अन्नपूर्णानन्द और ‘अकबरी लोटा’ ….

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अन्नपूर्णानन्द और ‘अकबरी लोटा’ ….

आपदा को अवसर में तब्दील करना सीखना हो तो ‘अकबरी लोटा’ को पढ़ना बहुत जरूरी है। यह किसी और का नहीं, बल्कि प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक अन्नपूर्णानन्द का हास्य लेख ‘अकबरी लोटा’ है। अंग्रेजों ने भारत को बहुत लूटा और बहुत होशियार बनकर लूटा। ऐसे में एक व्यंग्यकार ही अपनी लेखनी के जरिए गोरों को वेवकूफ साबित कर आम आदमी की संतुष्टि का ताना-बाना बुनने में सफल हो सकता है। जो हकीकत में न भी हो सके तब भी कोई बात नहीं। पर लेखक की कलम से तो यह संभव है। अन्नपूर्णानन्द काशी वासी थे, सो यह व्यंग्य भी काशी की प्रसिद्ध गलियों का ही है। इसमें आपदा को अवसर बनाने में मित्र की बड़ी भूमिका है। और होशियारी में अव्वल लाला ही इस व्यंग्य के मुख्य किरदार हैं। व्यंग्य संदेशपरक है, इसलिए इसे एनसीईआरटी में भी शामिल किया गया। अकबरी लोटा कहानी से यह सीख मिलती है किं हमारी बुद्धिमत्ता हमें के किसी भी मुश्किल समय से बचा सकती है। इसमें दो मित्र लाला झाऊलाल और बिलवासी हैं तो व्यंग्य के केंद्र में झाऊलाल की पत्नी मुख्य भूमिका में हैं। और अकबरी लोटा के लोचे में आने वाला बेचारा अंग्रेज है। खैर आनंद लेना है तो व्यंग्य ‘अकबरी लोटा’ अवश्य पढ़िए।

आज हम ‘अकबरी लोटा’ की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि इसके लेखक अन्नपूर्णानन्द का आज यानि 21 सितंबर को जन्मदिन है। अन्नपूर्णानंद (21 सितंबर,1895 ई – 4 दिसंबर,1962 ई.)  हिंदी में शिष्ट हास्य के लेखक थे। वह विख्यात मनीषी तथा राजनेता डॉ. सम्पूर्णानन्द के छोटे भाई थे।

उनकी पढ़ाई उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के एक छोटे स्कूल से आरंभ हुई और मोतीलाल नेहरू के पत्र ‘इंडिपेंडेंट’ में कुछ समय श्रीप्रकाश के साथ काम किया। वह 22 वर्ष की आयु में साहित्य के क्षेत्र में आए, प्रसिद्ध हास्यपत्र ‘मतवाला’ में पहला निबंध प्रकाशित हुआ-‘खोपड़ी’। इन्होंने हिंदी के शिष्ट हास्य रस के साहित्य को ऊँचा उठाया। इन पर उडहाउस आदि का काफी प्रभाव था। लिखते बहुत कम थे पर जो कुछ लिखा वह समाज के प्रति मीठी चुटकियाँ लिए हुए कुरीतियों को दूर करने के लिए और किसी के प्रति द्वेष न रखकर समाज को जगाने के लिए। उनका हास्य कोरे विदूषकत्व से भिन्न कोटि का था।

वह काफी दिनों तक राष्ट्रकर्मी दानवीर शिवप्रसाद गुप्त के सचिव भी रहे। आपकी निम्नलिखित छह रचनाएँ पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुकी हैं- मेरी हजामत, मगन रहु चोला, मंगल मोद, महकवि चच्चा, मन मयूर तथा मिसिर जी। आपका निधन जयपुर में 4 दिसंबर, 1962 को 67 वर्ष की आयु में हुआ।

उनकी रचना ‘दावत की अदावत’ के एक अंश पर नजर डालते हैं तो भी आनंद में डूबा जा सकता है। सड़क का ऐसा नजारा शब्दों में शायद ही कहीं दिखे। व्यंग्य की इस शैली को कहीं चुनौती नहीं दी जा सकती। तो देखिए रचना का यह अंश “यह मैंने आज ही जाना कि जिस सड़क पर एक फुट धूल की परत चढ़ी हो, वह फिर भी पक्की सड़क कहला सकती है। पर मेरे दोस्त झूठ तो बोलेंगे नहीं। उन्होंने कहा था कि पक्की सड़क है, साइकिल उठाना, आराम से चले आना। धूल भी ऐसी-वैसी नहीं। मैदे की तरह बारीक होने के कारण उड़ने में हवा से बाजी मारती थी। मेरी नाक को तो उसने बाप का घर समझ लिया था। जितनी धूल इस समय मेरे बालों में और कपड़ों पर जमा हो गई थी, उतनी से ब्रह्मा नाम का कुम्हार मेरे ही जैसा एक और मिट्टी का पुतला गढ़ देता।पाँच मील का रास्ता मेरे लिए सहारा रेगिस्तान हो गया। मेरी साइकिल पग-पग पर धूल में फँसकर खुद भी धूल में मिल जाना चाहती थी। मैंने इतनी धूल फांक ली थी कि अपने फेफड़ों को इस समय बाहर निकालकर रख देता तो देखने वाले समझते कि सीमेंट के बोरे हैं।

खैर किसी तरह वह सड़क खत्म हुई और मैं एक लंबी पगडंडी तय करके उस बाग के फाटक पर पहुँचा, जिसमें आज मेरी मित्र-मंडली के सुबह से ही आकर टिकने की बात थी।”

तो एक अंश व्यंग्य ‘मेरी हजामत’ का। आपने सुना होगा कि कुछ लोग भाड़ झोंकने दिल्ली जाते हैं, कोयला ढोने कलकत्ता जाते हैं और बीड़ी बेचने बम्बई जाते हैं। मैं अपनी हजामत बनवाने लखनऊ गया था।

लखनऊ पहले सिर्फ अवध की राजधानी थी, अब महात्मा बटलर की कृपा से सारे संयुक्त प्रान्त की राजधानी है। कई सुविधाओं का खयाल करते हुए यह मानना पड़ता है कि राजधानी होने के योग्य यह है भी। पहले तो रेवड़ियां अच्छी मिलती हैं, जो आसानी से जेब में भरकर कौंसिल चेम्बर में खायी जा सकती हैं; दूसरे नवाबजादियों का भाव सस्ता है जो बाहर से आये हुए कौंसिल के मेम्बरों का गृहस्थाश्रम बनाये रखने में मदद पहुंचाती हैं; तीसरे पार्कों की बहुतायत है जिनमें कौंसिल की ताती-ताती स्पीचों के बाद माथा ठंडा करने की जगह मिल जाती है। तब भला बताइये कि इन सुभीतों के आगे इलाहाबाद को कौन पूछेगा? वहां सिवाय अक्षयवट के धरा ही क्या है? गवर्नमेंट की यह शर्त थी कि यदि अक्षयवट का नाम बदलकर बटलर-वट रख दिया जाए, तो इलाहाबाद को तलाक न दिया जाए; पर हिन्दुओं की धर्मान्धता के कारण ऐसा नहीं हो सका। हैली साहब के आने पर इलाहाबादियों ने उनके पास भी अपनी दुःख-गाथा पहुंचायी, पर उन्होंने कहा कि ‘अधिक-से-अधिक मैं यही वादा कर सकता हूं कि साल में एक बार इलाहाबाद आकर त्रिवेणी-संगम पर सिर मुंड़वा जाऊं।’ खैर, जाने दीजिये, अपने राम को क्या, एक राजधानी से मतलब, चाहे कहीं भी हो। इन्हीं सब झगड़ों से अलग रहने के लिए मैं बाबा विश्वनाथ की राजधानी काशी में रहता हूं। मैं तो इलाहाबाद का नाम भी न लेता, पर क्या करूं, उसका रंडापा देखकर दया आ ही जाती है।

तो हास्य का आनंद लेना है तो अन्नपूर्णानन्द के लेखन को पढ़िए, शायद जीवन में झांकने का नजरिया ही बदल जाए। आज अन्नपूर्णानन्द की जन्म जयंती है। सो उनके लेखन की तरफ थोड़ा सा झांककर मन को संपूर्ण आनंद से भरने में कोई हानि नहीं है। वैसे भी जिस पर उन्होंने चुटकी ली, वहां से ही बड़ा संदेश देने में सफल रहे हैं…।