Supreme Court ने लगाई फटकार: ‘पायजामे का नाड़ा तोड़ना रेप नहीं’ कहने वाली टिप्पणी पर गहरी आपत्ति

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Supreme Court ने लगाई फटकार: ‘पायजामे का नाड़ा तोड़ना रेप नहीं’ कहने वाली टिप्पणी पर गहरी आपत्ति

अदालतों को शब्दों की जिम्मेदारी समझनी होगी, संवेदनशील मामलों में जल्द आएंगे नए दिशानिर्देश

New Delhi: यौन अपराधों पर अदालतों की टिप्पणियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को सख्त रुख अपनाया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी आपत्ति जताई है जिसमें कहा गया था कि पायजामे का नाड़ा तोड़ना और स्तनों को पकड़ना रेप की कोशिश नहीं माना जा सकता। जस्टिस सूर्य कांत की अध्यक्षता वाली पीठ ने साफ कहा कि ऐसी टिप्पणियां न्याय और पीड़ित की गरिमा दोनों को प्रभावित करती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- “ऐसी भाषा अदालत के आदेशों में नहीं होनी चाहिए”

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि न्यायपालिका को अपने शब्दों की गंभीरता और उसके असर का पूरा अंदाजा होना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि फैसलों में ऐसे अवलोकन नहीं होने चाहिए जो पीड़ित के सम्मान या संवेदनशीलता को चोट पहुंचाएं। शीर्ष कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए स्पष्ट किया कि तकनीकी आधारों पर किसी गंभीर आरोप को हल्का बताना न्यायिक सोच के खिलाफ है।

▪️जल्द जारी होंगे देशभर की अदालतों के लिए नए दिशानिर्देश

▫️पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि वह विस्तृत दिशानिर्देश जारी करेगी ताकि देशभर की अदालतें यौन हिंसा, उत्पीड़न और संवेदनशील मामलों की सुनवाई में शब्दों और दृष्टिकोण को लेकर अधिक सतर्क रहें। कोर्ट का कहना है कि न्यायिक प्रक्रिया में संवेदनशीलता और गरिमा अनिवार्य तत्व हैं, जिन्हें किसी भी स्तर पर कम नहीं किया जा सकता।

▪️आखिर क्या था इलाहाबाद हाईकोर्ट का विवादित फैसला

▫️यह विवाद उस समय शुरू हुआ जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में आरोपी पर लगे IPC की धारा 376/511 यानी दुष्कर्म के प्रयास के आरोप हटा दिए थे। कोर्ट ने कहा था कि आरोपी के द्वारा पीड़िता के स्तनों को पकड़ना और पायजामे का नाड़ा तोड़ना रेप की कोशिश की श्रेणी में नहीं आता क्योंकि इसमें शारीरिक संबंध बनाने का सीधा प्रयास दिखाई नहीं देता।

▪️सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी को बताया आपत्तिजनक

▫️सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस दलील को न केवल अपर्याप्त बल्कि बेहद संवेदनहीन बताया। शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे बयान समाज के लिए गलत संदेश देते हैं और पीड़ितों के हौसले को कमजोर करते हैं। कोर्ट ने दोहराया कि कानून की धाराओं की व्याख्या करते समय न्यायालयों को केवल तकनीक नहीं बल्कि घटना और पीड़िता के अनुभव को भी समग्रता में देखना होगा।