हमारे बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों के समाचार हमारी मानवीय संवेदनाओं को आए दिन परेशान करते हैं। विश्व स्तर पर इस दिशा में काम चल रहा है। हमारे देश में भी इस दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। कई कानून भी बनाए गए हैं। लेकिन, यह समस्या मात्र कानून से दूर होने वाली नहीं है। इस संबंध में हमें देश में जागरूकता लाकर ऐसा माहौल बनाना होगा जिसमें बाल अपराधों को करने वाले व्यक्तियों को समाज का दुश्मन माना जाए।
बच्चों के विरूद्ध होने वाले अपराध हमारी चिंताओं को बढ़ा रहे हैं। आए दिन बच्चों के विरूद्ध होने वाले अपराध समाचार पत्रों एवं मीडिया में प्रकाशित होते रहते हैं। यूनिसेफ के अनुसार बच्चों के विरूद्ध हिंसा ‘शारीरिक और मानसिक दुर्व्यवहार और चोट, उपेक्षा या अशिस्ट व्यवहार, शोषण और यौन दुर्व्यवहार के रूप में हो सकती है।’ यह घर, स्कूलों, अनाथालयों, आवास गृहों, सड़कों पर, कार्यस्थल पर, जेल में और सुधार गृहों आदि में कहीं भी हो सकती है।
इस प्रकार की हिंसा न केवल बच्चों के सामान्य विकास को प्रभावित करती है, बल्कि उनके मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विश्वास और विकास को भी नुकसान पहुंचाती है। पिछले एक दशक में भारत में बच्चों के विरूद्ध होने वाले अपराधों में 500 प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी हुई है। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि इन अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है। हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार सन् 2015 और सन् 2016 में, भारत में बच्चों के विरूद्ध होने वाले अपराधों में 11% वृद्धि हुई।
भारतीय दंड संहिता और विभिन्न सुरक्षात्मक कानूनों में इन अपराधों को विशिष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, जिनके शिकार बच्चे होते हैं। बच्चे की आयु, संबंधित अधिनियमों और धाराओं में दी गई परिभाषा समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है, लेकिन किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु वर्ग को बच्चे के रूप में परिभाषित किया गया है।
वर्तमान में भारत तथा विश्व के विभिन्न भागों में बच्चों का यौन शोषण एक गंभीर एवं व्यापक समस्या है। यौन शोषण से पीड़ित बच्चों की मानसिक क्षति एवं उनके विकास को रोक सकती है। साथ ही ऐसे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक विकारों में वृद्धि कर सकती है। अधिकांश मामलों में ये यौन शोषण संबंधी अपराध समाज के सामने नहीं आते हैं। बच्चों को आवश्यक सुरक्षात्मक एवं चिकित्सकीय सहायता भी उपलब्ध नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में बच्चे खामोशी ओढ़ लेते हैं तथा पीड़ा सहते रहते हैं।
भारत सरकार द्वारा सन् 1992 में यूनिसेफ के बाल अधिकारों पर हुए सम्मेलन (कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड) को अभिस्वीकृति प्रदान की गई थी। सन् 2012 से पहले तक भारत में बच्चों के प्रति किये अपराधों के संबंध में समुचित कानून नहीं था। इस कारण ऐसे मामलों में प्रकरण भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 354, 375, 377 तथा 509 के अधीन दर्ज किए जाते थे। वर्ष 2012 में संसद द्वारा 18 वर्ष से कम आयु के यौन शोषण पीड़ितों के लिए लैंगिक अपराधों से बालकों की सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया।
सरकार ने बाल अधिकारों के लिए कई संवैधानिक प्रावधान किए हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। साथ ही अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को कारखाने अथवा खानों या किसी अन्य खतरनाक रोजगार में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 39 (एफ) के अंतर्गत प्रत्येक राज्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपनी नीति को बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति की सुरक्षा की दिशा में निर्देशित करें तथा उन्हें स्वस्थ रीति से विकसित होने के लिए समुचित अवसर एवं सुविधाएं प्रदान करें।
बाल यौन शोषण से संबंधित जो आंकड़े उपलब्ध है उनके अनुसार यह राहत की बात है कि 1993 से 2005-06 के मध्य बाल यौन शोषण की चिन्हित घटनाओं की संख्या में 47% की कमी आई है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो 2016 के अनुसार पूरे भारत में बच्चों के विरूद्ध 93,344 मुकदमें दर्ज हुए हैं। इसका कारण यह है कि अब तक केवल 38% यौन शोषितों ने ही इस तथ्य को प्रकट किया है कि उनके साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ है।
प्रकाश में आने वाले सभी यौन आक्रमणों (वयस्कों पर हुए यौन आक्रमणों सहित) में से लगभग 70% 17 वर्ष और उससे कम आयु के किशोरों और बच्चों पर हुए हैं। यह तथ्य चौंकाता है, कि यौन शोषण के शिकार बच्चों में से लगभग 90% अपने साथ दुर्व्यवहार करने वाले से परिचित होते हैं। यौन शोषण के शिकार केवल 10% बच्चे ऐसे हैं जिनके साथ अपरिचितों द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है।
पास्को अधिनियम 2012 के अंतर्गत यह बच्चों को यौन आक्रमण, यौन उत्पीड़न तथा पाॅर्नोग्राफी के अपराधों से संरक्षण प्रदान करता है। इसके द्वारा इस प्रकार के अपराधों एवं उनसे संबंधित या आनुशांगिक मामलों के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान भी किया जाता है। यह अधिनियम 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बालक या बच्चा घोषित करता है तथा 18 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को यौन आक्रमण, यौन उत्पीड़न और अष्लीलता के अपराधों से संरक्षण प्रदान करता है। इसके अंतर्गत पहली बार स्पर्श एवं गैर-स्पर्श व्यवहार के पहलुओं को यौनअपराधों की परिधि में समाविष्ट किया गया है। इसमें अपराधों की रिपोर्टिंग, साक्ष्यों का अभिलेखीकरण तथा जांच एवं ट्रायल के लिए ऐसी प्रक्रियाओं को शामिल किया गया है। जो बच्चे के अनुकूल हों।
अपराध करने के प्रयास को भी दंड के लिए एक आधार माना गया है। इसके लिए अपराध के लिए निर्धारित दंड के आधे दंड तक का प्रावधान किया गया है। यह अपराध के लिए उकसाने के लिए भी दंड का प्रावधान करता है, जो अपराध करने पर मिलने वाले दंड के समान होगा। इसके साथ ही इसके तहत यौन प्रयोजनों के लिए बच्चों के दुर्व्यापार को भी समाविष्ट किया जाता है। इसके तहत पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असाल्ट, एग्रावेटेड पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असाल्ट, सेक्सुअल असाल्ट तथा एग्रिवेटेड योन हमले जैसे जघन्य अपराधों में अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने का दायित्व आरोपी पर है। इस कानून में मीडिया को विशेष न्यायालय की अनुमति के बिना बच्चे की पहचान को बताने से प्रतिबंधित भी किया गया है।