मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 38th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध लेखक, व्यंग्य कार, उपन्यासकार और कवि श्री हरि जोशी को. वे अपने बचपन से लेकर अपने नौकरी तक के सफ़र में पिता के अनुशासन, सिद्धांतों, संघर्षों को याद किये बिना नहीं रह सकते. वे अपने अभिभावकों से मिले संस्कारों को भी अपनी यात्रा में को-रिलेट करते हुए यह स्वीकारते हैं कि यह सब तो होना ही था.यह मेरे DNA के साथ मुझमें आया है. पढ़ने लिखने से लेकर स्वभावगत दबंगता भी कई बार पारिवारिक पृष्ठभूमि से आती है. जोशी जी ने बहुत सकारात्मक बात यह कही है कि माता-पिता जाते नहीं है वे हमारे अन्दर समाये होते हैं. उनके गुण हमारी नस नस में हैं. आइये पढ़ते हैं प्रतिष्ठित व्यंग कार की दिल छू लेने वाली मार्मिक भावांजलि ….
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिल-खिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,
काम में झंझा लरजता,
आज गीता पाठ करके,
दंड दो सौ साठ करके,
ख़ूब मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,
जब कि नीचे आए होंगे
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है.
38.In Memory of My Father-Shriram Joshi : मेरे पिताजी मेरे अंदर हमेशा जीवित हैं-हरि जोशी
हरि जोशी
A father always survives in the form of his children. एक पिता अपने बच्चों के रूप में हमेशा जीवित रहते हैं , इसलिये मैं उन्हें दिवंगत नहीं मानता.उनके गुण हमारी नस नस में हैं. मैं भी वैसा ही कर्मठ और ईमानदार था इसलिये मध्य प्रदेश शासन से लड़ पाया. मेरे पिता का जन्म ग्राम खूदिया में सन १९०२ में हुआ था , जहाँ हमारा भी हुआ था |बड़े भाई डॉ मूलाराम जोशी का जन्म भी १९३४ में उसी गाँव में और मेरा जन्म भी १९४३ में उसी गाँव में हुआ था |पिताजी का जीवन इतना सात्विक था कि वह ८३ वर्ष की उम्र तक कभी भी अस्पताल में दाखिल नहीं हुए. पहली बार और आखिरी बार वह किसी अस्पताल में भोपाल में दाखिल हुए और वहीं उनका निधन सितम्बर १९८५ में हुआ.एक भी दिन बिस्तर में पड़े नहीं रहे .
मेरी माँ भी गोरी ऊंची पूरी ५ फुट ८ इंच की बढ़िया स्वास्थ्य लिए थी.हम लोग बैलगाड़ी से अपने गाँव खूदिया से गोगिया जाते थे,वह अपने माता पिता की डाले परिवार की एक मात्र संतान थी. पिताजी गाँव के पटेल भी थे अतः ग्रामीणों के झगडे भी सुलझाया करते थे.ऐसी ही संगीत , पंचायत तथा बच्चों को बार बार आकर हरदा में देखने जैसी अन्य व्यस्तताओं के बीच माँ ही नौकरों चाकरों से सारा काम लेती थी. नियम से शाम को रामायण पढ़ती थी.
पिताजी तो बीडी सिगरेट तम्बाकू यहाँ तक कि चाय का भी सेवन नहीं करते थे.मात्र लौंग इलायची खाते थे.हमारे गाँव में जो ड्राइंग रूम है , वह उस समय के चूने और सीमेंट का बना हुआ पक्का और काफी बड़ा है ,२०० लोग एक साथ उसमें बैठ सकते हैं , जिसे पिताजी के बड़े भाई इंजीनियर रामकरण जोशी जी ने बनवाया था. उस ड्राइंग रूम को आज भी बँगला कहा जाता है. उसमें हारमोनियम ढोलक ,तबले , बांसुरी , मंजीरे रखे होते थे , आज भी यथावत हैं .तब भी शाम को संगीत सभा जुटती थी ,आज भी कभी कभी जुट जाती है. हम लोगों में संगीत के जो थोड़े बहुत लक्षण हैं वे बचपन के संस्कारों की ही देन है .हमारी पैतृक खेती १०५ एकड़ थी. पिता जी के सबसे बड़े भाई डॉक्टर एन जी जोशी थे जो धार के प्रसिद्ध डॉक्टर दुबे के सहपाठी थे , और उन्होंने भी तत्कालीन LMP डिग्री हासिल की थी. बाद में वह नागपुर के शासकीय अस्पताल के जेल प्रभारी होकर रिटायर्ड हुए.उनके काल में पट्टाभिसीता रमैया वहां थे.
हमारे पिताजी श्रीराम जोशी जी ने ग्वालियर में बड़े भाई केशोराम गोविन्दराम जोशी जी के पास रहकर कई वर्ष तक पढाई की. वहां इन्होंने प्रसिद्ध संगीतकार लक्ष्मण शंकर राव पंडित से संगीत की शिक्षा ली. किन्तु सात भाइयों में वह सबसे छोटे थे , और उन्हें वृद्धावस्था के चलते हमारे दादा जी गोविन्दराम जोशी जी ने हाई स्कूल की पढ़ाई छुड़वाकर पिताजी को गाँव खुदिया बुला लिया ,ताकि वह १०५ एकड़ ज़मीन संभाल सकें.
पढाई लिखायी की परंपरा हमारे परिवार में पुरानी है.ग्वालियर में सिंधिया सरकार के सचिवालय में नियुक्त केशोराम गोविन्दराम जोशी जी ने दो पुस्तकें लिखी (१) अहिल्याबाई का चरित्र तथा (२)माधव सुमनांजलि.उनके पुत्र मधु जोशी “प्रदीप “जो वीरेन्द्र मिश्र, मुकुट बिहारी “ सरोज “के समसामयिक और मित्र थे |उन्होंने भी दो पुस्तकें लिखी थी जिनमें एक किताब “ पथ के प्रदीप “ थी.बड़े भाई डॉक्टर मूलाराम जोशी ने तो अनेक पुस्तकें लिखी , और अनेक सम्मानों से विभूषित हुए.उन्होंने अंग्रेज़ी में D litt किया था. उनका जीवन भी बहुत संघर्षपूर्ण और प्रेरक रहा. यह सब पारिवारिक संस्कारों के कारण संभव हुआ.
एक परंपरा और हमारे परिवार में थी |पिताजी के एक भाई साधु हो गए थे , जो धूनीवाले दादा के साथ केशवानंद महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए |मेरा छोटा भाई दया शंकर जिसने पूरा अध्ययन मेरे पास रहते हुए किया. उसने डिप्लोमा इन फारमेसी किया.केंद्र सरकार में अच्छी नौकरी में था , दिल्ली में रहा ,२० साल की नौकरी पूरी की , वह अविवाहित ही रहा क्योंकि उसे भी साधु बनना था. वह ऋषिकेश में स्वामी ब्रह्म स्वरूपानंद के नाम से विख्यात हुआ. गत वर्ष उसका परलोक गमन हो गया.
मैं अमेरिका , मुंबई ,दिल्ली भोपाल सब जगह रहता हूँ किन्तु मुझे जिस सुख की अनुभूति अपने गाँव खूदिया में होती है वैसी अनुभूति और कहीं नहीं होती. वहां भी आजकल साथ में लैपटॉप होता है , प्रति सुबह कुछ न कुछ लिख ही लेता हूँ.लेखन मुझे भी सुख देता है , मैं कहीं भी रहूँ.हमारा गाँव खुदिया टेकरी पर बसा हुआ है जिसका एक लाभ तो यह है कि नदी में कितनी भी बाढ़ आ जाये वह गांव में नहीं घुसती ,किंतु एक हानि यह थी कि कुएं तलहटी में थे जहां से पानी लाना पड़ता था । पहले तो माँ ही लाती थी. इस फिर बैलगाड़ी पर कोठी यानी ड्रम बांधकर लाया जाता था आजकल कुएं की मोटर चलाने से पानी आ जाता है । नल तो आज भी नहीं हैं ।
एक अत्यंत मार्मिक प्रसंग याद आया मेरे बचपन का ,चलिए पहले वही सुनाता हूँ । बात सन 1950 की है। हम चार भाइयों और एक बहिन यानी उमा उपाध्याय , को हरदा में पढ़ने के लिए 2 रुपये किराये के मकान में रखा था। मैं दूसरी हिंदी में था। पढ़ने की सामग्री में स्लेट और लिखने की.पैम ही होती थी। उमा बाई मुझसे 2 वर्ष बड़ी हैं । मैंने अन्य बच्चों के पास पेंसिल भी देखी मैंने बड़ी बहिन से कहा ” आपके पास की पेंसिल मुझे दे दो ” उन्होंने नहीँ दी। मैंने सोचा जब ये मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं तो मैं पढ़कर क्या करूँ गा और मैं सितंबर के महीने में हरदा से अपने गांव खुदिया भाग गया।जब शाम तक मैं हरदा में घर नहीं पहुंचा तो हडकंप मच गया। छोटा सा 7 वर्ष का बच्चा कहाँ गया? मैं 20 मील कीचड़ नदियां पार करते हुए घर पहुंच गया। पिताजी बाहर के दालान में झूले पर झूलते रहते थे, मां भी नीचे दरी पर बैठी हुई थीं। पिताजी ने देखा “अरे हरि कैसे अकेला आ गया। ” मुझसे पूछा गया मैं कैसे आ गया? मैंने कहा _ उमा बाई ने मुझे पेंसिल तक नहीँ दी ” अब मुझे नहीँ पढ़ना । ” और मेरी वह पिटाई हुई है जिसकी कल्पना करना मुश्किल है. चांटे मुक्के खूब पड़े.
उस समय वह गांव के पटेल थे।तत्काल कोटवार को बुलाया और मेरे सामने कहा” इसे नंगे पांव इसी समय हरदा ले जाओ “उसे एक तरफ चूपके से बुलाकर यह भी कहा कि मुझसे कबूला लेे कि फिर भागकर नहीं आयेगा, और पास के खेत से वापिस आना, फिर सुबह हरदा ले जाना। और वैसा ही हुआ। धन जी कोट वार मुझे बाडी खेत तक ले गया ” पूछा भैया अब तो भागकर नहीं आओगे। यदि कहते हो तो आज घर में सो लो सुबह हरदा चल देंगे। ममतामय मां ने गर्म. पानी में पाँव डाले। पाँव के दो तीन कांटे निकाले। भोजन. कराया, ।रात भार सोकर फिर सुबह वैसे ही नंगे पांव हरदा यानी 20 मील का सफर तय किया। तब हरदा में भी सब की जान में जान आयीं बहुत खराब आर्थिक स्थितियों से तब जूझना पड़ता था।
यह जो मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह हैं , इनके दादा टोडर शाह मकडाई स्टेट के राजा थे. उनके बेटे देवी शाह और उनके बेटे हैं विजय शाह |राजा टोडर शाह का महल हमारे घर से ३०० मीटर की दूरी पर है.राजा के बाद गाँव में सबसे अधिक ज़मीन हमारी थी |पिताजी और राजा टोडर शाह को अनेक अवसरों पर विचार विमर्श करते मैंने देखा था.
पिताजी ने हम लोगों को ईमानदारी से जीवन यापन करने की सीख हमेशा दी.इसी कारण हम लोग जीवन में व्यवस्थित और शांति से जिए.
पिताजी को ज्योतिष का ज्ञान था। उन्होंने मेरी जन्म कुंडली में केंद्र में गुरु होने पर कहा था, जिस पत्रिका के केंद्र में बृहस्पति हो उसका दुश्मन भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता, और देखिये सरकार ने लेखन के कारण ही मुझे सेवा से निलंबित किया, मान हानि का दावा चलाया, चेतावनियों दी, बार बार तबादले किये किन्तु मेरा कुछ न बिगाड़ सके ।मुझे हर बार लड़ना तो पड़ा लेकिन जीत हासिल हुई . 1982 में जब दैनिक भास्कर में प्रकाशित रचना ” रिहर्सल ज़ारी है ” पर मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह ने मुझे शासकीय सेवा से निलंबित किया फिर 3 नवंबर 82को अविश्वास प्रस्ताव में सुन्दर लाल पटवा ने विधान सभा में मुख्यमंत्री को इसी विषय पर फटकार लगाई तो मुख्यमंत्री निरुत्तर थे। बाद में शासन को निलंबन वापिस भी लेना पड़ा । पिताजी को मुझपर गर्व इसी बात का था कि ” मैंने रिश्वत थोड़े ही खायी थी? मैंने एक रचना ही तो लिखी थी ?
अपने सीमित साधनों में संतोष करना , और किसी अच्छे लक्ष्य को लेकर निरंतर कर्मठ बने रहना , पिताजी का ही दिया हुआ मूल मन्त्र है |
मेरे परिवार में अनुशासन इतना कड़ा था कि मैं कॉलेज में व्याख्याता था, और मेरे पिताजी ने धार में मेरे लिए स्वयं ही अकेले जाकर परिवार देखा, कन्या देखी, नारायण राव ज्योतिषी जी से कुंडलियों का मिलान कराया और विवाह सुनिश्चित कर दिया । मुझे विवाह से पहले अपनी पत्नी को देखने की अनुमति नहीं थी। पिताजी के आदेश का पालन यथावत हुआ।
पिताजी का जीवन अत्यंत सात्विक था। वह बहुत अच्छे तैराक भी थे। 83 की उम्र में सन 1985 में रक्षा बंधन के दिन गांव की नदी में वह सब के साथ तैरने चले गए । भरपूर पानी था। ठंडा भी। देर तक नहाते रहे। वहाँ निमोनिया ने पकड़ लिया, बीमार हुए। भोपाल के निरामय अस्पताल. में दाखिल हुए और अगले दिन ही उनका स्वर्गवास हो गया। मेरी पोस्टिंग उज्जैन के शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज में थी। मैं भी समय से पहुंच गया था, उनसे अच्छी बात भी की किन्तु अगले दिन वह दिवंगत हो गये। लेकिन पिता मेरे अन्दर ज़िंदा हैं .
हरि जोशी
हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध लेखक, व्यंग्य कार, उपन्यासकार और कवि हैं जो अपने तीखे व्यंग्य के लिए जाने जाते हैं. सेवानिवृत्त प्राध्यापक, मेकैनिकल इंजीनियरिंग, शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, उज्जैन से मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (MANIT) से रेफ्रिजरेशन में पीएचडी .
व्यंग लेखन और हरी जोशी का एक अत्यंत उल्लेखनीय प्रसंग भी चर्चित रहा जब 1982 में, डॉ. हरि जोशी को 17 सितंबर 1982 को राष्ट्रीय दैनिक दैनिक भास्कर के प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र “आह और वाह” में एक व्यंग्यपूर्ण लेख रिहर्सल जय हो ”लिखने के लिए सरकारी रोजगार से निलंबित कर दिया गया था। डॉ. जोशी के समर्थन में पत्रकार सामने आए। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, धर्मयुग, दिनमान, रविवार जैसे प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों में दैनिक भास्कर ने डॉ. जोशी के अधिकारों का समर्थन करते हुए बोलने की स्वतंत्रता के पक्ष में लेख लिखे.4 अक्टूबर 1982 को, तत्कालीन राज्य विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष सुंदरलाल पटवा ने सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव में इस मुद्दे को उठाया। कुछ महीने बाद हरि जोशी को सरकारी नौकरी में बहाल कर दिया गया।
अब तक ३५ से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित ,सतत लेखन में सक्रीय
32 .In Memory of My Father : सेंचुरी बनाने से चूक गए पापा-सुधा अरोड़ा