मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की43rd किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है 34 वर्ष स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में सर्विस के बाद स्वेच्छा से सेवानिवृति le chuki श्रद्धा जलज घाटे .
प्यार लो विद्यार्थियों मेरे…..
मैं बहुत मजबूत रखूंगा
स्वयं के ज्ञान के कंधे
कि इन पर बैठकर
तुम देख पाओ दूर तक
आओ
कि यह जो बहुत सा कीचड़
यहां पर जम गया है
मैं यहां पाषाण सा उभरू
पांव रखकर
तुम सुरक्षित निकल जाओ।
43.In Memory of My Father:Dr. Jaykumar Jalaj- बिरले शिक्षाविद् जिन्होंने कॉलेज के प्राचार्य होकर भी 11 वर्ष तक नियमित क्लासेस ली !
डॉक्टर जयकुमार जलज : मेरे पिता मेरे आदर्श
ललितपुर (उ.प्र.)में सन 1934 में जन्में मेरे पूज्य पिताजी डॉ. जयकुमार जलज जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। आप एक कर्त्तव्यपरायण पुत्र, अपने गुरुजनों के प्रिय छात्र, उत्कृष्ट प्राध्यापक, कुशल प्राचार्य, प्रख्यात भाषाविद्, संवेदनशील कवि, गंभीर लेखक होने साथ ही, एक अच्छे इंसान और परम स्नेही पिता भी थे।
उन्होंने जीवन पर्यंत अपने माता-पिता का ध्यान रखा। अपने छोटे भाई-बहनों को अपने पास रखकर पढ़ाया-लिखाया और उचित मार्गदर्शन दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए जहाँ डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. धीरेंद्र वर्मा, आचार्य नंददुलारे वाजपेई जी के प्रिय शिष्य रहे, वहीं अपने अध्यापन-काल में अपने पास के संपूर्ण ज्ञान से विद्यार्थियों को सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचाना चाहा। इतना भर ही नहीं अपने प्राचार्यत्व काल के 11 वर्षों में भी नियमित रूप से कक्षाएँ लेते रहे। अपनी सूझ-बूझ, दृढ़ इच्छा-शक्ति, निष्पक्ष निर्णायक क्षमता के बलबूते पर रतलाम जैसे जटिल महाविद्यालय के 11 वर्ष तक सफलतापूर्वक बेदाग प्राचार्य पद पर पदस्थ रहे। साथ ही, भाषाविज्ञान जैसा कठिन विषय सेवानिवृत्ति तक पढ़ाते रहे और इस पर उन्होंने पुस्तक भी लिखी । विभागाध्यक्ष और प्राचार्य रहते हुए कर्त्तव्य निर्वाह में कई बार तनाव भी आए होंगे, पर उन्हें कभी घर लेकर नहीं आए।
पिताजी उच्च शिक्षा विभाग में सतना,रीवा, बरेली, सीहोर और अंत में हिंदी के विभागाध्यक्ष बनकर रतलाम कॉलेज आए और रतलाम में ही प्राचार्य पद से सेवानिवृत हुए।फिर यही उनकी कर्मभूमि बन गई।
आज भी उनकी कविताएँ पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। महाविद्यालय के छात्रों द्वारा सस्वर गाई जाती रही हैं। उनका लिखा हुआ गीत ‘रौशनी उगाने का, एक जतन और, अभी एक जतन और’ कभी नुक्कड़ नाटकों में गाया जाता रहा है। उनके द्वारा 12 पुस्तकें लिखी गई हैं। ‘भगवान महावीर का बुनियादी चिंतन’ पुस्तक की अभी तक लगभग सवा लाख प्रतियाँ बिक चुकी हैं तथा उसका 10 भाषाओं में अनुवाद होकर प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त जैन धर्म की 8 से अधिक पुस्तकों का उन्होंने प्राकृत,संस्कृत,अपभ्रंश से हिंदी में प्रामाणिक अनुवाद किया
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उम्र के 15 वें वर्ष में आपने All India Radio Lucknow द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता (जिसके सुमित्रा नंदन पंत जी और हरिवंशराय बच्चन जी जज थे) में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। उनके खाते में अनेक पुरस्कार दर्ज हैं।म. प्र .शासन का कामता प्रसाद गुरु पुरस्कार 1967, ध्वनि और ध्वनिग्राम शास्त्र पुस्तक पर।
म.प्र. शासन का अखिल भारतीय विश्वनाथ पुरस्कार 1967, तुम कहां से आए, बाल विज्ञान पुस्तक पर हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की साहित्य सारस्वत उपाधि 1998, म.प्र.शासन का भोज पुरस्कार 1987, संस्कृत और हिंदी नाटक रचना एवं रंगकर्म पुस्तक पर, म.प्र.लेखक संघ का सर्वोच्च अलंकरण अक्षय आदित्य 2006, अ.भा.बुंदेलखंड साहित्य /संस्कृति परिषद भोपाल का राष्ट्रीय छत्रसाल पुरस्कार 2013, मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर का शताब्दी सम्मान 2017,
जलेस रतलाम का दानिश अलीगढ़ी सम्मान 2022।
आपको इलाहाबाद विश्वविद्यालय में M.A हिंदी का gold medal मिला तथा इलाहाबाद में रहते हुए उन्हें निरालाजी और महादेवी वर्मा जी को अपनी कविताएँ सुनाने का सुख मिला था। रतलाम की अनेक शैक्षणिक संस्थाओं ने उन्हें अध्यक्ष मनोनीत किया था। पश्चिम रेलवे उपभोक्ता समिति में वे महाप्रबंधक द्वारा नामित प्रतिनिधि थे। रोटरी क्लब रतलाम के मानद सदस्य रहे थे।
पिताजी स्वभाव से अपरिग्रही, उदार, संवेदनशील और धार्मिक थे, पर उनकी धार्मिकता कर्मकांडी की तरह निर्जीव धार्मिकता नहीं थी। वह जीवंत, सक्रिय और सकारात्मक जीवन-मूल्यों की धार्मिकता थी। वे बहुत ही सह्रदय और क्षमाशील थे। मैंने उन्हें कभी गुस्सा करते हुए नहीं देखा।
यह उन दिनों की बात है जब हमारे स्नेही पिता की पोस्टिंग रीवा में थी। हम लोग रीवा से दादी जी के घर ललितपुर जा रहे थे। पर रास्ते में ही मां को दिक्कत हुई, तो पिताजी को सतना में एक अस्पताल के सामने बस रुकवानी पड़ी और वहाँ मेरी छोटी बहन स्मिता का जन्म हुआ। 2-3 दिन बाद हम लोग वापिस रीवा लौट आए। हमारे बड़े होने पर पिताजी ने बताया कि मुश्किल की घड़ी में उन्होंने अकेले ही हम सबको सँभाला। जब मैं मात्र 1 वर्ष 2 माह की थी तब लगातार कई दिनों तक मुझे गोद में उठाकर रखा। उनके हाथ में दर्द रहने लगा था जो बाद में लंबे समय तक बना रहा। पिताजी घर पर हमें हिंदी, इंग्लिश और भूगोल पढ़ाते थे। चार्ट बनाकर टेंस समझाया करते थे। भूगोल एटलस से पढ़ाते थे। मुझे साइकिल सिखाते समय शुरू में मेरी साइकिल के साथ दौड़ते थे। कॉलेज की परीक्षाओं के वक्त मुझे बहुत घबराहट होती थी तब पिताजी मुझे होम्योपैथिक दवाई लाकर देते थे।
बैंक की लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब मेरा मौखिक साक्षात्कार हुआ, तो मुझसे पहला प्रश्न यह पूछा गया था कि आपका जलज सरनेम क्यों है ? मैंने कहा मेरे प्रोफेसर पिता साहित्यकार है, कविताएँ लिखते हैं और यह उनका पेन नाम है। साक्षात्कार की पैनल वालों ने जब मुझे पिताजी की कविताएँ सुनाने को कहा तो मैंने उनको दो कविताएँ सुनाई। आज भी मुझे भलीभाँति याद है। तब कैसे मेरा आत्मविश्वास एकदम बढ़ गया था। इसी तरह सन् 2004 की बात है। मेरी बड़ी बेटी श्रुति पीएमटी देने वाली थी। उन दिनों व्यापम में सेंध मारी की बातें सुनने में आ रही थीं। पिताजी ने तत्काल इस गड़बड़ झाले के बारे में नई दुनिया समाचार पत्र में संपादक के नाम, पत्र लिखा जो उसमें प्रकाशित भी हुआ था। उसकी दो-तीन पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं। ‘कोई माँ अचानक हड़बड़ा कर उठती है ।देखा 4 बज गए पर बच्ची के कमरे में बत्ती जल रही है। बच्ची से पूछा तो वह बोली- माँ सोचा इसे पूरा कर लूँ। बस! 10 मिनट में सोती हूँ। इन्हें क्या पता कि किताबों पर झुकी आंखों के सपनों को चांदी की दीवार के नीचे दफन किया जा सकता है”। खैर, व्यापम सतर्क हुआ। परीक्षा सही तरीके से संपन्न हुई और मेरी दोनों ही बेटियों ने प्रथम प्रयास में government medical College से MBBS और MD किया।
जब भी मैं और मेरे पति डॉक्टर पदम घाटे, पिताजी के घर के आस-पास के किसी विवाह समारोह में जाते थे, तो डॉक्टर घाटे कहते थे कि रास्ते में माँ-पिताजी का घर पड़ता है, उनसे भी मिल लेते हैं। मैं जल्दी से अपने गले और कान के सेट उतार लेती थी और मुंह पर रुमाल घुमा लेती थी क्योंकि पिताजी के सामने मैं एकदम सादा रहने में ही सहज रह पाती थी।
हमें पिताजी से बात करना बहुत अच्छा लगता था। उनके अनुभव, समझ, बहुग्यता, साहित्य, समय और समाज को समझने का उनका नजरिया, उनकी स्पष्ट और दुलारती आवाज से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता था। गायक हरिहरन जी की गाई गजल जिसकी लिंक उन्होंने मुझे देहांत के कुछ माह पहले ही भेजी थी। पिताजी को बहुत पसंद थी-
जब कभी बोलना, वक्त पर बोलना,
मुद्दतों सोचना, मुख्तसर बोलना।
पिताजी ने बहुत अपरिग्रही, सात्विक, संयमित, अनुशासित, नियमित, व्यवस्थित जीवन जिया। जमीन और सोने की बढ़ती कीमत और महंगी कारों की बातों में उनकी कभी रुचि नहीं रही। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के अलावा उन्होंने कोई चाहना नहीं की। उनके घर की अलमारियों में, पेटियों में, सूटकेसों में किताबें ही किताबें रहती थीं।
जब भी हम उनसे पूछते थे, पापा खाने में क्या बना लें? तो वह कहते थे जो सरलता से बन जाए। कभी कोई आग्रह नहीं, कोई फरमाइश नहीं। कॉलेज में अपने प्राचार्य काल में प्रतिदिन दूध-रोटी घर से ले जाते थे। अगर कभी किसी के हाथ से कांच का कीमती बर्तन गिरकर टूट जाए, तो सिर्फ यही कहते थे कहीं लगी, तो नहीं।
आपका अध्ययन बहुत गहन और विस्तृत था। सुबह के समय दो-तीन अखबार पढ़ते थे, लिखते थे। फिर दिन में पत्र-पत्रिकाएँ पुस्तक पढ़ना-लिखना और बीच-बीच में कभी-कभार मोबाइल देख लिया करते थे। शाम के समय टीवी पर समाचार देखना उनका नित्य-कर्म था। उनके साथी और विद्यार्थी अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे। बातचीत के दौरान निश्चल ठहाके लगाना वे ढूंढ ही लेते थे।
वे हमेशा योजना बनाकर कार्य करते थे। अपनी घड़ी, चाबी, पर्स, रुमाल, अंगूठी हमेशा नियत जगह पर रखते थे। मैंने उन्हें कभी किसी चीज को ढूंढते हुए नहीं देखा। उनका हर कार्य व्यवस्थित होता था। टेबल-कुर्सी पर बैठकर लिखते थे। नीचे ऑल आउट जलती रहती थी। पर विगत कुछ वर्षों से बिस्तर पर तकिए के सहारे लिखते थे। सिरहाने पानी का जग रहता था। उनकी दिनचर्या सुबह 4:00 के आसपास शुरू हो जाती थी। मां को रात में जल्दी नींद नहीं आती थी, तो वह बहुत बार शिकायती लहजे में कहती थी तुम्हारे पापा 4:00 बजे से उठकर खटर-पटर शुरू कर देते हैं। मां उनके लिए बहुत चिंतित रहती थीं। माँ की हर शिकायत पर उनका एक ही जवाब होता था, मंद-मंद मुस्कुराना ।
पुराने विद्यार्थियों को देखकर उनकी आंखों में स्नेह उमड़ आता था। अपने से जुड़े हर व्यक्ति से बडे़ ही सहज और आत्मीय भाव से मिला करते थे। उनकी अभिभावक की तरह चिंता करते थे। कमजोर और अभावग्रस्तों की समस्या दूर करने में जुट जाते थे। वे चाहते थे कि हर महिला शिक्षित और आत्मनिर्भर बने। रतलाम के हर वर्ग के लोगों में उनके प्रति अपार सम्मान था। उन्होंने जीवन-मूल्यों को व्यावहारिक धरातल पर जिया। जैन धर्म में वर्णित विद्यादान, आहार दान, औषधि दान का अनुपालन करते हुए यथासंभव दान दिए।
पिता जी बगीचे में बहुत समय बिताया करते थे। किस पौधे में नया फूल आया है। उन्हें उसका ध्यान रहता था। मेरी बेटियों श्रुति व तन्वी को मोगरे के फूल देकर कहते थे, इन्हें अपनी पढ़ाई की मेज पर रखना। उनकी खुद की मेज पर भी मोगरे के कुछ फूल हमेशा रहते थे। बगीचे से हमें पान के पत्ते और तुलसी के पत्ते खाने के लिए देते थे। एक गाय भी हमारे घर नियत समय पर आकर गेट को बजाती थी। पिताजी उसे रोटी, फलों और सब्जी के छिलके एक तगारी में रखकर खिलाते थे।
मुझे इस बात का संतोष है कि उनके अंतिम 2 माह के समय में मेरी छोटी बहिन उनके साथ एक माह से अधिक रही। अस्पताल जाने के पहले शाम को पिता जी, मैं और स्मिता माँ के घर गए थे। उन्होंने पड़ोस की जिया बिटिया को आशीर्वाद स्वरूप हाथ में कुछ राशि और उसके दादा जी को रामचरितमानस दी थी। एक जरूरतमंद परिचित को अपना कम्प्यूटर दिया था और हम कुछ पुस्तकें अपने साथ लेकर आए थे।
पिताजी ने जीवन में हमें सही और गलत के बीच अंतर करना सिखाया। चुनौती पूर्ण समय में साहस और धैर्य रखना सिखाया। जीवन की प्राथमिकताओं को समझाया। जीवन-मूल्य और संस्कार सिखाए। पिताजी आपकी स्मृति हमें दिन में अनेक बार आती है। मेरे जल्दी-जल्दी चलने पर अब कोई कहने वाला नहीं है कि “आराम से, बेटा आराम से…!’’
आपकी टेलीफोन डायरेक्टरी के प्रथम पृष्ठ पर मंदिर दर्शन के बाद सीढ़ियों पर बोले जाने वाला श्लोक लिखा था-
‘अनायासेन मरणम ,बिना दैनयम जीवनम।
अंते चरण सानिध्यम देहि त्रिशला नंदनम॥’
पापा को इहलोक से अपनी अंतिम विदाई भी कुछ इसी विचारधारा के अनुसार 15फरवरी 2024 को ली। बिना किसी को कोई कष्ट दिए अचानक चले गए। आपने देहदान के फॉर्म भरे थे, पर डॉक्टर घाटे इसके लिए सहमत नहीं हो पा रहे थे। आपने सन् 2019 में ही एक कागज पर लिख अपने आधार कार्ड के साथ लगाकर रख दिया था- ‘मैंने शांति से जीवन जिया है। शांति से ही मुझे ले जाया जाए। शव को वाहन से ले जाया जाए। कोई मृत्यु भोज या देहरी न छुड़ाई जाए। मेरी मृत्यु पर कोई आँसू न बहाए।’ (पर भला पापा! क्या कभी ऐसा हो पाता है।) कॉलोनी वालों ने शव-वाहन लेने को स्पष्ट मना कर दिया। पापा! आप और माँ एक जस एक प्राण की तरह 64 वर्ष रहे, पर माँ के बगैर 64 दिन भी नहीं रह सके।
उम्र के 90 वें वर्ष में अपनी जीवनसंगिनी( मेरी मां) को खोने के बाद उनकी अंतिम कविता की कुछ पंक्तियां हैं जो रह रह कर दिमाग में आती रहती हैं ,कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है ,पर था उनका हम साक्षी हैं .
नयन थे मेरे ,निरंतर देखती तुम थीं
पांव थे मेरे मगर बस तुम्हीं चलतीं थीं
जब मुझे कुछ सूझ पड़ता था नहीं
तुम दिए की तरह से निष्कम्प जलती थीं
हे विधाता! क्या किया तुमने कहो
ले गए तुम तोड़ हर विश्वास को।
आपके गुरु डॉ. रामकुमार वर्मा ने आपको आशीर्वाद दिया था । “चाहता हूँ, तुम्हारा जीवन फूल की तरह खिले और सुगंध की तरह संसार में समा जाए।” सचमुच आपने ऐसा ही जीवन जिया।
पिताजी आप और आपकी रचनाएँ हमारे मन-मस्तिष्क में हमेशा जीवित रहेंगी। आप जैसे पुण्यात्मा की बेटी होना हमारे लिए सचमुच सौभाग्य और गर्व की बात है। आपके शानदार जीवन की स्मृतियाँ ही अब हमारे जीवन का पाथेय हैं। आपकी स्मृति को हम सभी की ओर से सादर शत-शत नमन…!
श्रद्धा जलज घाटे
w/o डॉक्टर पदम घाटे
अरिहंत पैथोलॉजी लैब
15 वेद व्यास कॉलोनी
रतलाम (म. प्र.)
मोबाइल नंबर 9425103802
18.In Memory of My Father :BHU में 1941 में जब डॉ राधाकृष्णन् की मदद से पिताजी का वजीफा 3 रुपए बढ़ा!
38.In Memory of My Father-Shriram Joshi: मेरे पिताजी मेरे अंदर हमेशा जीवित हैं-हरि जोशी