Teachers Day:फिल्मी परदे पर टीचर, कभी ज्ञानी तो कभी मसखरा!
– अशोक जोशी
माता-पिता तो हमें जन्म देते हैं। लेकिन, शिक्षक हमारे जीवन को आकार देता है। शिक्षक का हमारी जिंदगी में क्या महत्व होता है यह बात हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं। स्कूल, कॉलेज और फिर जिंदगी में हमें तरह तरह के शिक्षक मिलते हैं। कुछ हमें जीवन के कठिन स्थितियों का पाठ सिखाते हैं तो कुछ शिक्षकों संग मस्ती करते करते हम बहुत सी बातें जान जाते हैं। लेकिन, फिल्मों में शिक्षक का चेहरा अलग ही बदला हुआ दिखाई देता है। कई फिल्में भी ‘गुरु’ की भूमिका में आती हैं और सिनेमाघर को ‘क्लास-रूम’ का दर्जा देकर बहुत कुछ सिखा-पढ़ा जाती हैं।
हिन्दी फिल्मों में अध्यापक और शिक्षा की भूमिका को कभी भी अनदेखा नहीं किया गया। सबसे पहले जो नाम एकदम से याद आता है वह है 1954 में आई सत्येन बोस निर्देशित फिल्म ‘जागृति’ का। अभिभट्टाचार्य अभिनीत इस फिल्म के अध्यापक शेखर का मानना है कि असली पढ़ाई बंद कमरों की बजाय बाहर प्रकृति की गोद में बैठ कर ही हो सकती है। वह अपने छात्रों को भारत-दर्शन के लिए ले जाता है और गाता है ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की। इस फिल्म का ही असर था कि इसके बाद छात्र-छात्राओं को भारत भ्रमण के लिए ले जाए जाने की परंपरा को बल मिला।
इसके बाद आयी फिल्म प्रोफेसर में शम्मी कपूर ने, शागीर्द में आईएस जौहर ने शिक्षक बनकर उछल कूद ही ज्यादा की है। लेकिन विनोद खन्ना की फिल्म इम्तिहान में शिक्षक का गंभीर व्यक्तित्व उभर कर सामने आया जिसे दर्शकों ने पसंद किया। राजेश खन्ना ने लोकप्रियता के बाद मास्टर जी और रोटी में शिक्षक की भूमिका निभाई जो टीचर कम फटीचर ज्यादा थी। इससे पहले पर्दे पर शिक्षकों का मानमर्दन होता 1972 में गुलजार निर्देशित ‘परिचय’ आयी। फिल्म का नायक एक ऐसे अमीर घर के बच्चों को पढ़ाने के लिए आता है जिनके माता-पिता नहीं हैं और जो अपनत्व से महरूम भी। वह न सिर्फ इन्हें पढ़ना सिखाता है बल्कि इनके भीतर संस्कारों का संचार भी करता है।
वी शांताराम की 1967 में आई फिल्म ‘बूंद जो बन गई मोती’ का नायक भी एक आदर्शवादी अध्यापक है जो ‘यह कौन चित्रकार है’ गाते हुए बच्चों को प्रकृति का पाठ पढ़ाता है. राज कपूर की ‘श्री 420’ में स्कूल टीचर विद्या (नरगिस) बच्चों को गाते हुए पढ़ाती है इचक दाना बिचक दाना। इस फिल्म का परिष्कृत रूप लेकर राजकपूर मेरा नाम जोकर में आए थे, जिसकी टीचर तीतर के दो आगे तीतर गाते अंग प्रदर्शन करती थी। 1980 में आयी फिल्म मनपसंद में देव आनंद टीचर बने जो टीचर कम देव आनंद ज्यादा दिखाई दिए।
1991 में आई नाना पाटेकर निर्देशित फिल्म ‘प्रहार’ एक कमांडो ट्रेनिंग स्कूल के बारे में है। लेकिन, यह फिल्म यह भी बताती है कि अपने छात्रों में अच्छे गुणों को भरने के लिए प्रेरणा का काम उनके अध्यापक, उनके गुरु को ही करना पड़ता है। नाना पाटेकर इस फिल्म में सेना के कमांडो ट्रेनिंग स्कूल के कड़क, अनुशासनप्रिय ट्रेनर की भूमिका में अपने छात्रों को जीवन जीने और देश पर मर-मिटने का पाठ पढ़ाते हैं। 2003 में आई राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ मुख्यतः चिकित्सा-क्षेत्र में व्याप्त असंवेदनशीलता पर आधारित है। लेकिन, पढ़ाई-लिखाई पर भी यह सार्थक टिप्पणियां कर जाती है। हेराफेरी से मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाला एक टपोरी मुन्ना यहां आकर सबको यह जता जाता है कि ज्ञान भले ही किताबों में बंद हो लेकिन किसी को भला-चंगा करने के लिए इन किताबी हदों से बाहर भी जाना चाहिए।
2005 में प्रदर्शित संजय लीला भंसाली की ‘ब्लैक के केंद्र में एक ऐसा अध्यापक है जो अपनी गूंगी, बहरी और अंधी शिष्या को पढ़ा-लिखा कर सक्षम बनाता है। अंत में वही शिष्या बुजुर्ग और अक्षम हो चुके अपने गुरु को सहारा देती है। 2004 में आई आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘स्वदेस’ किताबी बातों को सहजता से समझने और उस ज्ञान को अपने लोगों के उत्थान के लिए उपयोग में लाने की सीख देती नजर आई। महात्मा गांधी के दर्शन, उनके विचारों और शिक्षाओं के बारे में जितना ज्ञान और जो सीख हजारों किताबें मिल कर नहीं दे पाईं, वह अकेली ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006) ने दे दिया।
पढ़ाने-सिखाने वाली फिल्मों की धारा में प्रभावशाली बदलाव तो आया 2007 में प्रदर्शित आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीन पर’ के बाद। इस फिल्म में उठाए गए , जिन्हें काफी चर्चा मिली कि क्या सभी बच्चों को एक ही तरीके से पढ़ाया जाना उचित है? कहीं दूसरे बच्चों से होड़ के चक्कर में हम अपने बच्चों से उनका बचपन तो नहीं छीन रहे। इस फिल्म का आर्ट-टीचर राम निकुंभ कहता भी है ‘अगर घोड़े दौड़ाने का इतना ही शौक है तो रेसकोर्स में जाओ, बच्चे क्यों पैदा करते हो?’ इस फिल्म का असर भी हुआ और शिक्षा-क्षेत्र से जुड़े लोगों, शिक्षाविदों व अभिभावकों में चेतना भी जागी।
2009 में आई राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘3 ईडियट्स’ को भी पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों के चलते खासी चर्चा मिली. यह फिल्म अपने तीन मुख्य नायकों के द्वारा यह संदेश देती दिखाई दी कि जीवन में सफलता पाने के लिए उस काम को करना अधिक सही है जिसमें आपका मन हो और जिसे आप बेहतर ढंग से कर सकें। यह फिल्म बताती है कि पढ़ने से ज्यादा गढ़ना जरूरी है। कभी-कभी पढ़ने में ‘ईडियट’ लगने वाले लोग भी जीवन में दूसरों से अच्छा कर जाते हैं। उसके बाद से लेकर अभी तक ऐसी कोई फिल्म नही आई जो शिक्षक और शिक्षा के पहलूओं पर सार्थक तरीके से प्रकाश डालती हो।