Cynodon Dectylan: दूब घास है खास, क्योंकि यह सिर्फ धार्मिक रूप से पवित्र नहीं है, बल्कि विज्ञान के सिद्धांत में भी यह श्रेष्ठ है.

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Cynodon Dectylan

Cynodon Dectylan:दूब घास है खास, क्योंकि यह सिर्फ धार्मिक रूप से पवित्र नहीं है, बल्कि विज्ञान के सिद्धांत में  भी यह श्रेष्ठ है.

डॉ विकास शर्मा
 धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दूर्वा (दूब) की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई है, माना जाता है कि यह भगवान विष्णु की जांघ के रोम से निकली है, जो मंदराचल पर्वत की रगड़ से उत्पन्न हुई थी। इसका एक अन्य नाम पवित्री भी है। दूर्वा को हिन्दू धर्म में एक पवित्र वनस्पति माना जाता है, जो स्थिर और हमेशा हरी-भरी रहती है। जब अमृत प्राप्त हुआ, तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप में अमृत कलश को कुछ देर के लिए दूर्वा पर रखा, इस स्पर्श से दूर्वा अमर हो गई। यह श्रीगणेश जी का प्रिय माना जाता है इसीलिए गणेश पूजा में अपराजिता के साथ इसे विशेष रूप से चढ़ाया जाता है। अपराजिता रिद्धि और सिद्धि की परिचायक हैं। हिंदू धर्म में पात्येक धार्मिक अनुष्ठानों में दूर्वा का विशेष महत्व है, हर तरह की पूजा में इसका उपयोग अनिवार्य माना गया है। देवताओं पर जल मार्जन के लिए पूजन अनुष्ठानों में ताज़ी दुर्वा का ही प्रयोग किया जाता है ।
वानस्पतिक परिचय : दूर्वा एक प्रकार की घास है जिसे प्रचलित भाषा में दूब या दुवड़ा भी कहा जाता है । संस्कृत में इसे दूर्वा, सहस्त्रवीर्य, शतवल्ली, अमृता, अनंता, गौरी, महौषधि, शतपर्वा, भार्गवी आदि नामों से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम साइनोडान डेक्टीलान है और यह घास कुल पोएसी का सदस्य है। अंग्रेजी में इसे वरमूडा ग्रास भी कहते हैं। वरमूडा ट्रायंगल आज भी दुनिया के सबसे रहस्यमयी स्थानों की सूचि में सबसे ऊपर है। दूर्वा का हिन्दू धर्म में बहुत महत्त्व है। शायद ही ऐसी कोई पूजा हो जो दूर्वा के बिना संपन्न होती हो। आम तौर पर लोग दूर्वा और घास को एक ही समझते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। दूर्वा भले ही घास का एक प्रकार है, किन्तु कई गुणों में यह सामान्य घास की तुलना में अधिक महत्त्व रखती है । सामान्य पहचान के दृष्टिकोण से यह सदा हरी भरी रहती है और पृथ्वी पर फ़ैल कर बढ़ती है अर्थात कभी ऊपर नहीं उठती। शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जो दूब को नहीं जानता होगा। हाँ यह अलग बात है कि हर क्षेत्रों में तथा भाषाओँ में यह अलग अलग नामों से जाना जाता है। इसके आध्यात्मिक महत्वानुसार प्रत्येक पूजा में दूब को अनिवार्य रूप से प्रयोग में लाया जाता है।
दुर्वा की उत्पत्ति : दूर्वा की उत्पत्ति की कथा भविष्य पुराण सहित अन्य पुराणों व कई धार्मिक पुस्तकों में मिलती है इस अनुसार दूर्वा की उत्पत्ति समुद्र मंथन से मानी गयी है। इसे समुद्र मंथन से निकले ८४ अन्य रत्नों में से एक माना जाता है। कथा के अनुसार समुद्र मंथन करते समय जब देव और दैत्य थकने लगे तो उसे जारी रखने के लिए श्रीहरि ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रख लिया और स्वयं समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल की रगड़ से श्रीहरि की जांघ का एक रोम टूट गया और उसी से दूर्वा का जन्म हुआ। नारायण के शरीर का भाग होने के कारण ये परम पवित्र कहलाई। इन रोमों को समुद्र की लहरों ने फिर उछाल दिया । यही रोम हरे रंग की सुंदर व शुभ दूर्वा के रूप में उत्पन्न हुए ।
मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय जब समुद्र से अमृत-कलश निकला तो देवताओं से इसे पाने के लिए दैत्यों ने खूब छीना-झपटी की जिससे अमृत की कुछ बूंदे पृथ्वी पर भी गिर गईं थी जिससे ही इस विशेष घास दूर्वा की उत्पत्ति हुई। जब अमृत प्राप्त होने के बाद समुद्र मंथन का समापन हुआ तो नारायण ने मोहिनी रूप धर कर कुछ समय के लिए अमृत को इसी दूर्वा पर रख दिया। अमृत का स्पर्श होने से इसकी पवित्रता और बढ़ गयी और ये वनस्पति अमर हो गयी। इसीलिए दूर्वा ही एक ऐसी वनस्पति है जो किसी भी परिस्थित में बिना किसी की सहायता के स्वयं बढ़ सकती है। शास्त्रों के अनुसार देवी- देवताओं के साथ पृथ्वी लोक पर सीता व दमयंती भी दूर्वा का पूजन कर अखंड सौभाग्य प्राप्त कर चुकी हैं ।
समुद्र मंथन के सन्दर्भ में ही दूर्वा के लिए हमारे धर्म ग्रंथों में एक श्लोक आता है –
त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥
विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।
अर्थात हे दूर्वा, आपका नाम अमृत है क्योंकि आप अमृत की तरह ही पवित्र और पूजनीय हैं। सभी देवता आपका वंदन करते हैं, अर्थात पूजते हैं। हे पूजित दूर्वा घास, आप मुझमें किए गए सभी पापों और बुराइयों को भस्म कर दें, जला दें। हे दूर्वा, आप विष्णु, शिव और अन्य सभी देवताओं को अत्यंत प्रिय हैं और उन्हें प्रसन्नता प्रदान करती हैं। क्षीरसागर से उत्पन्न होने वाली दूर्वा, आप हमारे वंश को बढ़ाने वाली बनें, अर्थात हमारे वंश में वृद्धि और समृद्धि लाएं।
दूर्वा सदैव भूमि पर ही उगती है और ऊपर नहीं उठती। इसे इसकी नम्रता मान कर गुरु नानक जी ने कहा है –
नानक नन्हे बने रहो, जैसे नन्ही दूब।
बड़े-बड़े बही जात हैं, दूब खूब की खूब।।
अर्थात: झुक कर चलने वालों का कोई कुछ नहीं बिगड़ पाता जैसे सैलाब आने पर नन्ही दूब लेट जाती है और सैलाब ऊपर से निकल जाता है। झुकने से दूब पूर्व की तुल्न्मा में और अधिक बढ़ जाती है किन्तु न झुकने वाले बड़े-बड़े पेड़ सैलाब में बह जाते हैं।
गणेश पूजा में क्यों चढ़ाते हैं दूर्वा : गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेश जी की पूजा होती है। गणेशजी की पूजा में मोदक, जनेऊ के साथ ही दूर्वा विशेष रूप से अर्पित की जाती है । पौराणिक कथा के अनुसार अनलासुर नाम के राक्षस ने बहुत उत्पात मचा रखा था। अनलासुर ऋषियों और आम लोगों को जिंदा निगल जाता था। दैत्य से परेशान होकर सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि भगवान् भोलेनाथ से प्रार्थना करने पहुंचे। भोलेनाथ ने कहा कि अनलासुर को सिर्फ गणेशजी ही मार सकते हैं, अतः सभी देवताओं ने गणेशजी की आराधना की। देवताओं की आराधना से प्रसन्न होकर गणेशजी ने विशालकाय रूप धारण कर युद्ध करते हुए उस राक्षस को निगल गए। गणेश जी के पेट में दैत्य के मुंह से निकलने वाली तीव्र अग्नि के कारन भयंकर जलन और पीड़ा होने लगी । इस जलन को शांत करने के लिए कश्यप ऋषि ने गणेश जी को दूर्वा की 21 गांठें बनाकर खाने के लिए दी। दूर्वा को खाते ही गणेश जी के पेट की जलन शांत हो गई और गणेशजी प्रसन्न हुए। कहा जाता है तभी से भगवान गणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।
श्री गणेश को दूर्वा चढ़ाने का नियम : प्रात:काल उठकर गणेश जी की मूर्ति या तस्वीर के सामने बैठकर व्रत और पूजा का संकल्प लें। फिर ऊं गं गणपतयै नम: मंत्र बोलते हुए जितनी पूजा सामग्री उपलब्ध हो उनसे भगवान श्रीगणेश की पूजा करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर लगाएं। फिर उन्हें दूर्वा अर्पित करें। सामान्यतः श्रीगणेश को ११ दूर्वा चढ़ाई जाती है और प्रत्येक के साथ उनका एक मन्त्र बोला जाता है। श्रीगणेश के ये ११ मन्त्र इस प्रकार हैं – ऊँ गं गणपतेय नम:, ऊँ गणाधिपाय नमः, ऊँ उमापुत्राय नमः, ऊँ विघ्ननाशनाय नमः, ऊँ विनायकाय नमः, ऊँ ईशपुत्राय नमः, ऊँ सर्वसिद्धिप्रदाय नम:, ऊँएकदन्ताय नमः, ऊँ इभवक्त्राय नमः, ऊँ मूषकवाहनाय नमः एवं ऊँ कुमारगुरवे नमः। किन्तु गणेश चतुर्थी के दिन श्रद्धालु विशेष प्रयोजन हेतु उन्हें २१ दुर्वा भी अर्पित करते हैं। इसके लिए गुड़ के छोटे छोटे टुकड़े के साथ 21 दूर्वा की गांठे तैयार की जाती हैं। और इन्हें एक एक करके अर्पित किया जाता है। श्री गणेशाय नमः दूर्वांकुरान् समर्पयामि। इस मंत्र के साथ श्रीगणेशजी को दूर्वा चढ़ाने से जीवन की सभी विघ्न समाप्त हो जाते हैं और श्रीगणेशजी प्रसन्न होकर सुख एवं समृद्धि प्रदान करते हैं। इसके अलावा गणेशजी को मोदक और मोदीचूर के 21 लड्डू भी अर्पित करना उत्तम माना जाता है। इसके बाद आरती कर प्रसाद बांटा जाता है।
दुर्वा अष्टमी का महत्त्व : गणेश चतुर्थी के दिन गणेशजी को दूर्वा चढ़ाकर विशेष पूजा की जाती है। किन्तु इसके अतिरिक्त दूर्वा अष्टमी के दिन भी दुर्वा पूजा का विशेष महत्त्व है। ऐसा करने से परिवार में समृद्धि बढ़ती है और मनोकामना भी पूरी होती है। इस व्रत का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण और गणेश पुराण में भी किया गया है।
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मान्यता है कि जो भी स्त्री दूर्वा का पूजन करती है, वह संसार के सभी सुख भोगकर अंत समय में पति के साथ स्वर्ग को प्राप्त करती है। भाद्रपद की शुक्ल अष्टमी को दूर्वा पूजन का व्रत व उपवास करना श्रेष्ठ माना गया है। स्त्रियों को विशेष कर दूर्वा का पूजन करने को कहा गया है। ऐसी मान्यता है ऐसा करने से उनका सुहाग अखंड रहता है। महान पतिव्रताओं जैसे माता सीता और दमयन्ती द्वारा भी दूर्वा के पूजन का वर्णन हमें धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। पूजा में दूर्वा का महत्त्व तो है ही लेकिन कोई भी यज्ञ कार्य व अनुष्ठान इसके बिना पूर्ण नहीं होता। ऐसी मान्यता है कि दूर्वा यज्ञ में तीन महान अवगुणों – आणव, कार्मण एवं मायिक का नाश कर देती है। हिन्दू कर्मकांडों एवं सभी १६ संस्कारों में दूर्वा का प्रयोग किया जाता है। कोई भी मांगलिक अवसर दूर्वा की उपस्थिति के बिना अधूरा माना जाता है।
औषधीय महत्त्व : जिस दूर्वा ने स्वयं श्रीगणेश के लिए औषधि का रूप धारण किया हो, उसकी महत्ता तो आयुर्वेद में होना निश्चित है। दूर्वा को औषधीय गुणों से परिपूर्ण माना गया है। कहा जाता है कि त्रिफ़ल (हर्रा, बहेड़ा, आंवला) के अतिरिक्त केवल दूर्वा ही ऐसी वनस्पति है जो तीन मुख्य विकारों – वात, पित्त और कफ का नाश करती है। इसे प्राकृतिक रूप से सबसे प्रभावकारी एंटीबायोटिक माना गया है जिसके सेवन से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इसके अतिरिक्त दूर्वा अनिद्रा एवं चर्म रोगों से लड़ने में फायदेमंद मानी जाती है। ये रक्त को साफ़ करती है और गले सम्बन्धी रोगों में भी इसे उपयोग में लाया जाता है। दूर्वा का जो सबसे प्रसिद्ध गुण है वो दृष्टि वर्धन का है। कहते हैं सुबह-सुबह नंगे पांव दूर्वा पर चलने से कमजोर आँखों की रौशनी भी वापस आ जाती है। यह ऋषि मुनियों द्वारा आजमाया हुआ प्रयोग है, जिसे अब भी करोडो लोग उपयोग में लाते हैं। कुल मिलकर दूर्वा हिन्दू धर्म की सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण वनस्पतियों में से एक है जिसका उपयोग ना केवल पूजा एवं कर्मकांडों में अपितु चिकित्सा विज्ञान में भी प्रमुख रूप से किया जाता है। यह इस संसार में प्रकृति प्रदत्त एक वरदान की भांति ही है।
इसके औषधीय गुणों के अनुसार दूब त्रिदोष को हरने वाली एक ऐसी औषधि है जो वात कफ पित्त के समस्त विकारों को नष्ट करते हुए वात-कफ और पित्त को सम करती है। दूब सेवन के साथ यदि कपाल भारती की क्रिया का नियमित यौगिक अभ्यास किया जाये तो यह शरीर के भीतर के त्रिदोष को नियंत्रित कर देता है। दुर्वा दाह शामक, रक्तदोष, मूर्छा, अतिसार, अर्श, रक्त पित्त, प्रदर, गर्भस्राव, गर्भपात, यौन रोगों, मूत्रकृच्छ इत्यादि में विशेष लाभकारी है। यह कान्तिवर्धक, रक्त स्तंभक, उदर रोग, पीलिया इत्यादि में अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाता है। श्वेत अर्थात कोमल दूर्वा विशेषतः वमन, कफ, पित्त, दाह, आमातिसार, रक्त पित्त, एवं कास आदि विकारों में विशेष रूप से प्रयोजनीय है। सेवन की दृष्टि से दूब की जड़ का 2 चम्मच पेस्ट एक कप पानी में मिलाकर पीना चाहिए। लान घास के रूप में भी दूब घास का प्रयोग किया जाना उत्तम होता है। घर के सामने खाली जगह में इसे लगा कर सुन्दरता के साथ साथ स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा जा सकता है ।
वैज्ञानिक महत्त्व : ऐसे तो कई गुण हैं जिसके आधार पर हम दूर्वा को अन्य वनस्पतियों से श्रेष्ठ मानते हैं किन्तु वैज्ञानिक अध्ययन के दृष्टिकोण से भी यह बहुत महत्वपूर्ण है। हेक्साप्लोइडी किसी जीव की वह अवस्था है जिसमे किसी जीव की कोशिका में गुणसूत्र के छह सेट पाए जाते हैं जबकि किसी द्विगुणित जीव में यह दो या एक जोड़ा होते हैं। दुनिया की समस्त वनस्पतियों में केवल दूव घास ही छःगुणित अवस्था में प्राकृतिक रूप से पाई जाती ,है जो इस वनस्पति को पूज्यनीय आयर रहस्यमयी मानने के लिए पर्याप्त हैं। आज के आधुनिक विज्ञान में जब गुणसूत्रों के अधिक जोड़े होने पर उत्पन्न हुई पालीप्लोइड फसलो से मिलने वाले फायदों की समझ आई तो वे भी लग गए पालीप्लोइड बनाने। और इसके लिए उन्होंने दूव घास का वैघानिक अध्ययन करके ही रास्ता निकाला । आज हम जो उच्च उत्पादन क्षमता वाली गेंहू प्रयोग में लाते हैं यह भी पालीप्लोइड का एक प्रकार हेक्साप्लोइड ही है। इसी तरह ट्रिटीकेल (आधा गेंहू आधा रई) और रेफिनोब्रासिका (मुली- गोभी) के सफल और असफल प्रयोग अब तक किये जा चुके हैं। अब आप ही बताइये धर्म ने विज्ञान को रास्ता दिखाया या विज्ञान ने धर्म को। आधुनिक रूप से कोल्चिसीन जैसे रसायनों की मदद से प्रयोगशाला के भीतर दो या दो से अधिक वनस्पतियों के गुणसूत्र सेट मिलाकार बड़ी मुश्किलों से पालीप्लोइड बनाये जाते हैं, एसी ही विशेष दशाएं हमारे देवी देवताओं ने समुद्र मन्थन के समय निर्मित की होंगी और दुर्वा की उत्पत्ति को अंजाम दिया होगा। इस उदहारण से आपको समझ आ गया होगा कि, कैसे समुद्र मन्थन से रहस्यमयी रत्न और जीव पैदा हुए होंगे। उस समय भी हमारे पूर्वजों का ज्ञान अत्यंत विकसित था, जिसे हमें पूरी तरह समझने के लिए अभी और समय लगेगा क्युकि समझने का रास्ता हमारे गुरुकुलों में संकलित ग्रन्थ और साहित्य थे, जिन्हें विदेशी आक्रान्ताओं और लुटेरों ने नष्ट कर दिया।
डॉ विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई
जिला छिंदवाड़ा (म. प्र.)