नारायण-नारायण… यहां तो “छला” जा रहा है “छलिया” के नाम पर …

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प्रेम तो सर्वस्व समर्पण का नाम है। लूटने वाला भी आनंदित रहता है और लुटने वाला भी खुशी-खुशी लुटकर आनंद की थाह पाने में मगन रहता है। अब भगवान भोलेनाथ प्रेम में ही तो गोपी का रूप धारण कर राधा-कृष्ण के महारास में शामिल होने गए थे। तो गोवर्धन परिक्रमा में एक कुसुम सरोवर है।
इस कुसुम सरोवर की भी अपनी कहानी है। कुसुम सरोवर का मध्यप्रदेश कनेक्शन यह है कि इस सरोवर का पक्का निर्माण सन् 1619 में ओरछा के राजा बीर सिंह जू देव ने कराया था। तो सन् 1723 में भरतपुर के महाराजा सूरजमल ने इसे कलात्मक स्वरूप दिया था। सूरजमल के पुत्र महाराज जवाहर सिंह ने सन 1768 में यहां अनेक छतरियों का निर्माण कराया था। यह तो यहां के निर्माण की एक यात्रा हुई। तो इसका धार्मिक महत्व यह है कि कुसुमा सखी की कुंज और रासलीला के समय कृष्ण ने राधा के बालों में यहां वेणी गूंथी थीं। यह प्राचीन सरोवर इसका साक्षी रहा है। तो कुसुम-सरोवर के दक्षिण-पूर्व से चार सौ मीटर की दूरी पर नारद-कुंड है।
जहाँ श्री नारदजी तपस्या करते थे। वृंदा देवी से नारद जी ने गोपी-भाव की महानता सुनी, तब श्री नारदजी के अंत:करण यानि मन में श्री राधा कृष्ण के दिव्य युगल स्वरुप की गोपी भाव से प्रेम करने की तीव्र इच्छा प्रकट हुई। अब श्री नारदजी ने अपनी उपासना गोपी भाव से शुरु कर दी। लंबे समय तक ऐसा करने के बाद, योगमाया ने श्री नारदजी को कुसुम-सरोवर में डुबकी लगवाई जिसकी वजह से उन्हें गोपी का स्वरुप प्राप्त हुआ। इसके बाद, वह दिव्य युगल की सेवा करने योग्य हो गए।
कन्हैया का प्रेम ही ऐसा है कि नारद, शंकर आदि अपने पुरुष स्वरूप को त्यागकर गोपी बनकर लुटते-लुटते ही परमसुख में डूबे बिना नहीं माने। वाकई यह लुटना मन को भाता है। मन को लगता है कि छले जाते रहो और लुटते ही रहो। तो छलने वाले को लगता है कि अभी छला ही कहां है, अभी तो बस शुरुआत ही हुई है। फिर चाहे नारायण हों या शंकर और प्रेम में पगे महाप्रभु की तो लीला ही न्यारी है। राधा को लगता है कि तुम छलिया हो कृष्ण, तो मन की चाह भी यही कि कन्हैया हमें छोड़कर कहीं जाना नहीं छलते रहो सदा।
कुसुम सरोवर की याद आते ही देवर्षि नारद को कलियुग में भी कृष्ण की भूमि पर जाने का मन हो गया। और वह नारायण-नारायण उच्चारण करते प्रकट हो गए बृज में। फिर वह गोवर्धन के उस परिक्रमा मार्ग में पहुंच गए, जहां पहुंचकर छलिया की माया में भक्त काया से बेसुध हो जाएं। खुद नारद भी हुए थे। नारद ने देखा कि ई-रिक्शा में बैठकर श्रद्धालु गिरिधर के प्रेम में सराबोर हो रहे हैं, तो नंगे पांव पैदल चलकर गोवर्धन परिक्रमा करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। कृष्ण तो द्वापर में भी भक्तवत्सल थे और कलियुग में भक्तों की पीर हर उन पर द्वापर से भी ज्यादा लाड़ बरसा रहे हैं। देशी के साथ विदेशी भक्तों को देख देवर्षि समझ गए कि महाप्रभु की माया अनंत है। परिक्रमा मार्ग पर बने मंदिरों में वह भी बदले हुए रूप में मत्था टेकने लगे।
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परिक्रमा मार्ग में पहला मंदिर गिरिराज धरण का मिला तो देवर्षि उसमें प्रवेश कर गए। द्वार पर ही पानी मिला दूध का गिलास और फूल-प्रसाद का दौना लेकर देवर्षि भी अन्य भक्तों की तरह अंदर मुख्य मंदिर में प्रविष्ट हो गए। अभी दूध से गिरिधर के स्नान कराए ही थे कि वहां विराजे जवान लाला की मीठी आवाज कानों में गूंज गई। कहां से आए हो लाला। तो देवर्षि ने बता दिया कि जहां कृष्ण को शिक्षा मिली थी, उस देश से आए हैं लाला। तो बात आगे बढ़ी और फिर मुद्दे की बात होने लगी कि कन्हैया को कौन सा भोग लगाओगे बाल भोग, मंगला और एक लंबी सूची…। नारद को चैन नहीं पड़ा और बोल पड़े कि कन्हैया तो बस प्रेम और भक्ति को भूखों है लाला। तो लाला ने जवाब दयो कि दान के बिना काम नहीं चले भैया।
जो करने होय सो कर दो। देवर्षि ने भी कम से कम 201 पे राजी होवो ही ठीक समझौं। जब जोर देवे बारो लाला बाहर गयौं, तो देवर्षि से दूसरे लाला ने कहा कि बाल भोग की जगह मंगला भोग लगाय लो। तो देवर्षि ने भी हामी भर दी। तब तक दूसरो लाला लौट आओ और जब पता चलो कि दान तो बढ़ गयो। तो फिर खुश होके बोलन लगो कि हमें तो पता था कि सच्चे भक्त हो कन्हैया के। और फिर मान-मनुहार पहले से ज्यादा करते हुए बोलो कि गिरिधारी को एक पीपा घी को भोग लगा दो महाराज। एक पीपा यानि दस-ग्यारह हजार को दान। देवर्षि मन ही मन मुस्कराए, पर लाला से बोले अब अगली बार आएंगे…तब फिर करेंगे दान एक पीपा घी का। पर अब तो लाला ने जाल फेंक दिया था और हार तो मंजूर नहीं थी। आखिर देवर्षि को भी पसीना आ गया और एक पीपा की जगह एक किलो घी पर बात बन पाई।

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देवर्षि ने मन ही मन सोचा कि द्वापर में तो बस कन्हैया ही छलिया थे, अब तो उनके नाम पर भक्तों को छलने वाले गोवर्धन में ही हजारों हैं। और आगे बढ़े तो कुसुम सरोवर देखकर नारद का मन प्रफुल्लित हो गया। पहले कच्चा सरोवर अब सुंदरता के आकाश को चूम रहा है। सब कन्हैया की कृपा है, सोचकर देवर्षि आगे बढ़े। तो मानसी गंगा पर फिर लालाओं का वही खेल। तो प्रेम से थोड़ा की चाह वालों के भोले चेहरे भी दिखे, मानो यह कह रहे हों कि हमें मायूस मत करना। राधा-कृष्ण के भाव में डूबे इन चेहरों को देख ह्रदय में उनके प्रति प्रेम बरबस ही फूट पड़े। यहां चाह यही कि एक पाव दही ही खा लेंगे भैयाजी। प्रतिकार करो तो यही कि मांगना हमारा काम, देना है तो प्रेम से दे दो, नहीं तो राधे-राधे।

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फिर उंगली पर गोवर्धन उठाए गिरिराज जी का मंदिर। और यहां भी सेवा और मेवा का वही भाव प्रेम में पगा मन को लुभाता भी है, तो जेब पर तरस भी खाने लगता है। और गोवर्धन परिक्रमा के बाहर गिरिधारी के मंदिर में तो मानो कन्हैया की भी परीक्षा लेने पर उतारू हो गए लाला। बाहर देवर्षि ने थोड़ा चढ़ावा किया। तो देवर्षि के गले में पड़े और सिर पर बंधे गमछे देख लाला ताड़ गए कि पीपा भर से ज्यादा घी तो चढ़ा आयो भक्त।
फिर क्या था, बिना रजा के ही लाला ने हाथ से सिर पकड़कर दो बार अपने चरणों में झुकाकर भक्त को अंदर कन्हैया के नाम पर दूसरे लाला के पास धकेल दिया कि एक पीपा घी देवेगौं जौं भक्त। अंदर पीपा घी के लालच में लाला ने आशीर्वाद की पुड़िया का लालच पूरे मन से दिया। पर जब देवर्षि ने आइना दिखाया तो लाला को भी गुस्सा आ गया। फिर पूछ ही लिया कहां से आए हो। पता चला कृष्ण की गुरुस्थली से, तो उलाहना भी दे दिया कि का हमै पता नहीं कि महाकाल के पंडा का करत हैं। जाओं उतई ज्ञान की बात करियो भैया। तुमैं पतो नईंयां कि एक महीने की 85 लाख की सेवा है कन्हैया की। प्रशासन की तरफ से तय है, तो अब हम का कर सकें।
देवर्षि की बात सुनकर कन्हैया खुद आ गए और मुस्कराते हुए पूछने लगे कि नारद जी क्या परिक्रमा करते-करते थक गए हो। प्रभु की मुस्कान देख नारद समझ गए कि आज गोवर्धन आने की यात्रा फलदायी हो गई है। कृष्ण ने मुस्कान बिखेरी और बोले वत्स “जो जैसा करेगा, वह वैसा भरेगा।” यह कहते हुए कन्हैया अंतर्ध्यान हो गए और नारद “कुरुक्षेत्र” का ध्यान कर “गीता ज्ञान” में डूब गए। नारद को लगा कि कुछ दो या न दो, पर बृज में हो तो कन्हैया के प्रेम में ही डूबे रहो। जितने प्रेम से कोई छलने की कोशिश कर रहा है, उससे ज्यादा प्रेम से राधे-राधे बोलते हुए तुम भी दौड़ लगाकर प्रेम की यात्रा पर आगे बढ़ जाओ। यह सोच कि यहां छलिया के नाम पर ही छलने की कोशिश कितनी प्रेम से भरी है, नारायण-नारायण कह नारद अपने लोक को वापस लौट गए।


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