MP BJP Politics: पांच राज्यों के नतीजों के बाद मप्र भाजपा में चलेगा सफाई अभियान

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MP BJP Politics: पांच राज्यों के नतीजों के बाद मप्र भाजपा में चलेगा सफाई अभियान

यूं तो उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम का मप्र की राजनीति पर कोई असर नहीं होना चाहिये, लेकिन हकीकत तो यही है कि ऐसा संभावित है। दरअसल, संगठन और सरकार स्तर पर कुछ फैसलों को भाजपा आलाकमान ने उप्र सहित पांच राज्यों के परिणामों तक स्थगित कर रखा है।

उसकी नजर 2024 के लोकसभा चुनाव पर है और रणनीतिक तौर पर भाजपा संगठन किसी समझौते,मुरव्वत के मूड़ में नहीं है। मप्र इसलिये निशाने पर है कि पिछला विधानसभा चुनाव हारने के बाद शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर दांव लगाने की जोखिम उठाने को वह शायद ही तैयार हो।

यूं सीधे तौर पर इसके दो मतलब निकाले जा सकते हैं। एक,शिवराज सिंह से आलाकमान को कोई नाराजी है। दूसरा, वे प्रदेश में भाजपा और जनता के बीच अब अपेक्षाकृत सर्व स्वीकार्य नहीं रहे। ये दोनों कारण तो कतई नहीं हैं। फिर भी मध्यप्रदेश नये मुख्यमंत्री मिलने की उलटी गिनती शुरू कर सकता है। इस तरह की राजनीतिक कयासबाजी एकाध साल से तो चल ही रही है, किंतु अब दौडऩे लगेगी। आईये,समझते हैं इस संभावना के आकार लेने की प्रक्रिया को।

कहने को 2018 में मप्र में भाजपा के हाथ से सत्ता एक दर्जन से भी कम सीटों से फिसल गई थी और शिवराज सिंह चौहान को लगातार 15 साल तक मुख्यमंत्री बनने का अवसर नहीं मिल पाया। वे इससे पहले 15 साल तक विदिशा से भाजपा के सांसद रह चुके थे। यूं भाजपा की ओर से चौथी बार किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।बहरहाल।

2018 के चुनाव में बहुमत से वंचित भाजपा को जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की कांग्रेस से बगावत के चलते राज्यारोहण का अवसर मिला तो सामने एक ही चेहरा था शिवराज सिंह का। संभव है, तब सिंधिया की ओर से मुख्यमंत्री पद की पेशकश न की गई हो या मानी नहीं गई हो।

तब भाजपा आलाकमान चाहता तो जो नाम सामने थे, उनमें से किसी के माथे तिलक कर सकता था। फिर भी शिवराज के हाथ ही बाजी लगी तो इसलिये कि वे प्रदेश चलाने के अनुभवी थे, कम विवादित थे, जनता के बीच मामा की छवि बरकरार थी, प्रदेश भाजपा में भी अपेक्षाकृत स्वीकार्य थे और ऊपर भी ऐसी कोई परेशानी नहीं थी, जो उनके चयन को बाधित करे। तब यह क्यों लग रहा है कि वे हटाये जा सकते हैं?

जो कारण पारदर्शी नजर आते हैं, उनमें कुछ पर चर्चा की जा सकती है। जिस बंदे के नेतृत्व में पिछला चुनाव हारे हों, उस पर फिर से दांव लगाना महंगा साबित हो सकता है । शिवराज पर इस समय पूरी तरह से नौकरशाहों के वशीभूत हो जाना प्रचारित है। वह भी एक व्यक्ति विशेष के। अनेक ऐसे प्रशासनिक अधिकारी,जो शिवराज के दायें-बायें रहें और निजी निष्ठा से दायित्व निभाया, वे महीनों से मिलने का इंतजार कर रहे हैं और शिवराज समय नदीं दे रहे।

 फिर, ज्यादातर समकक्ष और वरिष्ठ पार्टी नेताओं को अब उनका नेतृत्व मंजूर नहीं । प्रदेश में मामा-मिथक का तिलिस्म कमजोर पड़ चुका है। पिछले चुनाव में प्रत्याशी चयन में हुई चूक,सत्ता में सतत रहने का नुकसान, व्यक्ति केंद्रित राजनीति को प्रादेशिक राजनीति में नुकसानदेह मानना,जनता के बीच एक ही चेहरे के प्रति पैदा हुई एकरसता जैसे मिले-जुले कारणों से आलाकमान मुगालता नहीं पालना चाहता। यूं वैसे भी राजनीति में कब,किसे अनंतकाल तक बरदाश्त किया जाता है?

इस अटकल पच्चीसी के साथ ही यह उधेड़बुन भी चलना ही है कि शिवराज नहीं तो कौन? ऐसे मेंं एक सर्वाधिक संभावित चर्चा को तो स्थायी तौर पर विराम दिया जा सकता है। वह है ज्योतिरादित्य सिंधिया  का नाम। उनकी छवि ही ऐसी है कि प्रदेश की राजनीति में उनके नाम के बिना कोई सुरसुरी आगे नहीं बढ़ती। वे कांग्रेस की ओर से 2018 के सितारा प्रचारक रहे, तब से ही उन्हें संभावित मुख्यमंत्री माना जाता रहा।

बाजी किस तरह कमलनाथ के हाथ लगी और कैसे सिंधिया  बगावत कर भाजपा में आये, यह कहानी पुरानी हो चुकी। कांग्रेस में भी उनकी मंशा मुख्यमंत्री बनने की कम,अपेक्षित सम्मान मिलने की अधिक रही होगी, जो उनकी राजसी पृष्ठभूमि में तार्किक जान पड़ता है। भाजपा में उन्हें मुख्यमंत्री बनना होता तो मार्च 2020 में सर्वाधिक अनुकूल अवसर था, लेकिन उनकी निगाहें ऊपर थी, जहां वे अब हैं। प्रदेश की बागडोर संभालने के लिये जितना धीरज,समन्वयवादिता,समझौतापरक स्वभाव लाजिमी है, उसके लिये सिंधिया नहीं बने हैं। वैसे खुद सिंधिया  भी इतना तो जानते ही होंगे कि प्रदेश भाजपा का आम कार्यकर्ता और तपे हुए नेता उन्हें अपना आका स्वीकार नहीं कर सकते। केंद्र की राजनीति बेहद अलग मसला है और वे वहां महफूज हैं।

ऐसे में जो नाम बचते हैं,उनमें नरेंद्र सिंह तोमर,नरोत्तम मिश्रा,वी.डी.शर्मा,कैलाश विजयवर्गीय और प्रभात झा प्रमुख हैं। मुझे लगता है कि वी डी शर्मा को प्रदेश अध्यक्ष बनाये रखने तक किसी ब्राह्मण का मुख्यमंत्री बनना संभव नहीं । ऐसेे में आगामी चुनाव के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक पसंदीदा नाम नरेंद्र सिंह  तोमर का हो सकता है। वे प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं,अटलजी से लेकर तो मोदीजी तक के साथ काम कर चुके हैं। परिपक्व,प्रचार के अतिरेक से दूर रहने वाले,प्रदेश अध्यक्ष रहने के नाते संगठन के भी अनुभवी,केंद्र में कृषि जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय का सफलतापूर्वक संचालन,मोदीजी और अमित शाह सी साझा पसंद,मप्र में आम कार्यकर्ता से लेकर तो तमाम नेताओं के बीच निर्विवादित और विनम्रता उन्हें मौका दे सकती है।

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यूं देखा जाये तो मोदी-शाह की जुगलबंदी अटकलों को धता बताती रही है। गुजरात के मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेंद्र भाई पटेल नायाब उदाहरण हैं, जो बिना मंत्री रहे विधायक से सीधे मुख्यंमंत्री बनाये गये।। इस प्रयोग के बावजूद गुजरात भाजपा में किसी स्तर पर किसी किस्म की बगावत नहीं होना बताता है कि सांगठनिक किलेबंदी कितनी मजबूत है। अब मप्र में कोई इतना नया,चमकदार नाम नहीं निकलता है तो क्या किया जा सकता है। हरियाणा और गुजरात में जिस तरह से संघ पृष्ठभूमि से आये संगठन के पदाधिकारियों(नरेंद्र मोदी,मनोहरलाल खट्टर) को सीधे मुख्यमंत्री बनाया गया था, वैसी कोई संभावना मप्र में है क्या?