लोग खुद को पढ़ना सीख लेंगे तो न तर्को की कमी होगी.. न शब्द भंडार की…!

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लोग खुद को पढ़ना सीख लेंगे तो न तर्को की कमी होगी.. न शब्द भंडार की…!

आजकल पढ़ने की आदत बहुत कम हो गई है। कुछ ही लोग हैं जो पुस्तकें पढ़ने की आदत को नियमित बनाए हुए हैं। पढ़ने से विषय की गहराई तक जाने का मौका मिलता है। निरंतर पढ़ते रहने से आपके शब्दकोश में वृद्धि होती रहती है। जब आप वार्तालाप करते हैं या किसी विषय पर लिखते हैं तो यही अध्ययन आपके काम आता है।

वार्तालाप में कोई हल्के शब्दों का इस्तेमाल करे तो आप समझ लीजिए यह व्यक्ति अपने जीवन में पढ़ने की आदत छोड़ चुका है। जो व्यक्ति गुस्से में भी सही शब्दों का चयन करे और गालियों पर उतारू ना हो तो वह व्यक्ति चाहे गुस्सा कर रहा हो पर उसके पास अपने गुस्से को अभिव्यक्त करने का एक शब्द भंडार है। जो व्यक्ति गालियों का इस्तेमाल कर रहा है तो समझिए कि वह तर्कहीन है और उसके पास शब्द नहीं हैं अपनी बात को रखने के लिए।….

पर आजकल पढ़ता कौन है? अध्ययन में रुचि कितने लोगों में है? पुस्तकालय में पहले एक समय भीड़ बनी रहती थी। विद्वानों की, आलोचकों की, समालोचकों की पुस्तकें पढ़ने की आदत होती थी। कई लोग तो मूल ग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण, चारों वेद आदि के अध्ययन के साथ-साथ इन पर लिखी गई टिकाओं पर भी अध्ययन करते रहते थे। इसलिए उनकी बात और उनकी टीका टिप्पणी में वजन होता था। वे जो बात कहते थे अधिकारपूर्वक कहते थे।उनके कथन पर कोई दूसरा तर्क काम ही नहीं करता था। इसलिए विद्वान लोग समाज में प्रतिष्ठा पाते थे। आज भी जो अध्ययन करने का आदी है और किसी विषय पर यदि उन्हें भाषण करना है या लिखना है तो वे उस विषय का गहन अध्ययन करने के बाद ही लिखते या बोलते हैं। इसीलिए कई वक्ताओं के भाषण सामने बैठा समूह चुपचाप सुनता है और कई वक्ताओं के भाषण इतने अरुचिकर होते हैं कि लोग सुनते ही नहीं हैं। अरुचिकर इसलिए होते हैं या तो उन्होंने अध्ययन नहीं किया है या अध्ययन किया भी है तो अपने पास शब्द भंडार ना होने से वे सही विश्लेषण या सही तथ्य लोगों के सामने रख नहीं पा रहे हैं। इसलिए एक अच्छा वक्ता एक अच्छा लेखक बन सकता है, इस बात में दम है। पर एक अच्छा लेखक तभी अच्छा वक्ता बन सकता है, जब वह अपने शब्द भंडार को बढ़ाने के साथ-साथ तर्कशक्ति और भाषण करने की कला जानता हो। आज भी कई लोग हैं जिनको लोग सुनना पसंद करते हैं। सामाजिक क्षेत्र हो, आर्थिक क्षेत्र, राजनीतिक क्षेत्र हो या अध्यात्म का क्षेत्र भी क्यों ना हो, वहां ऐसे विद्वान वक्ता और लेखक मिल जाएंगे।

आज के पुस्तकालय में कई विद्वान, कई महापुरुष, कई टीकाकार जो आज इस दुनिया में भले न हों, पर उनकी कही गई बातें, उनके तर्क, उनके अध्ययन का नीचोड़ आज भी पुस्तकों में निहित है। इतने बड़े-बड़े विद्वानों की पुस्तकें, पढ़ने की रुचि कम हो जाने से, पढ़ने वालों की संख्या घटने के कारण पाठकों का इंतजार कर रही हैं। किताबें लेखक के कर्मयोग पर आंसू बहा रही हैं। आजकल तो लोग मजाक में कहते हैं, कि लोग खुद को भी नहीं पढ़ते हैं। खुद को पढ़ने का आशय यह कि वे यदि खुद के बारे में आंकलन करना शुरू कर दें और यह देखना शुरू कर दें कि वे जितनी वाचालता बातचीत और बोलचाल में दिखाते हैं, वे उतने विद्वान हैं क्या ? वे जिस विषय पर बोल रहे हैं उस विषय का उनको पर्याप्त ज्ञान है या नहीं…। क्या वे उन सारे तर्कों के साथ संवाद या मंथन करने के लिए आगे आए हैं, जो होने चाहिए।

निश्चित रूप से लोग अपने को पढ़ना बंद कर चुके हैं… यदि अपने को जानना और अपनी सही दक्षता और योग्यता को पहचानना चाहते हैं तो दूसरों को पढ़ने के साथ-साथ अपनों को भी पढ़ना सीखें। जिस दिन यह कर लेंगे उस दिन ना उनके पास तर्कों की कमी होगी और ना ही शब्दकोश की।