परिवारवाद से दूरी…भाजपा के लिए मजबूरी या जरूरी ?

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Pachmarhi
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कौशल किशोर चतुर्वेदी की विशेष रिपोर्ट

– मध्यप्रदेश में शिव-विष्णु के नेतृत्व में आगामी 2023 चुनाव का एजेंडा हो रहा तैयार…आगामी दो दशक के हिसाब से नया नेतृत्व लेगा आकार !

 

भाजपा ने चार उपचुनावों में परिवारवाद से दूरी बनाकर यह साफ कर दिया है कि मध्यप्रदेश में अब आगामी दो दशक के मुताबिक भाजपा की नई टीम आकार ले रही है। शिवराज सिंह चौहान की चार पारियों में पुराने हो चुके चेहरों के लिए यह खास संकेत है। भाजपा में एक ही परिवार की अलग-अलग पीढ़ी अब सक्रिय राजनीति के लिए साथ-साथ चुनाव लड़ने का सपना देख रही हों, तो त्याग दें।

पार्टी के दिग्गज नेता यदि यह सोच रहें हों कि जीते जी नहीं तो कम से कम मरने के बाद पार्टी उनके त्याग और पार्टी के प्रति समर्पण का सम्मान करते हुए उनके बेटे-बेटियों को उपकृत करना नहीं भूलेगी, तो अब वह इस गलतफहमी को दिमाग के किसी कोने में रखने की भूल न करें। बल्कि अब यह समझकर संतोष कर लें कि भाजपा परिवारवाद और वंशवाद की पोषक नहीं है। भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी कैडर बेस पॉलिटिकल पार्टी है, जिसकी अपनी राजनीतिक विचारधारा का परिवारवाद से कोई वास्ता नहीं है।

मध्यप्रदेश में हो रहे चार उपचुनाव में पार्टी के दिग्गज नेता नंदकुमार सिंह चौहान और जुगलकिशोर बागरी के दावेदार पुत्रों को टिकट न देकर कहीं न कहीं पार्टी ने यह साफ संकेत दिया है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में पार्टी का एजेंडा साफ है कि परिवारवाद-वंशवाद नहीं चलेगा। यह तस्वीर भी साफ है कि शिवराज-विष्णु के नेतृत्व में अब पार्टी वह नई टीम तैयार करेगी जो भाजपा को दो दशक आगे तक पूरी ऊर्जा के साथ लेकर जाएंगे। संगठन में नए चेहरों को जगह देकर विष्णु साफ कर ही चुके हैं। लगता है कि अब विधायक-सांसद बनाने के लिए भी पार्टी ने इसी फार्मूले पर चलने का मन बना लिया है।

वैसे परिवारवाद से दूरी भाजपा की मजबूरी है क्या? निश्चित तौर से इसका जवाब है हां। तो फिर सवाल यह भी बनता है कि परिवारवाद से दूरी भाजपा के लिए जरूरी है क्या? निश्चित तौर से इसका भी जवाब है हां। मतलब साफ है कि संघ, जनसंघ और भाजपा सभी की सोच में परिवारवाद, व्यक्तिवाद और वंशवाद जैसे शब्दों को कोई जगह नहीं है बल्कि कार्यकर्ता आधारित दल में योग्य कार्यकर्ता पदों का हकदार बने, यही अपेक्षा की गई है।

पर संक्रमण के दौर में ऐसा महसूस हुआ कि भाजपा भी कांग्रेस की राह पर चलने की तैयारी में है। ऐसे में कांग्रेस को पल-पल गांधी परिवार के नाम पर कोसने वाली भाजपा की यह मजबूरी है कि परिवारवाद से वह खुद भी दूरी बनाए। जिस प्रकार एक संस्मरण है कि महात्मा के पास एक व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर गए कि महात्मा जी बच्चे को शिक्षा दीजिए कि यह गुड़ खाना छोड़ दे। महात्मा सोच में पड़ गए और बोले अगले सप्ताह आना। वह व्यक्ति लौट गया और फिर एक सप्ताह बाद बच्चे को लेकर पहुंचा।

महात्मा ने बच्चे को गुड़ न खाने की नसीहत दी और बच्चे ने गुड़ खाना छोड़ दिया। व्यक्ति ने महात्मा से पूछा कि यह शिक्षा आपने एक सप्ताह पहले क्यों नहीं दी, तो उन्होंने सहज भाव से कहा कि तब मैं भी गुड़ खाता था तो बच्चे को गुड़ खाने से कैसे मना करता। यही प्रसंग भाजपा के साथ है। गांधी परिवार पर परिवारवाद की मिसाइल लगातार दागने वाली भाजपा की मजबूरी है कि परिवारवाद को पार्टी में जगह न बनाने दे। और पार्टी ने इन चार उपचुनावों के जरिए यह संदेश देने का सफल प्रयास किया है।

दूसरी बात यह कि सत्ता में सालों से राज कर रही भाजपा के लिए यह जरूरी भी हो गया है कि परिवारवाद-वंशवाद की बेल को अपने घर में फैलने से पहले ही सुखा दे, काटकर फेंक दे वरना बाद में फिर कांग्रेस की तरह ही दुर्गति के लिए तैयार रहना पड़ेगा। लगातार सत्ता में रहने की वजह से भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में भी यह आशंका बलवती हो रही है कि अब तो नेताजी का बेटा ही नेताजी बनेगा।

उनका काम तो दरी उठाना ही रह गया है। ऐसी आशंकाओं को नेस्तनाबूत करने में परिवारवाद से दूरी का यह कदम कार्यकर्ताओं में यह साफ संदेश देगा कि भाजपा अलग विचारधारा वाला दल है और इसमें चाय वाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद या विधायक के परिवार में ही टिकट देने की परंपरा का पोषण भारतीय जनता पार्टी नहीं करेगी। कार्यकर्ताओं में यह भरोसा कायम करना भाजपा के लिए जरूरी हो गया है, क्योंकि कार्यकर्ता का भरोसा थोड़ा सा भी डांवाडोल होता है तो सत्ता में रहने का सपना पल भर में चकनाचूर हो जाता है, इसका दंश भाजपा झेल चुकी है।

मुरली का यदि यह राग था कि कई बार विधायक-सांसद बन चुके नेता यदि टिकट न मिलने से असंतुष्ट होते हैं तो वह नालायक है…निश्चित तौर से शब्द भले गलत हों लेकिन भाव सही था। और उपचुनावों में जिस तरह पार्टी ने सहानुभूति मतों का मोह त्यागकर परिवारवाद से किनारा किया है, वह मुरली की बांसुरी की आवाज को पल्लवित कर रहा है।

अब बात कर लें उन दो दिग्गज नेताओं की, जिनके निधन के बाद भाजपा ने उनके पुत्रों की दावेदारी को दरकिनार कर परिवारवाद पर कुल्हाड़ी चलाई है। पहला है खंडवा लोकसभा उपचुनाव, जहां भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के बतौर पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे स्वर्गीय नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे हर्ष का नाम संभावित लग रहा था…वहां भाजपा ने ज्ञानेश्वर पाटिल के नाम पर मुहर लगाई है।

नंदकुमार सिंह चौहान ने भाजपा की सच्चे सिपाही के रूप में सेवा की। दो बार विधायक, छह बार सांसद, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सहित उन्होंने विभिन्न पदों को सुशोभित किया था। पार्टी ने भी उन्हें पूरा सम्मान दिया। लेकिन उनके निधन से रिक्त खंडवा लोकसभा उपचुनाव में उनके पुत्र हर्ष को टिकट से नहीं नवाजा। जैसा कि कांग्रेस ने पृथ्वीपुर विधानसभा उपचुनाव में स्वर्गीय बृजेंद्र सिंह राठौर के पुत्र नितेंद्र को चुनाव मैदान में उतारा है।

जबकि रैगांव विधानसभा उपचुनाव में भी भाजपा ने दिग्गज नेता, पांच बार विधायक और कैबिनेट मंत्री रहे स्वर्गीय जुगलकिशोर बागरी के पुत्र पुष्पराज की दावेदारी को दरकिनार कर प्रतिमा बागरी को टिकट देकर यही संदेश दिया है कि भाजपा “पार्टी विद डिफरेंस” थी, है और रहेगी।

निश्चित तौर से पार्टी के इस कदम से उन वरिष्ठ नेताओं में निराशा का भाव होगा, जो यह सोच रहे होंगे कि वह विधायक मंत्री रहें और उनके चुनाव प्रबंधन में कुशल, उम्रदराज हो रहे बेटे को सांसद का टिकट मिल जाए। या फिर बेटे को विधायक का टिकट मिल जाए और वह सांसद का टिकट पा जाएं।

या फिर दोनों को अलग-अलग सीट से विधायक का टिकट मिल जाए। मोदी की मंशा के मुताबिक शिव-विष्णु के परिवारवाद पर शिकंजा कसने पर मध्यप्रदेश भाजपा में यह सभी फार्मूले फेल साबित होना तय हो गया है। और केंद्रीय चाबुक चला रहे मुरली-शिव की चली तो 2023 विधानसभा चुनाव में कई पुराने दिग्गज चुनाव मैदान से नदारद दिखेंगे।

इससे भी आगे जो चुनाव लड़ने के लकी ड्रा में विजयी भी हो गए, तो पार्टी की सरकार बनने पर भी उनके मंत्री बनने की गारंटी नहीं है, क्योंकि मोदी का गुजरात प्रयोग सबके सामने है। तो अब निगाहें उसी तरफ रखिए कि जिस तरह 2003 में भाजपा सत्ता और संगठन में चेहरे 1993 से बिल्कुल अलग थे, ठीक उसी तरह 2023 की भाजपा भी 2003 से एकदम अलग दिखने की तैयारी कर रही है। कौन मार्गदर्शक बनेगा, किन परिवारों को मुख्यधारा का मोह त्यागना पड़ेगा और कौन मुख्यधारा में रहेगा…यह वक्त ही बताएगा।