकारों के भरोसे करने से तो ऐसे ही ठगे जाओगे और जान-माल का नुकसान भी कराते रहोगे।