कानून और न्याय : संवैधानिक अधिकारों की रक्षा और रिट याचिकाओं की भूमिका

619

भारतीय नागरिकों को संविधान ने मूलभूत अधिकार प्रदान किए हैं। लेकिन साथ ही इनके उल्लंघन करने पर इनका उपचार भी संविधान ने प्रदत्त किया है। किसी भी अधिकार का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक कि उसका प्रभावी उपचार उपलब्ध न हो। यह उपचार हमें संविधान याचिकाओं के रूप में उपलब्ध कराता है। मौलिक अधिकारों के हनन होने पर हम संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के समक्ष याचिकाऐं प्रस्तुत कर हनन हुए अधिकारों के विरूद्ध सहायता की मांग कर सकते हैं। इस संबंध में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 तथा अनुच्छेद 226 के साथ अनुच्छेद 21 एवं 22 अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। ये अनुच्छेद किसी भी भारतीय नागरिकों के संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रहरी है।

भारतीय संविधान अपने नागरिकों को सात मौलिक अधिकार देता है। इनमें समानता, स्वतंत्रता, शोषण, धार्मिक, संस्कृति, शिक्षा तथा संवैधानिक उपचारों के अधिकार सम्मिलित है। मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण अधिकार भी नागरिकों के होते हैं। इन अधिकारों में वोट देने का अधिकार, मातृत्व अवकाश, सूचना का अधिकार व ऐसे ही अनेक महत्वपूर्ण अधिकार सम्मिलित है। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अनुच्छेद 32 को भारतीय संविधान की आत्मा और हृदय कहा था। अन्य अधिकारों की रक्षा अनुच्छेद 226 करता है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मूलभूत अधिकारों के संबंध में अनुच्छेद 32 के अंतर्गत अनेक याचिकाऐं आज भी विचाराधीन है।

रिट याचिकाऐं एक ऐसा उपचार है जहां एक भारतीय नागरिक अपने मौलिक अधिकारों अथवा अपने अन्य महत्वपूर्ण अधिकारों की रक्षा के लिए अथवा इनका उल्लंघन होने की दषा में इनके उपचार हेतु सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों के समक्ष याचिका प्रस्तुत कर सकता है।

मूलभूत अधिकारों में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 से 26 तक 14 विधि के समक्ष समानता, भेदभाव पर रोक, नौकरी में अवसर की समानता, अस्पृश्यता का अंत, उपाधियों का अंत, बोलने की स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, गिरफ्तारी और निरोध पर रोक, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता, बाल श्रम पर रोक जैसे अधिकारों की रक्षा की बात करता है। इनकी रक्षा के लिए अनुच्छेद 32 सर्वोच्च न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों में रिट याचिकाओं के प्रावधान किए गए हैं। कोई भी भारतीय नागरिक अपने मूलभूत एवं महत्वपूर्ण अधिकारों की रक्षा के लिए इन न्यायालयों के दरवाजे खटखटा सकता है।

भारतीय न्यायालयों ने भी इन मामलों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। पर्यावरण के मामले भी इन मामलों में सम्मिलित है। भारतीय नागरिक मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में सीधे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी जा सकते हैं। उच्च न्यायालय भी इन मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है। लेकिन मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य महत्वपूर्ण अधिकारों के हनन के मामले में अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय के समक्ष जाना होगा। बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है। इसके उल्लंघन की दशा में सीधे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 32 में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। लेकिन यदि किसी नागरिक के वोट के अधिकार का हनन होता है तो उसे पहले उच्च न्यायालय के समक्ष जाना होगा। उच्च न्यायालय द्वारा याचिका स्वीकार न किए जाने की दशा में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जा सकते हैं।

प्रश्न यह है कि आखिर ये याचिकाऐं क्या होती है ? मूल रूप में याचिका लिखित प्रार्थना अथवा याचना होती है इनके माध्यम से एक औपचारिक आदेश की प्रार्थना की जाती है ताकि किए जा रहे अधिकारों के उल्लंघन पर रोक लगाई जा सके। ये याचिकाऐं पांच प्रकार की होती है। इन याचिकाओं में बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, उत्प्रेषण, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा सम्मिलित है। इसके माध्यम से सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय अपने नागरिकों के अधिकारों के हनन पर रोक लगाते हैं।

अगर किसी व्यक्ति को गलत वजह से हिरासत में रखा जाता है तो वह इसके लिए बंदी-प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत कर सकता है। यदि कोई सरकारी संस्था अथवा अधिकारी अपने कर्तव्यों का सही तरीके से पालन न करते हुए नागरिक के महत्वपूर्ण अधिकार का उल्लंघन कर रहा हो तो परमादेश याचिका प्रस्तुत कर सकता है। उत्प्रेषण एवं प्रतिषेध याचिका में सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों अथवा अधिकरणों के विरूद्ध जारी की जाती है। इसी प्रकार अधिकार पृच्छा याचिका में इस बात को देखा जाता है कि वह व्यक्ति अपने सार्वजनिक पद पर रहने योग्य है अथवा नहीं। इन संविधान उपचारों का अधिकार स्वयं में कोई अधिकार न होकर मौलिक एवं अन्य महत्वपूर्ण अधिकारों की रक्षा के उपाय है।

इन याचिकाओं में एक महत्वपूर्ण याचिका बंदी प्रत्यक्षीकरण भी है। जब पुलिस किसी व्यक्ति को गैरकानूनी रूप से अपनी हिरासत में लेकर कई दिनों तक बंदी बनाए रखे तथा उसकी जानकारी न दे तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत की जा सकती है। यह याचिका अभी हाल ही में फिल्म ‘‘जय भीम‘‘ के संदर्भ में समाचार पत्रों में चर्चा में आई थी। इस फिल्म का आधार बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका थी। इस फिल्म में पुलिस द्वारा एक जनजाति के आदिवासियों के उत्पीड़न तथा एक वकील द्वारा उन्हें न्याय दिलाने का सजीव चित्रण किया गया है। पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने के 24 घंटों के भीतर उस व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए। गिरफ्तारी के बाद व्यक्ति को कारण बताया, उसके घर वालों को सूचित करना तथा उसको अपने वकील से बात करने देना, कानून के अनुसार आवश्यक है। यदि ऐसे अधिकारों का उल्लंघन होता है तो बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत की जा सकती है। इसे अनुच्छेद 22 का उल्लंघन माना जाएगा।

इस संबंध में आपातकाल में एडीएम जबलपुर विरूद्ध शिवकांत शुक्ला न्याय दृष्टांत उल्लेखनीय है। जबलपुर में मीसा कानून के प्रावधानों में गिरफ्तार कुछ व्यक्तियों की गिरफ्तारी से संबंधित यह मामला अंतोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय गया था। इस मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में यह ठहराया था कि आपातकाल में अनुच्छेद 21 प्रभावी नहीं रहता है। लेकिन बाद में नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने केएस पुट्टास्वामी प्रकरण में इस फैसले को बदल दिया। इस फैसले में कहा गया कि मौलिक अधिकारों का हनन आपातकाल में भी नहीं हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय एक अन्य प्रकरण में यह ठहरा चुका है कि आम आदमी की स्वतंत्रता किसी भी दशा में वीआईपी व्यक्ति से कमतर नहीं है। संक्षेप में हम यही कह सकते हैं कि याचिकाऐं वह महत्वपूर्ण हथियार है जिसके माध्यम से सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के माध्यम से एक आम नागरिक भी अपने संवैधानिक मूलभूत एवं महत्वपूर्ण अधिकारों की रक्षा कर सकता है।