Memoirs: खो गया मेरे गाँव का पनघट

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Memoirs: खो गया मेरे गाँव का पनघट

डॉ. सुमन चौरे
परिवार में एक आध्यात्मिक अनुष्ठान था, अतः गाँव जाना हुआ। गाड़ी देर रात पहुँची। बिस्तर पर लगते ही, सबसे पहला विचार यही आया कि पूजन में देर हो जायगी तो गाँव में सबसे मिलना नहीं हो पायगा। सबसे अच्छा तो यही है कि भोर होते ही बाड़ी के कुएँ पर पहुँच जाऊँ, वहीं सबसे मेल मुलाकात हो जायगी। मैं मुँह झाकळा ही उठी। मैंने भाभी से कहा, श्मैं बाड़ी के कुएँ पर जा रही हूँ…। ’’भाभी बोलीए श्जीजी सुनो.. सुनो तो…।’’ पर मैं उनकी ष्सुनो… सुनो’… को बहुत दूर छोड़ आई।
फटा-फट लम्बे कदम भरते मैं बाड़ी के कुएँ की ओर चल पड़ी। अब मैं उस बिन्दु पर थी, जहाँ थोड़ी दूर से ही कुएँ में बाल्टियों की डुबुक-डुबुक की आवाज़, बाल्टियों को खींचतीं, घड़े माँजतीं पनिहारिनों की चूड़ियों, आभूषणों की खनक से वातावरण संगीतमय हो उठता था। मैंने कान लगाकर सुना, कुछ सुनाई नहीं दिया, लगा मैं उतावली में जल्दी ही आ गई। अभी बाड़ी की झुरमुट से सूरज की लाली भी तो नहीं छिटकी। लगता है अब तक कोई आया न हो, कोई बात नहीं, कुआँ तो है ही अपनी जगह, मैं आगे बढ़ी। कुआँ नहीं दिखाई दिया। बाड़ी का कुआँ तो यहीं था, तेली दाजी के घर से ही तो लगा था कुआँ। तेली दाजी के घाणे की बात है, तो वह कहीं भी जा सकता है; किन्तु कुआँ…?, वह कहाँ जा सकता है? कुआँ तो अपने स्थान से खिसकता भी नहीं। मैं जड़वत् खड़ी रह गई। तभी दूर से बैल ले जाते छज्जू भाई निकले। मुझे देखते ही किसी प्रकार अपनी झुकी कमर को सीधे कर दोनों हाथ कुएँ की ओर कर, खोखली हँसी हँसे और बोले, श्जीजी, कुआँ ढूँढ़ रही हो, काँटों के नीचे ढूँढ़ो।ष्ष् मैं देखकर चौंकी, गाड़ी दस गाड़ी काटों के नीचे कुआँ दबा है। सब कांटे बाण जैसे मेरे हृदय को बींध रहे हैं। मुझे कुएँ की कराह सुनाई दी। मैं वहीं पत्थर पर धप्प से बैठ गई।
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मुझे स्पष्ट सुनाई दिया, कुआँ कह रहा है, आज मुरी सुधि किसको आ गई’’ मुझसे क्या गुनाह हुई, जो काँटों की सजा मिली। मैं तो सबके सुख-दुःख का साक्षी हूँ। डोल (बाल्टी) डालने के तरीके से ही मैं पनिहारिन की मनःस्थिति भाँप लेता था। मैं तो कितना गहरा हूँ, मैंने तो हर पनिहारिन की बात अपने पेट में समा रखी है। पूरा गाँव जानता है, मैंने तो दिया ही दिया है और बदले में कभी कोई आशा-अपेक्षा नहीं की। मुझे तो शर्म आती है, कि कोई देखेगा, तो यही कहेगा कि मैंने कोई अत्याचार किया है या किसी का वध कर हत्यारा हो गया हूँ जो ये काँटे मिले।ष्ष् मुझे लगा कुआँ सच ही तो कह रहा है। पूरे गाँव का सरोकार रहा है इस कुएँ से। यूँ तो पूरे गाँव में कोई बारह-पन्द्रह कुएँ हैं, और मीठे पानी के भी दो तीन कुएँ हैं। किन्तु मात्र बाड़ी का कुआँ ही एक ऐसा कुआँ है जिसके पानी से दाल जल्दी ही पक जाती। इसीलिए यहाँ से पूरे गाँव के हर घर में बेड़ा दो बेड़ा पानी तो पहुँचता ही था। घर-घर का बाड़ी के कुएँ से आत्मीय संबंध था।
भोर-भिमसारे ही सबके कदम बाड़ी के कुएँ की ओर बढ़ जाते थे। कोई कितने ही भारी मन से यहाँ क्यों न आए, पर भरे घड़े से और हल्के मन से घर लौटता था। कुएँ पर हम उम्र लोगों की टोलियाँ बन जाती थीं। इनके समय भी स्वतः ही निश्चित हो जाते थे। एक उम्र के लोगों के सुख-दुःख भी एक जैसे ही होते थे। यहाँ होने वाली हर बात का गवाह और हर किसी के अन्तर्मन की वेदना को महसूस करने वाला कुआँ ही था। इसने सबकी बातें सुनी और देखी हैं, कोई नवोढ़ अपनी भुजा पर प्रियतम का दिया चिह्न छुपाती है, तो कोई एक दूसरे से कहती है, श्रात पिया ने, यह हसुली पहनाई, पीर महाराज की जत्रा से लाये हैं।’’ कई बातों में अपनी सहभागिता करते प्रसन्न हो, यही कहकर संतुष्ट हो लेतीं कि रात को मैंने कह दिया, कि कपास की गाड़ी काँटे पर चढ़ी कि सबसे पहले मेरी कंठी गढ़वा देना, तभी छूने दूँगी।’ कोई बिचारी पल्लू से आँसू पोंछते-पोंछते रुंधे कंठ से पति के ज़ुल्म की दास्ता सुनाकर मन हल्का कर लेती थी, तो कोई प्रौढ़ा कहती, मैंने भी कह दिया, तुम्हारे घर गोबर-पूँजा करते-करते आधी जिनगी हो गई, इस बार तो नया मसरू का घाघरा पहन कर ही गणगौर खेलने जाऊँगी…।’’ आदि आदि।
बाड़ी के कुएँ पर क्या-क्या बातें नहीं होती थीं, कुएँ पर भीड़ के कारण अगर बेड़ा भर कर बहू को देर होती तो सास उलाहना देती, मुंह साथ ले गई हैं। तो कोई सास देर से घर पहुँचे तो बहू कहती, श्घर लेकरू गग्गा रहे हैं, माँय बातों की पोटली ले गई, फिर घर लौटने की चिंता किसे…।’’ सामान्य सामूहिक चर्चा भी चलती, किसकी बहू के पैर भारी हैं, तो किसकी बहू की कूख नहीं चली, तो उस पर सौत आने वाली है या कौन रंडुवा खानदेश से नातरा लगा कर ला रहा है। किसके खेत में फसल अच्छी पकी है और किसके लिए साल भारी आ गया, तो घरवाली का दागिना गिरवी रखना पड़ा। यानी पूरे गाँव की खबर बाड़ी के कुएँ को रहती थी।
बाड़ी का कुआँ सूचना संप्रेषण का केन्द्र भी रहा। इसी मार्ग से अटूट, मोहणा, पुनासा आदि गाँवों के लोगों का आना-जाना होता था। गाड़ी बैल से गुजरने वाला हर व्यक्ति बैलों को छोड़कर उन्हें हौदी से पानी पिलाता और स्वयं भी दोनों हाथ की ओक बनाकर मुँह से लगा लेता, पानी खींचने वाली कोई भी महिला बाल्टी से उसकी ओक में पानी डाल, उसकी प्यास बुझा देती। गाड़ीवान व पनिहारिन के मध्य रोचक संवाद भी होते, ष्कहाँ से आएए कौन हो, कहाँ जा रहे हो, कब पहुँचोगे, वहाँ फलाँ-फलाँ हमारे रिश्तेदार भी हैं, पहचानते हो, उनको फलाँ संदेश दे देना।’’ आदि आदि।
गाँव में कोई भी अनुष्ठान हो, वहाँ बाड़ी का यह पवित्र कुआँ न पहुँचे, ऐसा संभव ही नहीं। यह कुआँ बहुत पवित्र था, क्योंकि तीर्थ यात्रा से लौटने वाला गाँव का हर परिवार अपने साथ लाए तीर्थों के जल का एक भाग समारोह के साथ इसमें डालता था। बालक का जन्म हुआ। जलपूजन के लिए प्रसूता व नवागत को कुएँ को दर्शन कराने गाजे-बाजे के साथ ले जाते थे। किसी के घर विवाह हो तो सुभागिन óियाँ कुएँ से पानी ले सिर पर बेड़ा-घड़ा रखकर विवाह स्थल की ओर प्रस्थान करतीं, इनके गीतों के बोल कुएँ से शुरू होते और विवाह घर तक चलते रहते। किसी के घर कोई गमी हो, या कोई अशौच हो, तो पवित्रता के लिए भी इसका जल ले जाया जाता था।
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मध्याह्न में जब पनिहारिनों की आवाजाही थम जाती तो, बाड़ी से सुपर्णक झुण्ड के झुण्ड कुएँ की पाल पर आ जाते थे। तब घाट की रौनक देखते ही बनती थी। काबर, मैंना, मिट्ठू, बड़ी मंजुल जोड़ी। अपनी-अपनी टोलियों में उनका आपस में बातें करना, नाचना, गर्दन झुका-झुका कर पत्थर की संधियों व छिद्रों में भरे जल को चोंच से पीना… उड़ना… फिर बैठना… घिर्री पर बैठते और घिर्री चल पड़ती तो टें … टें …. कर उड़ पड़ते, घाट मुखरित हो उठता था। जरा सी आहट से फुर्र… फुर्र … हो बाड़ी के वृक्षों पर चहचहाने लगते थे। इन सबके बीच गौरैया की तो शान ही अलग होती। वह तो इतनी निडर होती कि कितनी ही भीड़ क्यों न हो, किसी के भी घड़े में चोंच डुबाई और फुर्र…। गौरैया को किसी से क्या मतलब, वह तो जहाँ से कुआँ पक्का है, उस काले पत्थर, जिस पर लिखा है, रामचरण – मुकुंद राम मालगुजार, कालमुखी, की संधि में अपना घोंसला बना लेती थीं। घोंसला बनाते समय कितनी ही बार, तिनके उनकी चोंचों से छूट जाते थे और कुएँ में गिर पड़ते थे। पनिहारिनों के शब्द भी सुनाई पड़ते थे, श्अरे, ये चिड़ी बाई पानी में कचरा कर रही हैं।ष्ष् मुझे लगा, यह क्या हो गयाए जो लोग एक तिनका गिरने से चिड़ी बाई से नाराज़ हो पड़ते थे, उन्होंने कुएँ पर रखे इन काँटों का जरा भी विरोध नहीं किया, क्या सब संवेदन शून्य हो गए?
बाड़ी का कुआँ तो हमारे गाँव की पहचान थी। इतना बड़ा दाता, एक बार ज्ञानतपुरा के सब कुएँ सूख गए थे, तो ज्ञानतपुरा के लोग गाड़ी बैल पर टाकियाँ भर-भरकर अपने गाँव ले गए ….। क्या किसी को कोई दर्द नहीं हुआ इन काटों का।
इतनी देर में भाभी आ गईं। आते ही वे बोलीं, श्जीजी, हम तुम से कह रहे थे कि मत जाओ, तुम्हें अफ़सोस होगा कुएँ की हालत देखकर। गाँव में नल-बिजली आ गए। दो साल से कोई इधर नहीं आता, बाड़ी में मोट नहीं मोटर चलती है। कुएँ में मँहगी मशीन (मोटर) लगी है, कोई चुरा न ले, इसलिए कुएँ को कांटों से ढँक दिया है।’’
मेरे भीतर द्वंद्व चल रहा था। ससुराल से मायके आने वाली हर लड़की बाड़ी के कुएँ पर पहुँच जाती थी, सबसे भेंट हो जाती थी। मेल-मिलाप का केन्द्र था यह कुआँ। मैं अपने अन्दर बिंधे कांटों को निकालना चाह रही थी। लोक संस्कृति का पोषण करने वाले ये पनघट, पनिहारिन, राहगीर और बाड़ी का यह कुआँ, मेरे गाँव की किताब से खारिज़ हो गए। मैं गहरे सदमे में थी।
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• डॉ. सुमन चौरे
13, समर्थ परिसर
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