देश में हिंदू-मुसलमान को लेकर आज जो चल रहा है उसे देखते हुए मेरे अवचेतन मन में अपने गाँव के कुछ वाकए, कई निर्दोष किस्से रह-रह कर याद आते हैं..। ढूँढिये आपके इर्द-गिर्द भी ऐसे ही बिखरे मिलेंगे। पता चलेगा कि कहां से चले थे कहाँ आ गए हम’ आगे किस खोह में गिरने चल पड़े।
आज भी मेरे करीबियों में कुछेक मुसलमान मित्र हैं। धरम के चश्मे से कभी भी देखने की जरूरत नहीं पड़ी। देश को मुश्किल में सियासतदानों ने डाला। एक वो हैं जो आजादी के बाद से मुसलमानों को डराकर वोटबैंक की भाँति इस्तेमाल करते रहे और अब नए सिरे से वही करने की जुगत में हैं। दूसरे वे हैं जो मुसलमानों को दूसरे पाले में खड़ाकर बहुसंख्यकवाद से अपनी गोटियां सेंकने में यकीन करते हैं।
राही मासूम रजा या आरिफ मोहम्मद खान जैसे मुस्लिम समाज सुधारक जब भी उठ खड़े होने की कोशिशें करते हैं दोनों किस्म के सियासी ठेकेदार परेशां हो जाते हैं। महाभारत को टीवी की पटकथा पर उतारकर घर-घर तक पहुँचाने वाले राही साहब को पंडों का कोपभाजन बनना पड़ा, एक म्लेच्छ कैसे हमारे धर्मग्रंथ पर लिख सकता है..? तभी राही साहब ने जवाब में लिखा- मेरा नाम मुसलमानों जैसा है, मेरा कत्ल करो, घर में लगा दो आग, लेकिन मेरे चुल्लू भर खून से नहलाते हुए महादेव से कहो कि वह अपनी गंगा लौटा लें क्योंकि वह तुर्कों के लहूं में बहने लगी है।
राही साहब गंगा के समानांतर यमुना की संस्कृति की बात नहीं करते, जैसा कि कुछ बौद्धिक गंगा-जमुनी तहजीब की बार-बार दुहाई देते हैं। देश की संस्कृति गंगा है और उसमें यमुना, सोन, टमस, महाना जैसे नदी-नाले समाहित होकर गंगाजल बन जाते हैं, इस बात को अच्छे से समझ लेना चाहिए।
आरिफ मोहम्मद खान साहब वो शख्सियत थें जिंन्होंने शाहबानों केस को लेकर शरिया की दुहाई देते उबल रहे कठमुल्लों के खिलाफ लोकसभा में ताल ठोकी थी। उनकी आवाज मुस्लिम समाज में नारीमुक्ति, नारी अधिकार की शंखनाद थी लेकिन मुसलमानों को वोट का एटीएम समझने वाली तत्कालीन सरकार और उसकी पार्टी ने उन्हें धकियाकर बाहर कर दिया। दुर्भाग्य यह कि ऐसे लोगों की आवाज़ अराजकता के नक्कारखाने में तूती बनकर रह जाती है।
हम विंध्यवासी सौभाग्यशाली हैं कि यहाँ वैसे जहर अभी नहीं भींजा है जैसा कि महानगर या उन्नत व विकसित कहे जाने वाले प्रदेशों में। हमारे आपके बीच के कई ऐसे किस्से हैं जो सामाजिक तानेबाने के मजबूत बुनावट के सबूत की भाँति हैं।
।। एक।।
कुछ साल पहले जब करीना कपूर और सैफ अली खान ने अपने बेटे का नाम तैमूर अली खान रखा तो देशभर में हंगामा मच गया। कोई अपने बेटे का नाम एक लुटेरे आक्रांता का नाम कैसे दे सकता है..? सच यह है कि नाम तो स्वयं में निर्दोष व निर्पेक्ष होता है, अच्छा या बुरा तो उसे धारण करने वाला होता है। इस बकवादी दौर के बीच हमारे गाँव के दो दिलचस्प वाकए बरबस याद आ गये। एक अब्दुल गफ्फार का दुरगाफार और फिर दुरगा बन जाना, दूसरा रामलखन का रामल खान।
शुरुआत दूसरे वाकए से, यह पूर्व विधायक और हमारे प्रिय धाकड़ नेता रामलखन शर्मा जी से जुड़ा है। शर्मा जी ने सिरमौर से दूसरा चुनाव मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की टिकट पर जीता। वे यमुना शास्त्री के साथ जनता दल छोड़़ कर आए थे। प्रदेश के इकलौते माकपा विधायक होने के नाते देश भर की माकपा में उनका नाम था।
पालित ब्यूरो के सभी नेता उन्हें क्रांतिकारी मानते थे। यद्यपि शर्मा जी खुले बदन रुद्राक्ष की मालाएं पहनते हैँ और सिर्फ उपन्ना ओढते हैं। यह वेश उनके कम्युनिस्टी होने के आड़े कभी नहीं आया।
बहरहाल कहानी यह कि वे शास्त्रीजी के साथ कलकत्ता से पार्टी मीटिंग में भाग लेकर लौटे। दूसरे दिन मैं हालचाल लेने शास्त्री जी से मिलने.. वसुधैव कुटुम्बकम् ..पहुंचा। शास्त्री जी मनोविनोद के मूड मे थे।
उन्होंने अपने अंदाज़ में कहा.. मालुम.. अपना रामलखन तो बंगाल में रामल खान हो गया। सभी उसे इसी नाम से संबोधित कर रहे थे..। मैने कहा.. शास्त्री जी यह उच्चारण का फेर होगा। वे बोले नहीं भाई.. फिर तो कई लोग इसे मिस्टर खान कहकर संबोधित करने लगे। तो रामलखन की क्या प्रतिक्रिया रही मैंने पूछा.. शास्त्री जी दुर्लभ ठहाका लगाते हुए बोले.. अरे वो तो बिना मेहनत के एक झटके मे ही सेकुलर हो गया..भाई।
अब अब्दुल गफ्फार के बारे में। ये हमारे ग़ांव यानी कि रीवा जिले के बड़ी हर्दी गांव के प्रतिष्ठित मुसलमान थे। बचपन से ही हम लोग इन्हें जयहिन्द करके नमस्कार करते थे।
मुसलमान हिन्दुओं से कैसे अलग होते हैं, यह पढ़ीलिखी दुनिया मे आ कर जाना। अम्मा (माता जी को हम यही कहते थे) को वे काकी कहते थे। उनकी दर्जीगिरी व बिसातखाने की दूकान थी।
अम्मा को जब कोई सामान मगाना होता तो वे यही कहती.. जा दुरगाफार के इहां से ले आवा। हम बहुत दिनों तक दुरगा और दुर्गा में कोई फर्क नहीं कर पाए। गांव के प्रायः लोग उन्हें यही कहते थे। कई बार तो सम्मान मे लोग इन्हें दुरगा भैया भी कह दिया करते थे।
अब्दुल गफ्फार को गांव की हमारी साझी संस्कृति ने दुरगाफार बना कर शामिल कर लिया। उनके बड़े बेटे अब्दुल सुभान हम बच्चों के लिए सिउभान बने रहे।
अब काफी कुछ बदल गया। मुसलमहटी अलग. बहमनहटी अलग। गांव मे अब ऐसी कई यादों के पुरातत्वीय अवशेष बचे हैं।
इस बीच एक मित्र ने पते की बात पूछी .. सैफ करीना यदि अपने बेटे का नाम रसखान अली पटौदी रख देते तो क्या देश भर में नरियल फूटते..?
। दो।
उत्तरप्रदेश की किसी सभा में बोलते हुए हुए योगीजी के श्रीमुख से ब-जरिए एक टीवी चैनल में सुना कि- ” उनके अली तो मेरे बजरंगबली”। मुझे अपने गाँव का वो दृष्टान्त याद आ गया जब इन दोनों देवों में बँटवारा नहीं हुआ था…।
बात 67-68 की है। मेरे गाँव में बिजली की लाइन खिंच रही थी। तब दस-दस मजदूर एक खंभे को लादकर चलते थे। मेंड़, खाईं, खोह में गढ्ढे खोदकर खड़ा करते। जब ताकत की जरूरत पड़ती तब एक बोलता.. या अलीईईईई.. जवाब में बाँकी मजूर जोर से एक साथ जवाब देते…मदद करें बजरंगबली..और खंभा खड़ा हो जाता।
सभी मजूर एक कैंप में रहते, साझे चूल्हें में एक ही बर्तन पर खाना बनाते। थालियां कम थी तो एक ही थाली में खाते भी थे। जहाँतक याद आता है..एक का मजहर नाम था और एक का मंगल।
वो हमलोग इसलिए जानते थे कि दोनों में जय-बीरू जैसे जुगुलबंदी थी। जब काम पर निकलते तो एक बोलता – चल भई मजहर..दूसरा कहता हाँ भाई मंगल।
अपनी उमर कोई पाँच-छ: साल की रही होगी, बिजली तब गाँव के लिए तिलस्म थी जो साकार होने जा रही थी। यही कौतूहल हम बच्चों को वहां तक खींच ले जाता था। वो लोग अच्छे थे एल्मुनियम के तार के बचे हुए टुकड़े देकर हम लोगों को खुश रखते थे।
उनदिनों हम लोग भी खेलकूद में.. याअली..मदद करें बजरंगबली का नारा लगाते थे और मजाक में एक दूसरे को मजहर-मंगल कहकर बुलाते थे।
उनकी एक ही जाति थी..मजूर और एक ही पूजा पद्धति मजूरी करना। तालाब की मेंड़ के नीचे लगभग महीना भर उनका कैंप था न किसी को हनुमान चालीसा पढ़ते देखा न ही नमाज।
सब एक जैसी चिथड़ी हुई बनियान पहनते थे, पसीना भी एक सा तलतलाके बहता था। खंभे में हाथ दब जाए तो कराह की आवाज़ भी एक सी ही थी। और हां मजहर के लोहू का रंग भी पीला नहीं लाल ही था।
तुलसी बाबा कह गए-
रामसीय मैं सब जगजानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
बाद में गालिब ने इसकी पुष्टि करते हुए ..मौलवियों से पूछा…मस्जिद में बैठकर शराब पीने दे, या वो जगह बाता दे जहाँ खुदा न हो..!
यह अजीब हवा-ए-तरक्की है, सबकुछ बँट रहा है। हाँसिल आयेगा लब्धे शून्य..! इस शून्य की पीठपर सिंहासन धरके किस पर राज करोगे भाई।