कानून और न्याय:निजी संपत्ति को लेकर ऐतिहासिक फैसला जो मील का पत्थर बना!
– विनय झैलावत
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा कि सभी निजी संपत्तियों को संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) के तहत समुदाय के भौतिक संसाधन नहीं माना जा सकता। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति ऋषिकेश राॅय, न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना, न्यायमूर्ति सुधांषु धूलिया, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा, न्यायमूर्ति राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति सतीष चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जाॅर्ज मसीह की पीठ ने यह फैसला सुनाया।
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने नेतृत्व में अधिकांश न्यायाधीशों ने कहा कि हमारा मानना है कि किसी व्यक्ति के स्वामित्व वाले प्रत्येक संसाधन को केवल एक समुदाय का भौतिक संसाधन नहीं माना जा सकता। क्योंकि, यह भौतिक जरूरतों की योग्यता को पूरा करता है। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि निजी स्वामित्व वाली संपत्ति को समुदाय के भौतिक संसाधन के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए, इसे पहले कुछ परीक्षणों को पूरा करना होगा।
न्यायालय ने कहा कि विचाराधीन संसाधन के बारे में जांच अनुच्छेद 39 (बी) के तहत आती है। संसाधन की प्रकृति, विशेषताओं, समुदाय के कल्याण पर संसाधन के प्रभाव, संसाधन की कमी और ऐसे संसाधन के निजी खिलाड़ियों के हाथों में केंद्रित होने के परिणाम जैसे कारकों की एक गैर-विस्तृत सूची के अधीन होनी चाहिए। विकसित सार्वजनिक विश्वास सिद्धांत उन संसाधनों की पहचान करने में भी मदद कर सकता है जो एक समुदाय के भौतिक संसाधन के दायरे में आते हैं।
अपना फैसला पढ़ते हुए न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि उन्होंने कुछ मुद्दों पर सीजेआई के नेतृत्व वाले बहुमत से सहमति व्यक्त की। न्यायमूर्ति धूलिया के फैसले के जवाब में कुछ राय लिखी है। निजी स्वामित्व वाले भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण वितरण के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों में कैसे बदल जाता है जो आम भलाई के लिए सबसे अच्छा है। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि यही मेरे फैसले का सार है।
न्यायमूर्ति धूलिया ने अपनी असहमति में कहा कि यह देखना संसद का विशेषाधिकार है कि भौतिक संसाधनों को कैसे नियंत्रित और वितरित किया जाए। निजी स्वामित्व वाले संसाधन क्या और कब भौतिक संसाधनों की परिभाषा के भीतर आते हैं, यह इस न्यायालय को घोषित नहीं करना है। यह आवश्यक भी नहीं है। मुख्य कारक यह है कि क्या ऐसे संसाधन आम भलाई के लिए सहायक होंगे। स्पष्ट रूप से प्रत्येक निजी स्वामित्व वाले संसाधन का अधिग्रहण, स्वामित्व या यहां तक कि नियंत्रण भी आम भलाई को कम नहीं करेगा।
फिर भी इस स्तर पर हम क्या करें और क्या न करें की सूची नहीं बना सकते हैं। हमें इस कवायद को विधायिकाओं के विवेक पर छोड़ना चाहिए। वर्तमान मामले में संदर्भ सन् 1978 में शीर्ष अदालत द्वारा सड़क परिवहन सेवाओं के राष्ट्रीयकरण से संबंधित मामलों में लिए गए दो परस्पर विरोधी विचारों के संदर्भ में उत्पन्न हुआ था। नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 2 मई को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
यह मामला अनिवार्य रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 31 सी से संबंधित है, जो संविधान के खंड चार में निर्धारित राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) को सुरक्षित करने के लिए अधिनियमित कानूनों की रक्षा करता है। अनुच्छेद 31 सी को 1971 में संविधान के 25 वें संशोधन द्वारा अधिनियमित किया गया था। इसने अनुच्छेद 39 के खंड (बी) और (सी) में निर्दिष्ट डीपीएसपी को सुरक्षित करने का काम किया। 25 वें संशोधन को प्रसिद्ध केशवानंद भारती मामले में चुनौती दी गई थी। इसमें सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि संविधान की एक बुनियादी संरचना है जिसे संशोधनों के माध्यम से बदला नहीं जा सकता है।
अनुच्छेद 31 सी को बाद में आपातकाल के दौरान अधिनियमित संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संशोधित किया गया था। ताकि सभी डीपीएसपी को प्राथमिकता दी जा सके, न कि केवल अनुच्छेद 39 (बी) के तहत और 1980 में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने 42वें संशोधन के खंडों को निरस्त कर दिया, जिसने अनुच्छेद 31 में परिवर्तन को प्रभावी बनाया। उस फैसले के मद्देनजर, वर्तमान पीठ के समक्ष यह सवाल उठाया गया था कि क्या मिनर्वा मिल्स में न्यायालय ने केशवानंद भारती के बाद की स्थिति को बहाल किया या अनुच्छेद 31 सी को पूरी तरह से निरस्त कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ इस पर सहमत थी कि केशवानंद भारती द्वारा बरकरार रखा गया अनुच्छेद 31 सी लागू है। पीठ ने कहा कि हमारा मानना है कि केशवंद भारती में जिस हद तक अनुच्छेद 31 सी को बरकरार रखा गया है, वह लागू है और यह सर्वसम्मत है। न्यायालय ने समझाया कि जब कुछ पाठ को कुछ वैकल्पिक पाठ के साथ प्रतिस्थापित करने वाला संशोधन अमान्य हो जाता है, तो प्रभाव यह होता है कि असंशोधित पाठ लागू रहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे मामलों में निरसन और अधिनियमन का विधायी इरादा समग्र है और इसे अलग नहीं किया जा सकता है। अधिनियम के बजाय निरसन को प्रभावी बनाने के परिणामस्वरूप एक ऐसा परिणाम होगा जो विधायी परिणाम के साथ सह-संबंधित नहीं है।
क्या प्रकरण है मिनर्वा मिल का
मिनर्वा मिल बेंगलुरू शहर के पास स्थित एक कपड़ा मिल थी। वर्ष 1970 में, केंद्र सरकार ने मिनर्वा मिल्स के उत्पादन (प्रोडक्शन) में भारी गिरावट को देखते हुए इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एक्ट 1951 की धारा 15 के तहत एक कमेटी नियुक्त की। कमेटी ने अक्टूबर 1971 में केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजी। केंद्र सरकार ने नेशनल टेक्सटाइल कारपोरेशन लिमिटेड को अधिकृत (ऑथराइज) किया जो कि मिनर्वा मिल्स के प्रबंधन को संभालने के लिए इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एक्ट 1951 के तहत गठित एक बाॅडी थी।
संविधान के संशोधन 39वें में राष्ट्रीयकरण को 9 शेड्यूल में शामिल किया गया। यह न्यायिक पूर्नविलोकन के दायरे से बाहर था। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण में सुप्रीम शक्ति प्राप्त करने के लिए, पार्लियामेंट में संविधान में 42वां अमेंडमेंट पास किया गया था। इसमें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 4 के माध्यम से आर्टिकल 31 सी में संशोधन किया गया था। आगे, 42वें संविधान संषोधन अधिनियम, 1976 की धारा 55 ने आर्टिकल 368 में संशोधन किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिकाकर्ताओं ने धारा 5 (बी), 19 (3), 21, 25 और 27 (राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1974 की 2 अनुसूची के साथ पढ़ा जायेगा) की वैधता को चुनौती दी थी। 42वें संषोधन अधिनियम, 1976 की धारा 4 और 55 तथा मिनर्वा मील का राष्ट्रीयकरण करने के केंद्र सरकार के आदेष को चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अनुच्छेद 31 सी और 368 के तहत 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 और 55 के तहत किए गए सम्मिलन (इन्सर्शन) से मूल ढांचा सिद्धांत में बाधा आती है? क्या भारतीय संविधान के मूलभूत अधिकार पर राज्य की नीति में नीति निर्देशक की प्रधानता है?
याचिकाकर्ताओं की ओर से उनका प्रतिनिधित्व विख्यात अभिभाषक नानी पालकीवाला द्वारा किया गया था। वह जनता सरकार के एम्बेसडर भी थे। जल्द ही उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भारत लौटने की आवश्यकता महसूस हुई। इसलिए उन्होंने मिनर्वा मिल्स के पूर्व मालिकों की ओर से मामले में बहस की। संसद की संशोधन शक्तियां आर्टिकल 368 के तहत सीमित है। यह संशोधन संसद को संविधान का निर्माता बनने की अनुमति देगाा। केशवानंद भारती मामले में कोर्ट के फैसले ने उल्लेख किया कि संसद को संविधान के बेसिक फीचर को भंग करने का कोई अधिकार नहीं है। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत पर कानून पास करना, स्टेट का दायित्व था। लेकिन, इसे स्वीकृत तरीकों से किया जाना चाहिए।
यह मूलभूत अधिकारों को खत्म नहीं कर सकता है। 42वें संविधान संशोधन एक्ट, 1976 की धारा 55 के कारण किसी भी कोर्ट को संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन को पूर्णविलोकन की शक्ति नहीं होगी। इससे न्यायिक और संसद के बीच संतुलन बिगड़ जाएगा। मूलभूत अधिकार और नीति निर्देशक तत्व राज्य की नीति के बीच एक असंतुलन पैदा होगा। इसलिए एक मध्यम रास्ता निकालने की आवश्यकता है। सरकार द्वारा बनाए गए लगभग हर कानून किसी न किसी तरह से नीति निर्देशक तत्वों से जुड़े है। नीति निदेशक सिद्धांतों को बल देने से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और 14 का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा।
राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व अटाॅर्नी जनरल एलएन सिन्हा और एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के.के. वेणुगोपाल के द्वारा किया गया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 31 सी ने मूल ढांचे के सिद्धांत को मजबूत किया। नीति निदेशक सिद्धांतों ने मूलभूत अधिकारों के अभाव में लक्ष्य प्रदान किया। मूलभूत अधिकारों को होने वाली कोई भी क्षति, मूलभूत ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होगी। राज्य की नीति निदेशक नीति के तहत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पार्लियामेंट की शक्तियां सर्वोच्च होनी चाहिए।
इसकी संशोधन शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। शैक्षणिक रूचि से जुड़े मुद्दे पर कोर्ट का फैसला नहीं लेना चाहिए। सरकार राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया के माध्यम से कंपनी को ऋण जुटाने में सहायता कर रही थी। 31 जुलाई 1980 को, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि 42वें संषोधन अधिनियम, 1976 की धारा 4 और 55 असंवैधानिक है। धारा 5(बी), 19(3), 21, 25 और 27 (राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1974 के 2 अनुसूची के साथ पढ़ा जायेगा) की वैधता को चुनौती देने वाली रिट याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
विनय झैलावत
लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं