मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 33rd किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं
33 .In Memory of My Father-Dr. Shard Pagare: पिताजी की साधारण से कालजयी तक की अद्भुत यात्रा………….
पिता के ऊपर लिखना किसी भी पुत्र के लिए दुरूह कार्य हो सकता है। वह भी तब जब वे परम ब्रह्म में लीन हो गए हैं। भारत के प्रख्यात ऐतिहासिक उपन्यासकार और कथाकार शरद पगारे जो मेरे पिता थे, उन्हें उनके असंख्य पाठक, प्रशंसक ‘‘कालजयी’’ मानते रहे हैं। उनके जीवित रहते ही उनके द्वारा लिखित उपन्यासों को ‘‘कालजयी’’ का तमगा मिलना निष्चित ही किसी भी लेखक के लिए बड़ी और महती उपलब्धी मानी जा सकती है। स्व. पिताजी शरद पगारे भी अक्सर कहते थे, मेरे जाने के बाद मेरी कृतियाँ मुझे साहित्य प्रेमियों के बीच सदैव जीवंत बनाए रखेंगी। साथ ही वे कहते थे कि मेरे साहित्यिक अवदान का असली मूल्यांकन शायद मेरे जाने के बाद हो। इसलिए वे भवभूति का उदाहरण भी दिया करते थे।
पिता, शरद पगारे जिन्हें हम पापाजी के नाम से संबोधित करते थे, को मैंने जबसे होश संभाला कभी फालतू बैठे नहीं देखा। उन्होंने इतिहास के प्राध्यापक के रुप में जिस विषय को पढ़ा और विभिन्न महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया उसे वास्तव में अपने जीवन में उतारा भी। वे बातचीत में हमें दो इतिहास पुरुषों के उदाहरण देते थे। एक शेरशाह और दूसरा नेपोलियन। उनका मानना था कि उक्त दोनों ने कठोर परिश्रम कर साधारण इंसान से महानता की यात्रा सम्पन्न की। वैसा ही कुछ उन्होंने साहित्य से प्राप्त करने का प्रयास किया। मैंने उन्हे सदैव कार्य करते देखा। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ हो या पेषेगत वे हर कार्य को बड़ी शिद्दत और उत्साह से करते थे। सेवानिवृत्ति के बाद अपना पूरा जीवन उन्होंने लेखन को समर्पित कर दिया था। अतः पिछले लगभग 33 साल मैंने उन्हें सदैव या तो कुछ पढ़ते पाया या फिर कुछ लिखते। सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन कोई कैसे आदर्श तरीके से गुजार सकता है, यह उनको देखकर सीखा जा सकता था। सुबह चार बजे उठना, खुद की चाय बनाना, फिर लिखने बैठ जाना, उषा की लालिमा छाते ही एक घंटे सैर के लिए निकल पड़ना। वापस आते समय भगवान को चढ़ाने के लिए खीसे में ताजा फूल लेते आना और फिर अखबार की एक-एक लाइन पढ़ना उनकी जीवनशैली का अभिन्न अंग था। नियमित तौर पर साढ़े आठ तक नाश्ताकर पुनः लेखन में लग जाना। वे कहते भी थे किसी दिन न लिखूँ तो जीवन में कुछ अधूरापन लगता है। हम सभी बच्चों को समय नष्ट न कर कुछ अच्छा करने की सीख देना भी उनकी दिनचर्या में शामिल था।
अपने लेखन के प्रति वे बेहद संजीदा थे। उपन्यासों के पात्रों और कथानक में वे उठते-बैठते, चलते-फिरते और सोते-जागते डूबे रहते थे। उन पर परिवार में, मित्रों से और मिलने वालों से संवाद भी करते थे। सबसे पहले परिवार में हमें ही पता चलता था वे क्या लिख रहे हैं और कल क्या लिखा। अपनी कहानी और उपन्यासों के पात्रों पर बड़े उत्साह से बताना उनका शगल था। वे कहते थे किसी अभिनेता से बड़ा लेखक होता है। अभिनेता तो एक चरित्र को पर्दे पर प्रस्तुत करता है, जबकि लेखक को कथानक के हर चरित्र को जीना पड़ता है, उसके साथ न्याय करना पड़ता है। वे चरित्र में डूबकर लिखते थे तभी उनका लिखा पाठक की आत्मा में उतर जाता था। चरित्र के सुख-दुख पिताजी के सुख-दुख बन जाया करते थे। इसीलिए जिसने भी उनका उपन्यास गुलारा बेगम पढ़ा या बेगम जैनाबादी या फिर पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी वह उनकी लेखनी का मूरीद होकर ही रहा।
उपन्यास गंधर्वसेन लिखते समय वे बताते थे कि उन्हें नायक और नायिका की लड़ाई सुहागरात के दिन ही करानी थी। बात तर्कसंगत बन नहीं रही थी। एक माह तक वे बेचैन रहे कि कैसे दोनों के बीच द्वन्द्व का ताना-बाना बुने। एक रात वे अचानक 11 बजे उठे और सुबह चार बजे तक लिखते रहे। नियमित तौर पर सुबह चार बजे उठने वाले पिताजी उस दिन 9 बजे तक नहीं उठे तो हम सब चिंतित हो गए कि वे कहीं बीमार तो नहीं हैं ? उठे क्यों नहीं ? उन्हें नींद से उठाना हमें उचित भी नहीं लगा। जब वे उठे तो उन्होंने बताया कि वे अपने उपन्यास के नायक गंधर्वसेन और नायिका सरस्वती के सुहागरात के झगड़े का दृष्टांत देर रात से अलसुबह तक लिखते रहे। पूरा परिदृश्य अचानक रात में 11 बजे दिमाग में कौंधा था। लिखने के बाद उन्हें इतनी गहरी नींद आई की जो बेचैनी एक माह से थी वह दूर हो गई। वो अक्सर कहते थे कि मैं जो लिखना चाहता हूँ उससे मेरे पात्र सहमत नहीं होते। पात्र, जो उसके बारे में लिखवाना चाहता है, उसे मुझे लिखना पड़ता है। इसे वे ‘‘पात्रकाया प्रवेश ’’ कहते थे, चूँकि वे निरन्तर पात्रों में खोये रहते थे, इसीलिए पात्र शब्दों में पाठक को जीवंत नजर आते हैं। वैसे वे पात्रों को सामान्य जीवन मंे देखे मनुष्यों से ही उठाकर चित्रित करते थे। उनका यह भी कहना था कि पहले मुझे लगता था जो भी कुछ लिखा है, वह मैंने लिखा है। पिछले कुछ सालों में वे कहने लगे थे कि मेरा लिखा जब पढ़ता हूँ तो आश्चर्य होता है कि मैंने ऐसा कैसे लिख लिया। फिर कहते थे कि किसी अज्ञात शक्ति ने मुझसे ये सब लिखवाया है।
शब्दब्रह्म के वे सच्चे उपासक थे। उनकी लेखन यात्रा लगभग 70 वर्ष की थी। 70 वर्षों तक लगातार और मृत्युपर्यन्त लिखना निश्चित ही असाधारण बात मानी जा सकती है। एक गरीब ब्राह्मण परिवार में खंडवा में जन्मे पिताजी पूजनीय शरद पगारे का प्रारंभिक जीवन अत्यंत गरीबी के कारण बेहद संघर्षशील रहा। वे कहते थे कि प्रारंभिक पाँच साल तो मेरे राजकुमारों जैसे थे, क्योंकि पिता स्व. केवलराम पगारे खंडवा कचहरी में वकालत में खूब कमाई करते थे। पिताजी को एक नौकर बच्चों की गाड़ी में घुमाने ले जाता था। उनके पाँच वर्ष की अवस्था तक आते-आते पिताजी स्व. केवलराम जी की कुछ नशा संबंधी (गांजा-भांग) आदतों के चलते वकालत का काम बैठने लगा और घर में आर्थिक तंगी प्रारंभ हो गई। धीरे-धीरे सब कुछ बिक गया और परिवार दो मंजिला पक्के घर से छोटे से कच्चे मकान में आ गया। यह मकान उसी गली में था, जिसके मुहाने पर ‘‘एक भारतीय आत्मा’’ माखनलाल जी चतुर्वेदी का उस समय का अत्यंत लोकप्रिय समाचार-पत्र ‘कर्मवीर’ प्रकाशित होता था। पिताजी अक्सर कहते थे उनमें साहित्य के संस्कार कर्मवीर और स्व. माखनलाल चतुर्वेदी के कारण पड़े। बचपन से वे उनके संपर्क में आ जो गए थे और बाल्यावस्था से ही आर्थिक तंगी के कारण उनके जीवन में कठोर संघर्ष भी षुरू हो गया। वे बताते थे कि घर में चूल्हा जले इसलिए वे हाट-बाजार में ढोर (पशु) भगाने भी जाते थे। कई बार माचिस भी बेची। कुशाग्र होने के कारण स्कूल में अच्छे अंकों से पास भी होते रहे। वे खण्डवा के मेम हिन्दी स्कूल में पढ़े जहाँ बाॅलीवुड के महान गायक स्व. किशोर कुमार के वे सहपाठी रहे। हायर सेकेण्डरी अच्छे नंबरों से पास होते ही खंडवा जनपद में 60 रु. मासिक पर नौकरी भी कर ली। गरीबी के कारण आस-पड़ोस के लोगों और अपनों का अपमान भी झेला। काॅलेज की पढ़ाई नीलकंठेश्वर महाविद्यालय से पूरी करने के बाद एम.ए. करने इंदौर के होलकर कॉलेज आए। पिता स्व. केवलराम पगारे जी का इस पर भारी विरोध था, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र खण्डवा जनपद की लगी लगाई नौकरी छोड़कर इन्दौर पढ़ने जाए। बड़े जुजुर्गों के बीच-बचाव और इन्दौर में भी नौकरी कर घर पैसे भेजने की षर्त पर वे खण्डवा छोड़ पाए। सुबह सात से 10ः30 काॅलेज में क्लास अटैंड कर 11 बजे आॅफिस जाना। रात में पढ़ाई करना यह दिनचर्या थी। कड़ी मेहनत रंग लाई और एम.ए. इतिहास में पिताजी ने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
एम.ए. इतिहास में प्रवेश माखनलाल जी चतुर्वेदी के कहने पर लिया था। विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान ने उनके लिए नए द्वार खोले। उन दिनों मेरिट में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले को म.प्र.सरकार का उच्च शिक्षा विभाग कॉलेज में सीधे नौकरी दे देता था। गुरु स्व. बी.एन. लूणिया के मार्गदर्शन में काॅलेज लेक्चरर की नौकरी मिल गई। यहाँ से जीवन ने जो उड़ान ली तो फिर पिताजी ने उम्र भर पीछे मुड़कर नहीं देखा। घोर विपन्नता और आर्थिक तंगी से धीरे-धीरे छुटकारा मिलने लगा। स्व. लूणिया के निर्देशन में इतिहास विषय पर किताबें लिखना प्रारंभ की। कहानियाँ तो 1955 से लिखने लगे जो इंदौर के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगी थीं। इतिहास विषय पर करीब 15 किताबें लिखी जो म.प्र. और राजस्थान के विश्वविद्यालयों में उपयोग में लाई जाती रही। 1977 के बाद पिताजी ने पूर्ण रूप से अपने आपको साहित्य के लिए समर्पित करना शुरू किया। महान पत्रकार और संपादक स्व. राजेन्द्र माथुर के कहने पर पहला उपन्यास ‘‘गुलारा बेगम’’ लिखा जिसे म.प्र. साहित्य परिषद के विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से नवाजा गया। धीरे-धीरे वे अपने ऐतिहासिक उपन्यासों और विभिन्न कथा संग्रहों के जरिए हिन्दी साहित्य में स्थापित होते चले गए।
विपन्नता से सम्पन्नता की यात्रा कठोर परिश्रम से जारी रही। अपने घर परिवार की सारी जिम्मेदारियां भी खूब निबाही। चार बहनों का विवाह किया। छोटे भाई को भी पढ़ाया-लिखाया और नौकरी लगवाई तो एक बुआ के लड़के को भी घर रखकर पढ़ाया-लिखाया और नौकरी लगवाई। हम तो छोटे थे। पिताजी कहते थे कि उनके संघर्ष में हमारी माताजी श्रीमती सुमन पगारे ने पूरा साथ दिया। एक बार हमारी बुआ (पिताजी की बहन) के विवाह में विपन्नता के चलते मंगलसूत्र देने को नहीं था। हमारी माताजी ने सहर्ष अपना मंगलसूत्र अपनी ननद को दे दिया। पिताजी का रिश्ता स्व. माखनलाल जी चतुर्वेदी ने ही इंदौर के प्रभावी बिल्लौरे परिवार मंे कराया था। हमारे नानाजी स्व. भिकाजी बिल्लौरे होलकर राजपरिवार में गार्जियन ट्विटर थे। आपकी कविताएँ कर्मवीर में छपती थीं। अतः माखनलाल जी के वे व्यक्तिगत मित्र भी थे। वे गरीब परिवार में अपनी पुत्री का हाथ देने में हिचकिचा रहे थे। पिताजी कहते थे कि स्व. नाना जी ने जितने भी ज्योतिषियों को पिताजी की कुंडली दिखाई सबने उन्हें यही कहा कि जातक की कुंडली जोरदार है और वह जीवन में बहुत आगे जाएगा और नाम भी बहुत कमाएगा। वैसा हुआ भी।
स्व. पिताजी शरद पगारे ने साहित्य की सेवा कड़ी मेहनत और लगन से की। किसी भी उपन्यास और कहानी को लिखने में वे बहुत परिश्रम करते थे। बार-बार लिखना, उसमें सुधार करना उनके स्वभाव में था। लिखने का जुनून इतना था कि पुत्री सौ. अंजली के विवाह की बारात आ जाने के बाद भी सुबह चार बजे उठकर पहले लिखा, फिर बारात का स्वागत-सत्कार किया। 90 पार हो जाने के बाद भी उम्र उन पर हावी नहीं हो पाई थी। सुबह जल्द उठना, घूमना, व्यायाम करना और फिर लिखने बैठ जाना। मानसिक तौर पर वे काफी सजग और सक्रिय थे। लगातार कथानक और उसके पात्रों में डूबे रहने से वे न तो कभी बीमार पड़े, नहीं उन्होंने कभी शिकायतें की। शहर में होने वाले कार्यक्रमों में भी उपस्थित रहना उनकी आदत में शुमार था। मैं ही उन्हें अक्सर कार्यक्रमों में ले जाता था। ज्ञानपीठ के बाद हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े सम्मान माने जाने वाले के. के. बिड़ला फाउण्डेशन के ‘‘व्यास सम्मान’’ ने उनकी ख्याति में चार चाँद लगा दिए थे। प्रसिद्ध लेखक से वे सुप्रसिद्ध लेखक हो गए थे।
भारत में उन्हें वे लोग भी जानने लगे थे जिन्होंने उनका साहित्य नहीं पढ़ा। कुछ लोगों की उनके प्रति साहित्यिक इर्ष्या जरूर बढ़ गई। जिससे वे थोड़े आहत भी थे। उनके 40-45 साल पुराने साहित्यिक मित्र सूर्यकांत नागर और उनकी मंडली के व्यवहार और पीठ पीछे किए गए कृत्यों ने उन्हें पीड़ा दी जिसका वे बाद-बाद में जिक्र भी करने लगे थे।
स्व. पिताजी श्री शरद पगारे की ख्याति उनके पाठकों में कितनी थी इसका अंदाजा कुछ घटनाओं से लगाया जा सकता है वे कहते थे जादू वही जो सर चढ़कर बोले। उनका लेखन अद्वितीय इसलिए था क्योंकि वे खूब मेहनत से लिखते थे। अपने लिखे को बार-बार पढ़ना, उसमें संषोधन करना, जोड़ना-घटाना निरन्तर चलने की प्रक्रिया थी। हिन्दी साहित्य के अत्यन्त महत्वपूर्ण के.के. बिड़ला फाउण्डेशन के प्रतिष्ठित व्यास सम्मान से विभूषित उनके लोकप्रिय उपन्यास ‘‘पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी’’ के उन्होंने डेढ़ सौ पृष्ठ इसलिए फाड़ दिए क्योंकि उन्हें ही रस नहीं आ रहा था। उसे नए सिरे से लिखा। हाँ, लिखने में पाँच वर्ष का समय भी लिया, तभी जा कर उपन्यास कालजयी बना। इस उपन्यास के तारतम्य में दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहूँगा। इसलिए भी क्योंकि मैं दोनों प्रसंगों का साक्षी रहा। दुबई में कोई श्रीमती चतुर्वेदी हैं। एक रात पौने नौ बजे फोन की घंटी बजी। फोन मैंने ही उठाया। सामने से मधुर स्त्री स्वर सुनाई दिया कि मैं दुबई से श्रीमती चतुर्वेदी बोल रही हूँ मुझे शरद जी से बात करनी है। पिताजी जल्दी सो जाने वालों में से थे। वे अक्सर साढ़े सात से आठ बजे सोने चले जाते थे। मैंने पिताजी को उठाया और कहा कि कोई दुबई से आपसे बात करना चाहता है। उक्त महिला ने 30-40 मिनट बात की। पिताजी ने बाद में बताया कि वह उनके उपन्यास पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी को खत्म करके बैठी ही थी और फोन लगाने से स्वयं को रोक नहीं सकी। उक्त महिला का कहना था कि वह अंग्रेजी उपन्यास ही पढ़ती है पर दिल्ली एयरपोर्ट से दुबई आते उसने पिताजी का उपन्यास खरीद लिया और पूर्ण करते ही फोन लगाने को मजबूर हो गई। उसने खूब प्रशंसा की।
इसी उपन्यास से जुड़ा एक अन्य किस्सा देश के जाने-माने संत अवधेशानंद गिरी जी से जुड़ा है। स्वामी अवधेशानंद देश के जूना अखाड़ा के प्रमुख होकर आचार्य एवं महामंडलेश्वर हैं। पूरा भारत आपकी विद्वता का मूरीद है। एक दिन रात को साढे़ आठ बजे फोन की घंटी बजी। मैंने ही फोन उठाया। सामने से कोई बोला शरद पगारे जी हैं… मैंने कहा हैं आप कौन बोल रहे हैं ? उन्होंने कहा स्वामी जी बात करेंगे। मुझे लगा कोई चंदा मांगने वाले का काॅल होगा। मैंने पूछा कौन स्वामी जी। तब उधर से कहा गया स्वामी अवधेशानंद जी बात करना चाहते हैं। मैं चौंका । तुरंत सोने जा चुके पिताजी को जगाया। दोनों के बीच करीब 45 मिनट बातचीत हुई। बाद में पिताजी ने कहा की स्वामी अवधेशानंद जी उनका उपन्यास ‘पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी’ पढ़कर अभीभूत थे। फोन किए बिना नहीं रह सके । उन्होंने उपन्यास ‘पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी’ को विश्व साहित्य की अद्भुत कृति निरूपित किया।
इसी प्रकार स्व. पिताजी शरद पगारे के सबसे लोकप्रिय उपन्यास ‘गुलारा बेगम’ से जुड़े भी अनेक प्रसंग हैं। चश्मेबद्दूर और उमराव जान जैसी हिट फिल्मों के लोकप्रिय हीरो फारूख़ शेख, अभिनेत्री शबाना आज़मी के साथ अमेरिका के दौरे पर जा रहे थे। दौरा चार माह का था और वहाँ उनके नाटकों का विभिन्न शहरों में मंचन था। फारूख़ शेख खाली समय में पुस्तकें पढ़ने के कीन थे। अतः वे मुम्बई के ग्वालिया टैंक में एक पुस्तक विक्रेता की दुकान पर दौरे से पूर्व पुस्तकंे लेने गए। उन्होंने कई पुस्तकें ली। भुगतान करते समय जब वे काउंटर पर आए तो सेल्समैन ने उन्हें कहा कि आपने इतनी पुस्तकें ली एक मेरे कहने पर ले लीजिए। सेल्समैन ने उन्हें ‘गुलारा बेगम’ उपन्यास दिया।
फारूख शेख ने पुस्तक खरीद ली। अमेरिका से चार माह बाद वे मुंबई लौटे। एक दिन सुबह 10ः30 बजे फोन की घंटी बजी। मेरी माताजी श्रीमती सुमन पगारे ने फोन उठाया। दूसरी तरफ से आवाज आई मैं फ़ारूख़ बोल रहा हूँ। शरद जी से बात हो पाएगी। माताजी ने पूछा कौन फारुख ? तब उन्होंने कहा कि आपने चश्मे बद्दूर फिल्म देखी होगी उसमें मैंने रोल किया है। माताजी चौंकी और आश्चर्य और हर्ष मिश्रित स्वर में कहा कि हम तो आपके फैन हैं। उन्होंने जवाब दिया कि मैं शरद पगारे जी का फैन हूँ। उनसे बात करना चाहता हूँ। पिताजी घर पर नहीं थे अतः फ़ारूख़ शेख जी ने शाम को पुनः फोन करने का कहा। शाम को उनका फोन आया। पिताजी से उपन्यास गुलारा बेगम पर लंबी बात हुई। कुछ समय पश्चात उन्होंने 3 दिन के लिए पिताजी को मुंबई बुलवाया। मैं भी उनके साथ मुंबई गया। फारुख जी ने हमारे साथ डिनर भी लिया। वे चाहते थे कि गुलारा बेगम पर उमराव जान जैसी फिल्म बने। उन्होंने कुछ लोगों से मिलवाया भी पर बात नहीं बनी।
इसी प्रकार एक कार्यक्रम में म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. मोतीलाल वोरा ने पिताजी को किसी से मिलवाया तो उन्होंने तुरन्त कहा गुलारा बेगम वाले पगारे जी। उन्होंने भी उपन्यास पढ़ रखा था। लोकप्रिय अभिनेत्री नीना गुप्ता को अहिल्या उत्सव के कार्यक्रम में पूर्व लोकसभा स्पीकर सुमित्रा जी महाजन ने आमंत्रित किया था। कार्यक्रम के पश्चात सुमित्रा जी ने पिताजी से मिलवाया तो नीना गुप्ता ने कहा कि मैं आपको जानती हूँ। पिताजी ने आश्चर्य व्यक्त किया और कहा कि हम आपको सिने कलाकार के रूप में जानते हैं आप मुझे कैसे ? तो नीना गुप्ता ने कहा कि मैंने आपका उपन्यास गुलारा बेगम पढ़ा है।
नाटकों में काम करने वाली दिल्ली की एक अदाकारा (नाम भूल रहा हूँ) पिताजी से मिलने घर आई तो उन्होंने बताया कि वे उपन्यास गुलारा बेगम 20-25 बार पढ़ चुकी हैं। पिताजी ने आष्चर्य व्यक्त किया कि कैसे? उन्होंने कहा कि यह हिन्दी साहित्य का क्लासिक है। मेरा जब भी मूड़ खराब होता है मैं गुलारा बेगम पढ़ कर मूड़ ठीक करती हूँ। इसी प्रकार भुवनेष्वर उड़ीसा की एक महिला हैं। वे भी ‘पाटलीपुत्र की सम्राज्ञी’ उपन्यास अनेकों बार पढ़ चुकी हैं। उन्होंने पिताजी को फोन कर के बताया कि वे बस में या ट्रेन में ट्रेवल करते वक्त पिताजी का उक्त उपन्यास ही पढ़कर समय काटती हैं। पिताजी का कहना ‘‘जादू वह जो सर चढ़कर बोले’’ उनके उपन्यासों पर लागू होता है। उनकी कलम का जादू पाठक के सर चढ़कर बोलता है।
उनके एक अन्य उपन्यास ‘गंधर्व सेन’ का भी एक किस्सा है। बाॅलीवुड के सुप्रसिद्ध गायक और संगीतकार हिमेश रेशमिया के पिताजी विपिन भाई रेशमिया टी.वी. सीरियल के निर्माता रहे हैं। वे ‘गंधर्व सेन’ पर 350 एपिसोड का टी.वी. सीरियल बनाना चाहते थे। उन्होंने बताया एयर टिकट भेजकर पिताजी को मुंबई बुलाया। एग्रीमेंट की एक शर्त को लेकर बात अटक गई। उनका कहना था कि कथानक को लेकर कोई कानूनी मुद्दा बीच में आया तो लेखक भी जिम्मेदार होगा। पिताजी का कहना था कि आप कहानी में सीरियल के हिसाब से परिवर्तन करेंगे। तो वे कैसे जिम्मेदार होंगे ? इस शर्त पर बात अटक गई।
किसी विवाद से जुड़े बगैर उन्होंने लेखन किया इसलिए भी उन्हें पाठकों में लोकप्रिय होने के बावजूद मान्यता मिलने में देरी लगी। मेहनत, लगन और समर्पण से उन्होंने हिन्दी साहित्य के आकाश में अपना जो स्थान बनाया वह आने वाली सदियों तक अमिट रहेगा। पत्रकार मित्र डाॅ. अर्पण जैन ने तो अपनी आदरांजली में स्व. पिताजी को ऐतिहासिक उपन्यासों का धु्रवतारा तक बताया तो सुप्रसिद्ध लेखक श्री उद्भ्रांत ने उन्हें वृन्दावनलाल वर्मा के बाद सबसे बड़ा ऐतिहासिक उपन्यासकार निरुपित किया।
अश्रुपूरित नमन…………
डॉ. सुशीम पगारे .इंदौर