एक तो कड़ाके की ठंड, उस पर सियासी पारा हाई। ऐसे में, उप्र के मुख्यमंत्री और गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ पांच-पांच इतिहास रचने की दहलीज पर खड़े हैं।
एक तो कड़ाके की ठंड, उस पर सियासी पारा हाई। छोटी बहू अपर्णा यादव ने परिवार की राजनीति को टाटा-बॉय-बॉय किया तो अब सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव के साढ़ू और औरैया के विधूना से विधायक रहे प्रमोद कुमार गुप्ता ने धमाका कर दिया।
उन्होंने आरोप लगाया कि मुलायम को उनके घर में ही कैद करके रखा गया है। गुप्ता ने यह भी कहा कि पार्टी में न मुलायम सिंह यादव का सम्मान बचा है, न अखिलेश के चाचा शिवपाल का।
अगले ही दिन वे भाजपा में शामिल भी हो गए। वहीं, उप्र के मुख्यमंत्री और गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ पांच-पांच इतिहास रचने की दहलीज पर खड़े हैं। तो, अखिलेश यादव ने भी पहली बार सपा की पारंपरिक सीट मैनपुरी की करहल विधानसभा से चुनाव लड़ने का एलान किया है।
पहले थोड़ी सी बात, हाड़ कंपाऊ सर्दी की। हालत ये हो गई कि दिन में कानपुर शिमला से भी ठंडा हो गया तो, लखनऊ देहरादून से ज्यादा ठंडा।
मंगलवार को लखनऊ में अधिकतम तापमान 14 डिग्री सेल्सियस तो देहरादून में 17 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड हुआ, जो 2013 के बाद अपने न्यूनतम स्तर पर था। कानपुर का अधिकतम तापमान एक झटके में 5 डिग्री सेल्सियस गिर कर 11.6 डिग्री रिकॉर्ड किया गया, जबकि शिमला में 12 डिग्री सेल्सियस। हालात में कुछ खास बदलाव नहीं। शुक्रवार से शीतलहर में और इजाफे के संकेत हैं।
मौसम विभाग ने दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश समेत उत्तर भारत के बड़े हिस्से में शुक्रवार से अगले तीन दिन तक बारिश होने की संभावना जताई है। 23 जनवरी तक पहाड़ों पर बारिश और बर्फबारी का अनुमान है। इसलिए, जनवरी माह में भीषण ठंड का दौर निरंतर जारी रहेगा।
अब बात चुनावी सरगर्मी और सियासी गर्मी की। स्वामी प्रसाद मौर्य सहित तीन मंत्रियों और अनेक विधायकों के इस्तीफे तथा साइकिल की सवारी से सपा ने जो जातिगत सियासी बढ़त लेने की कोशिश की थी, उसकी हवा फिलहाल निकल चुकी है।
पहले सीएम योगी के गोरखपुर और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के सिराथू से ताल ठोकने की घोषणा, फिर मुलायम परिवार-परिजनों में ही भाजपा की सेंधमारी। मुलायम सिंह यादव के रिश्ते में समधी हरिओम यादव पहले ही कमल थाम चुके थे।
योगी आदित्यनाथ या केशव मौर्य के लिए फिलहाल चुनाव लड़ना जरूरी नहीं था। दोनों ही सितंबर, 2017 में विधान परिषद सदस्य के रूप में निर्विरोध चुने गए थे और दोनों का ही कार्यकाल 6 जुलाई 2022 तक है।
योगी 1998 से लेकर मार्च 2017 तक गोरखपुर से सांसद रहे और हर बार उनकी जीत का आंकड़ा बढ़ता ही गया। गोरखपुर शहर से योगी आदित्यनाथ और सिराथू से केशव प्रसाद मौर्य की उम्मीदवारी की घोषणा ने पूर्वांचल की 165 विधानसभा सीटों पर विपक्षी दलों की जाति की राजनीति पर पानी फेर दिया है।
गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़, वाराणसी, श्रावस्ती और प्रयागराज तक फैली इन विधानसभा सीटों से होकर ही प्रदेश की सत्ता का रास्ता खुलता है।
वर्ष 2007 में बसपा ने इन 165 सीटों में से 97 सीटें जीत कर सरकार बनाई थी, जबकि 2012 में सपा 99 सीटें अपनी मुट्ठी में करके सत्ता का ताज पा सकी थी।
2017 में तो भाजपा ने 115 सीटों पर जीत का परचम लहरा दिया था और प्रचंड बहुमत से सत्ता की बागडोर छीन ली थी। मुख्यमंत्री पद पर तत्कालीन सांसद और गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी हुई।
योगी आदित्यनाथ जिस गोरक्षपीठ का नेतृत्व करते हैं उसका राजनीति से बहुत पुराना संबंध रहा है।
सन् 1967 में इस पीठ के तत्कालीन पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ हिन्दू महासभा के टिकट पर सांसद बने थे। उनके उत्तराधिकारी और श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के अग्रणी नेता महंत अवेद्यनाथ वर्ष 1962, 1967, 1974 और 1977 में मानीराम विधानसभा सीट से विधायक चुने गए।
उन्होंने वर्ष 1970,1989,1991 और 1996 में लोकसभा में गोरखपुर का प्रतिनिधित्व किया। 1998 में महंत अवेद्यनाथ ने राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी थी।
उनके बाद योगी आदित्यनाथ विरासत में मिली परंपरा को निभाते हुए सिर्फ 26 साल की उम्र में 12वीं लोकसभा के लिए सांसद चुने गए। इस तरह मार्च 2017 में मुख्यमंत्री बनने तक 28 साल गोरखपुर के सांसद का पता गोरखनाथ मंदिर रहा।
जहां तक गोरखपुर सदर विधानसभा सीट का सवाल है, 55 साल से यहां का भगवा रंग कभी बदरंग नहीं हुआ। 1967 से यहां जनसंघ और उसके बाद अब भाजपा का कब्जा है। इस सीट पर भी गोरखनाथ मंदिर का निर्विवाद प्रभाव है। वर्तमान में राधामोहन दास अग्रवाल यहां से विधायक हैं।
2002 में योगी ने ही अपने चुनाव प्रबंधक डॉ. अग्रवाल को हिंदू महासभा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतारा था। राधामोहन ने तब भाजपा के कद्दावर नेता शिवप्रताप शुक्ला को शिकस्त दे दी थी। बाद में राधामोहन भी भाजपा में शामिल हो गए और लगातार चार बार विधायक चुने गए।
झूठ बोले कौआ काटे
सीएम योगी को गोरखपुर से चुनाव लड़ा कर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे।
गोरखपुर से योगी के चुनाव लड़ने से भाजपा को सिर्फ गोरखपुर ही नहीं बल्कि संतकबीर नगर, देवरिया, बस्ती, महाराजगंज, कुशीनगर, आजमगढ़, मऊ, बलिया, अंबेडकर नगर और सिद्धार्थनगर जैसे जिलों में और मजबूती मिली है।
2017 चुनाव के पहले सपा और बसपा का भी यहां खासा जनाधार था लेकिन उनका तिलिस्म प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ के बूते भाजपा ने तोड़ दिया था। जाति, संप्रदाय और धर्म के सारे समीकरण अमूमन ध्वस्त हो गए थे।
बोले तो, पिछले 13 वर्ष से कुशीनगर जिले की राजनीति के केंद्र में रहे स्वामी प्रसाद मौर्य की सपा में छलांग को देखते हुए योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर से चुनाव लड़ना मौर्य़ के लिए भी खतरे की घंटी से कम नहीं है।
हालंकि चर्चा है कि स्वामी प्रसाद अब अपने गृह जनपद प्रतापगढ़, रायबरेली या उसके आसपास के जिलों का रुख कर सकते हैं।
वे पिछले कुछ दिनों से कुशीनगर की बजाय रायबरेली और शाहजहांपुर में ज्यादा सक्रिय थे। पहले भी उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र रायबरेली को बनाया था।
दरअसल, मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ कर जो संदेश यूपी वालों दिया था, वैसा ही संदेश पूर्वी उप्र की जनता को योगी ने दिया है। जहां तक अयोध्या, मथुरा और काशी से उम्मीदवारी की बात है, ये तो वह नाम हैं जिनका सिक्का सब जगह चलता है।
माना जाता है कि योगी कहीं से लड़ते जीत ही जाते लेकिन उप्र की बाकी लड़ाई के लिए शायद उतनी स्वतंत्रता उन्हें नहीं मिलती। जबकि, गोरखपुर से उम्मीदवारी के चलते योगी को समूचे उप्र और अन्य चुनावी राज्यों के लिए भी समय देना सहज और आसान होगा।
झूठ बोले कौआ काटे, योगी आदित्यनाथ गोरखपुर (शहर) सीट से विधानसभा चुनाव जीतने पर पांच इतिहास रचेंगे।
नंबर एक, योगी बीते 15 वर्षों में एमएलए का चुनाव जीतने वाले उप्र के पहले सीएम होंगे। उनके अतिरिक्त अखिलेश और मायावती भी अपने पिछले कार्यकाल में एमएलसी ही रहे थे और दोनों ने सीएम रहते हुए विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा था।
नंबर दो, उत्तर प्रदेश में 1985 के विधानसभा चुनाव के बाद कोई भी मुख्यमंत्री चुनाव जीतकर दोबारा सत्ता में नहीं लौटा है। 37 साल पहले यह कामयाबी अविभाजित यूपी में कांग्रेस के दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी को मिली थी। अगर योगी गोरखपुर से चुनाव जीते और भाजपा दोबारा सत्ता में लौटती है तो यह एक रिकॉर्ड होगा जो 37 वर्ष बाद दोहराया जाएगा।
नंबर तीन, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ से पहले भाजपा के तीन नेताओं को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है। कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह। इनमें से किसी भी सीएम के नाम पार्टी को चुनाव में जिताकर दोबारा सत्ता में लाने का सेहरा नहीं बंधा है। योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ रही भाजपा यदि यूपी का ताज फिर पा जाती है तो योगी भाजपा के पहले मुख्यमंत्री होंगे जिन्हें चुनाव जीतने के बाद दोबारा सरकार बनाने का मौका मिलेगा।
नंबर चार, असल में साल 1971 में त्रिभुवन नारायण सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए गोरखपुर की मानीराम विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था लेकिन वे चुनाव हार गए। हालांकि, वीर बहादुर सिंह गोरखपुर से चुनाव जीतकर सीएम बनने वाले रहे। उन्होंने पनियरा (अब महाराज गंज में) से विधानसभा चुनाव जीता था।
यह अलग बात है कि उन्होंने सीएम रहते यह चुनाव नहीं लड़ा था, बल्कि यहां से जीतने के बाद सीएम बने थे। तो, योगी सीएम रहते गोरखपुर से चुनाव जीतने वाले पहले व्यक्ति होंगे।
नंबर पांच, सीएम योगी आदित्यनाथ से पहले के मुख्यमंत्री नोएडा आने से कतराते थे। उनके मन में एक ऐसी धारणा बैठ गई थी कि जो भी सीएम नोएडा जाता है उसकी कुर्सी खतरे में पड़ जाती है या फिर उसका दोबारा सत्ता में लौटना असंभव हो जाता है।
पूर्व सीएम वीर बहादुर सिंह जून 1988 में यहां आए और कुछ दिन बाद ही उनकी कुर्सी चली गई। इसी डर से मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह और अखिलेश यादव ने भी मुख्यमंत्री रहते हुए नोएडा आने से परहेज किया।
अक्टूबर 2011 में मुख्यमंत्री रहते मायावती दलित स्मारक स्थल का उद्घाटन करने नोएडा आई थीं, लेकिन 2012 के चुनाव में उन्हें सत्ता से हाथ धो देना पड़ा। पूर्व सीएम अखिलेश यादव तो सार्वजनिक तौर पर अपना यह डर स्वीकार कर चुके हैं।
लेकिन, सीएम योगी ने न सिर्फ इन दकियानूसी दलीलों को सार्जनिक तौर पर खारिज किया, बल्कि वह अपने कार्यकाल में कई बार आधिकारिक कार्यक्रमों के लिए नोएडा गए।
जहां तक सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव की बात है, उनके चुनाव लड़ने को लेकर जारी सस्पेंस भी समाप्त हो गया। बुधवार को उन्होंने कहा था कि वो पहले आजमगढ़ की जनता से इजाजत लेंगे, जिसके बाद से कयास लगाए जा रहे थे कि वह आजमगढ़ से चुनाव लड़ सकते हैं।
लेकिन, दूसरे ही दिन अखिलेश ने अपने सिपहसालारों से राय-मशविरा करके यादव बहुल सबसे सुरक्षित पारंपरिक सीट करहल पर मुहर लगा दी। माना जाता है कि यह मुलायम सिंह यादव के जमाने से ही सपा के प्रभाव वाली सीट है। हालांकि, गठबंधन की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने अखिलेश को गाजीपुर की जहूराबाद विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का न्योता भी दिया था।
ले-देकर ऐसा लगता है कि अखिलेश ने भी रिस्क लेने की बजाय सेफ सीट से ताल ठोकने का फैसला इसलिए किया है कि उन्हें भी उप्र की बाकी सीटों पर ध्यान देने का पूरा वक्त मिले। आगे-आगे देखिये होता है क्या?