रायरंगपुर से राष्ट्रपति भवन तक ऑरोबिंदो को नहीं भूली मुर्मू …

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द्रौपदी मुर्मू के भारत का प्रथम नागरिक बनने तक का सफर वास्तव में एक अंतिम छोर के व्यक्ति का देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने का है। यह अब इतिहास में दर्ज हो गया है। ऐतिहासिक दृश्य यह भी मन को मोहने वाला है कि अंतिम छोर से इसी कुर्सी तक पहुंचे पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अंतिम छोर से राष्ट्रपति बनी पहली आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को कुर्सी पर बैठाया और खुद उनके पीछे खड़े होकर ऐतिहासिक तस्वीर का हिस्सा बने। इतिहास यह भी है कि स्वतंत्र भारत में जन्मी द्रौपदी मुर्मू पहली व्यक्ति बन गई हैं राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचने वाली। तो इतिहास बनने की लंबी श्रंखला है। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि रायरंगपुर में शिक्षक बन सेवा देने वाली मुर्मू राष्ट्रपति भवन पहुंचने तक महर्षि ऑरोबिंदो को नहीं भूलीं। उनका भी जिक्र किया और उनके शिक्षा संबंधी विचारों की बात भी की। देश के प्रथम नागरिक होने की दृष्टि मुर्मू के भाषण में साफ नजर आई।
द्रौपदी मुर्मू ने साझा किया कि दशकों पहले मुझे रायरंगपुर में श्री ऑरोबिंदो इंटीग्रल स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। कुछ ही दिनों बाद श्री ऑरोबिंदो की 150वीं जन्मजयंती मनाई जाएगी। शिक्षा के बारे में श्री ऑरोबिंदो के विचारों ने मुझे निरंतर प्रेरित किया है। राष्ट्रपति के भाषण के साथ यह अब सभी को पता चल गया है कि देश की आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर देश का हर नागरिक स्वतंत्रता के जश्न में महर्षि की 150 वीं जन्मजयंती भी मना रहा होगा। महर्षि का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। यह महर्षि के विचारों का असर है जो मुर्मू के विचारों में झलकता नजर आया। उन्होंने कहा कि जगत कल्याण की भावना के साथ, मैं आप सब के विश्वास पर खरा उतरने के लिए पूरी निष्ठा व लगन से काम करने के लिए सदैव तत्पर रहूंगी। मैंने अपने अब तक के जीवन में जन-सेवा में ही जीवन की सार्थकता को अनुभव किया है।
जगन्नाथ क्षेत्र के एक प्रख्यात कवि भीम भोई जी की कविता की एक पंक्ति है: “मो जीवन पछे नर्के पड़ी थाउ, जगत उद्धार हेउ”। अर्थात, अपने जीवन के हित-अहित से बड़ा जगत कल्याण के लिए कार्य करना होता है।मेरा जन्म तो उस जनजातीय परंपरा में हुआ है जिसने हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ ताल-मेल बनाकर जीवन को आगे बढ़ाया है। मैंने जंगल और जलाशयों के महत्व को अपने जीवन में महसूस किया है। हम प्रकृति से जरूरी संसाधन लेते हैं और उतनी ही श्रद्धा से प्रकृति की सेवा भी करते हैं। उन्होंने युवाओं को भी आश्वस्त किया कि मैं अपने देश के युवाओं से कहना चाहती हूं कि आप न केवल अपने भविष्य का निर्माण कर रहे हैं बल्कि भविष्य के भारत की नींव भी रख रहे हैं। देश के राष्ट्रपति के तौर पर मेरा हमेशा आपको पूरा सहयोग रहेगा। मैं चाहती हूं कि हमारी सभी बहनें व बेटियां अधिक से अधिक सशक्त हों तथा वे देश के हर क्षेत्र में अपना योगदान बढ़ाती रहें। मैंने देश के युवाओं के उत्साह और आत्मबल को करीब से देखा है। तो अटल जी को याद करना भी नहीं भूलीं। उन्होंने कहा कि हम सभी के श्रद्धेय अटल जी कहा करते थे कि देश के युवा जब आगे बढ़ते हैं तो वे सिर्फ अपना ही भाग्य नहीं बनाते बल्कि देश का भी भाग्य बनाते हैं। आज हम इसे सच होते देख रहे हैं।
बात महर्षि ऑरोबिंदो की हुई है तो हम जानते हैं कि उनके शिक्षा संबंधी विचार क्या थे? महर्षि इस प्रकार की शिक्षापद्धति चाहते थे जो विद्यार्थी के ज्ञान-क्षेत्र का विस्तार करे, जो विद्यार्थियों की स्मृति, निर्णयन शक्ति एवं सर्जनात्मक क्षमता का विकास करे तथा जिसका माध्यम मातृभाषा हो। अरविन्द राष्ट्रीय विचारों के थे। अत: वे शिक्षा-पद्धति को भारतीय परम्परानुसार ढालना चाहते थे। उन्होंने शिक्षा द्वारा पुनर्जागरण का संदेश दिया था। यह पुनर्जागरण तीन दिशाओं की ओर उन्मुख होना चाहिए। पहला प्राचीन आध्यात्म-ज्ञान की पुर्नस्थापना हो। दूसरा इस आध्यातम-ज्ञान की दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान व विवेचनात्मक ज्ञान में प्रयोग हो। तीसरा वर्तमान समस्याओं का भारतीय आत्म-ज्ञान की दृष्टि से समाधान की खोज तथा आध्यात्म प्रधान समाज की स्थापना हो। तो उम्मीद करते हैं कि द्रौपदी मुर्मू के पांच साल के कार्यकाल में देश नई शिक्षा नीति के जरिए कहीं न कहीं महर्षि ऑरोबिंदो की शिक्षा संबंधी दृष्टि को आत्मसात कर धरातल पर विस्तार देगा। महर्षि के शिक्षा संबंधी विचार इतने प्रभावी हैं कि रायरंगपुर से राष्ट्रपति भवन तक महामहिम ऑरोबिंदो को नहीं भूली …।