जीवन का सार (the essence of life) होते हैं मृत्यु के समय के अंतिम शब्द;
आपराधिक न्याय शास्त्र में मरणासन्न व्यक्ति की गवाही को बहुत महत्व दिया जाता है। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि मरता हुआ व्यक्ति झूठ नहीं बोलता। इसे न्यायिक भाषा में मरणासन्न कथन या डाइंग डिक्लेरेशन कहते हैं। यह तो हुई मरने के कुछ समय पूर्व की बात, जब व्यक्ति मरणासन्न तो है परंतु इतने होशो-हवाश में है कि वह सोच सकता है, घटना का वर्णन कर सकता है और बोल सकता है। परंतु इसके बाद की भी एक अवस्था है जब प्राण निकलने को ही होते हैं तब वह न सोच सकता है और न लम्बा वर्णन कर पाता है । तब मुँह से कुछ ही शब्द निकल पाते हैं। इन शब्दों का अध्यात्म की दृष्टि से बड़ा महत्व है। यह शब्द उस व्यक्ति के जीवन का निचोड़ होते हैं। विशेष बात यह है कि यह अंतिम शब्द सोच-विचारकर नहीं बोले जाते स्वत: स्फूर्त होते हैं इसलिए इस समय झूठ बोलना संभव नहीं होता।
इसे समझने के लिए एक कथा लेते हैं। एक राजा के दरबार में एक वहुभाषविद् आया। वह फर्राटे से कई भाषाऍं बोल सकता था। उसने चुनौती दी कि कोई उसकी मातृभाषा नहीं बता सकता। चुनौती स्वीकार कर अनेक लोगों ने उससे प्रश्न किये, चर्चा की, शायद मातृभाषा का अनुमान लग जाए। पर सब व्यर्थ। सभी भाषाओं पर उसका समान अधिकार था। अंत में राजा के बुद्धिमान मंत्री ने अचानक उसे सीढि़यों से धक्का दे दिया। इस आकस्मिक स्थिति के लिए वह तैयार नहीं था। इस समय उसके मुँह से जिस भाषा के शब्द निकले उसे सुनकर मंत्री ने उसकी मातृभाषा बता दी और शर्त जीत ली।
आकस्मिक स्थिति में जब सोचने का समय नहीं होता, बुद्धि काम नहीं करती तब शब्द से, कर्म से, संकेत से वही निकलता है जो हमारे अस्तित्व का अंश होता है। मातृभाषा हमारे व्यक्तित्व में रची-बसी होती है, हमारे अस्तित्व का अंग बन जाती है इसलिए आकस्मिक स्थिति में शब्द उसी भाषा में निकलते हैं।
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जीवन की सबसे आकस्मिक घटना मृत्यु होती है। जन्म होते ही उसके दूसरे पहलू – मृत्यु – का भी जन्म हो जाता है। गीता में कृष्ण कहते हैं जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म निश्चित है (जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च)। महाभारत में जब यक्ष ने युधिष्ठर से पूछा कि जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है तो युधिष्ठर ने कहा कि यह सुनिश्चित है कि हर व्यक्ति को मरना है पर हर व्यक्ति यह विश्वास करता है कि उसे अभी नहीं मरना है। मान लीजिए कि किसी शहर की जनसंख्या के अनुपात में प्रतिदिन औसतन 10 व्यक्तियों की मृत्यु होती है। इसे किसी शहरवासी को बताऍंगे तो वह इसे स्वीकार कर लेगा कि औसतन 10 व्यक्ति कल भी मरेंगे और परसों भी। परंतु उसे दृढ़ विश्वास होता है कि मैं उन 10 में शामिल नहीं हूँ। परंतु कभी न कभी तो उन 10 में उसकी गिनती होना ही है। इसलिए जब भी मृत्यु आती है तो वह उसके विश्वास के विपरीत आकस्मिक घटना होती है। इस आकस्मिक स्थिति में निकले शब्द उस सबका सार होते हैं जो उसने अपने पूरे जीवन में सोचा और किया है।
गीता भी इस बात को प्रमाणित करती है । कृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अंतिम समय में मेरा स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है वह मेरे स्वरूप में मिल जाता है (गीता 8.5)। एक अन्य श्लोक में कहते हैं कि जो एकाक्षर ब्रह्म ‘ॐ’ का उच्चारण और मेरा स्मरण करते हुए देह त्यागता है वह सर्वोच्च गति को पा जाता है (गीता 8.13)। परंतु अंतिम समय में सोच-विचारकर या बुद्धि से ऐसा स्मरण या उच्चरण करना संभव नहीं है । इसलिए गीता में कहा है कि ‘जिस रूप में व्यक्ति जीवन भर लीन रहा है, वही रूप देहत्याग के समय स्मरण में आता है और वह उसे ही प्राप्त करता है (गीता 8.6)।‘ तुलसीदास जी कहते हैं कि जन्म-जन्मांतरों तक मुनि प्रयत्न करते हैं परंतु अंत समय में राम का नाम मुख पर नहीं आता – जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं। यहॉं भी वही बात आती है कि प्रयत्न तो किया परंतु प्रयत्न इतना नहीं था कि वह उसके अस्तित्व में समा जाता।
अभी तो हम अपने आप को अपने शरीर, पद, धन-सम्पत्ति, परिवार के रूप में जानते हैं। यही हमारे अस्तित्व का आधार हैं। इसलिए मरते समय कोई संपत्ति की चिंता करता है, कोई पुत्र को पुकारता है, कोई मरने से पूर्व दुश्मन से बदला लेने का भाव रखता है। रावण भी मरते समय गरजता है, राम कहॉं है, मैं ललकारकर उसे युद्ध में मारूँगा – कहॉं राम रन हतौं पचारी। मृत्यु के आकस्मिक संकट की अवस्था में व्यक्ति की कोई चालाकी नहीं चलती । जो अंदर होता है वही अंत समय में बाहर आता है। गांधीजी को गोली लगी तो उनके अंतिम शब्द थे – ‘हे राम’। इससे हम गांधीजी की उच्च आध्यात्मिक अवस्था का अनुमान लगा सकते हैं।
अंतिम समय तो परीक्षा की घड़ी है जिसमें वही उत्तर लिखेंगे जो जीवन भर पढ़ा होगा। वह कौन सा तरीका है जिससे उत्तर ठीक लिखा जाए ? इसका उत्तर है ईश्वर का सतत स्मरण, अपने कार्यों को ईश्वर के निमित्त करना और ईश्वर को समर्पण करना। परंतु दुनिया की झंझटों में ईश्वर की याद आएगी कैसे ? श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि जैसे दॉंत के दर्द में व्यक्ति अपना दुनियावी कार्य तो करता है पर बीच-बीच में टीस याद दिलाती रहती है कि दॉंत में पीड़ा है। इसी प्रकार अपने काम के बीच-बीच में ईश्वर का स्मरण करते रहना है।
यह विधि सदैव मृत्यु के प्रति सजग रखती है और मृत्यु के प्रति सजगता ही भरपूर जीवन जीने की पहली सीढ़ी है। ऐसी सजगता में किसी से मिलते हैं तो इस प्रकार के गहरे भाव से जैसे यह अंतिम मुलाकात हो। जो काम आज करना है वह तत्परता से होता है क्योंकि कल का तो भरोसा नहीं है। जो काम कल होना है उसकी चिंता नहीं होती क्योंकि मृत्यु की सजगता में कल का अस्तित्व ही नहीं है। यह सजगता हमें वर्तमान में जीना सिखा देती है। भूत और भविष्य दोनों हमारे मस्तिष्क के उत्पाद हैं। उनका कोई अस्तित्व नहीं है। जो है वह तो वर्तमान है। वर्तमान में जीना ही ध्यान है। मृत्यु की सजगता से जीवन के द्वार खुल जाते हैं।
मृत्यु की सजगता एक बात है परंतु दूसरी बात इससे भी अद्भुत है। वह है ईश्वर से अनायास मृत्यु की मॉंग। एक प्रसिद्ध श्लोक है – अनायासेन मरणं बिना दैन्येन जीवनम् । देहान्ते तव सायुज्जं देहि में परमेश्वरम्। इसमें ईश्वर से अचानक मृत्यु, बिना दीनता का जीवन और मृत्यु पश्चात् ईश्वर में लीन होने की प्रार्थना की गई है। जो अचानक, सहज मृत्यु मॉंगेगा वह मृत्यु के प्रति सजग तो रहेगा ही। सहज और आकस्मिक मृत्यु की मॉंग चेतना की उच्चस्तरीय अवस्था में ही हो सकती है। मृत्यु तो अवश्यंभावी और आकस्मिक है परंतु इसे अनुभव करते हुए इस सजगता में जीना हमारा जीवन बदल सकता है। यह आंतरिक दशा दूसरों को अनुभव में नहीं आ सकती वह तो अंतिम समय में मुँह से निकले शब्दों से ही अनुमान कर पाऍंगे।
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