‘ सरकार की कमियों – कठिनाइयों से फायदा उठाना विपक्ष की राजनीति का अंग है | लेकिन सरकार को परेशान करने के लिए कठिनाइयां उत्पन्न करना लोकतंत्र के लिए अनुकूल नहीं है | पिछले कुछ महीनों से कई विपक्षी दल यही करते रहे हैं | उनका उद्देश्य मुसलमानों , दलितों और महिलाओं के बीच असंतोष पैदा करना भड़काना है | लेकिन इससे किसीको लाभ नहीं होगा | ‘
‘ बेरोजगारी की आशंका से असुरक्षा की भावना पैदा हो तो बात समझ में आती है | यह लोगों को कष्ट देने वाली मानवीय सामाजिक समस्या है , इसलिए हम भी चिंतित हैं | युवा लोगों की योग्यता और आशाओं के अनुरूप समुचित संख्या में रोजी रोजगार होने चाहिए | लेकिन बुनियादी तौर पर बेरोजगारी का एक ही हल – कृषि और उद्योगों का बड़े पैमाने पर विकास किया जाए | इसके लिए सभी वर्गों पक्षों यानी पूरे राष्ट्र के प्रयासों की जरुरत होगी | “
उपरोक्त दोनों उद्धरण वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी या उनके किसी सहयोगी के भी हो सकते हैं ? जी नहीं ये दोनों बातें 42 साल पहले 1980 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी के हैं | पहला उद्धरण 18 नवम्बर को श्रीमती गाँधी द्वारा केरल में मलयालम अख़बार मातृभूमि के एक प्रश्न का उत्तर है | दूसरा 1 अप्रेल 1980 को दिल्ली विश्वविद्यालय में दिए भाषण का अंश है | इनका उल्लेख करना इसलिए मुझे उचित लगा कि हाल के महीनों में कांग्रेस ( आई ) यानी इंदिरा गांघी के नाम से अधिकृत पार्टी और उसके सहयोगी दल इन मुद्दों को हथियार बनाकर असंतोष तथा आंदोलन खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं | लेकिन इससे समाज और राष्ट्र की प्रगति का असली लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है |
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि भारत में कुछ समूह और कुछ राजनीतिक दल संकीर्ण और समाज को कुंठित करने वाले मत मतान्तरों और विचारों से देश में असंतोष की आग भड़काने के प्रयास कर रहे हैं | आज़ादी के 75 वर्ष होने के बावजूद यह नहीं कि देश के विभिन्न भागों में असंतोष , तनाव , हिंसा पैदा करने के लिए कुछ संगठनों और तत्वों का इस्तेमाल किया जाता रहा है | जम्मू कश्मीर , पंजाब से पूर्वोत्तर अथवा झारखण्ड – छत्तीसगढ़ – आंध्र – ओड़िसा में आतंकवादी अथवा नक्सलवादी विदेशी सहायता से गड़बड़ी फैलाते हैं | ऐसा नहीं कि यह हाल के वर्षों की सरकारी धारणा या प्रचार है | इंदिरा युग से मोदी राज की सुरक्षा एजेंसियां इस बात को रेखांकित करती रही हैं |कई मामलों में विदेशी संपर्कों और फंडिंग के पर्याप्त प्रमाण अदालतों में साबित नहीं हो पाने से यह नहीं कहा जा सकता कि यह केवल आशंका है |
विदेशी ताकतें , आतंकवादी संगठन और उनकी कठपुतलियां हर तरह के छल प्रपंच करती हैं | उनका लक्ष्य सामाजिक आर्थिक विकास के रथ को किसी भी तरह रोकना है | इससे जुडी एक गंभीर बात यह है कि मानव अधिकारों के नाम पर भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल की शाखा के लिए अलग से कंपनियां और संस्था बनाकर अवैध ढंग से करोड़ों रूपये लाने तथा संदिग्ध कठपुतलियों को बाँटने के आरोप सुरक्षा जाँच एजेंसियों ने अदालत को सौपें हैं | एमनेस्टी की आड़ में भारत विरोधी गतिविधियों के आरोप पहली बार सामने नहीं आए हैं | मैंने तो नवम्बर 1983 में देश के एक प्रमुख साप्ताहिक में ‘ एमनेस्टी इंटरनेशनल क्या गुप्तचर संस्था है ? ‘ शीर्षक से एक लम्बी रिपोर्ट लिखी और प्रकाशित की थी | तब भारत की सुरक्षा एजेंसियां सोवियत रुस के साथ तालमेल करके इनकी गतिविधियों को नियंत्रित करती थीं | यही नहीं हाल के वर्षों में ब्रिटैन में भी इस संस्था के विरुद्ध गंभीर आरोप और कार्रवाई हुई , जहाँ इसका मुख्यालय रहा है | इसलिए विदेशी फंडिंग को लेकर भारत में अनेक संगठनों पर कार्रवाई के कदमों को उचित माना जाना चाहिए |
भारत की आज़ादी राजनीतिक क्रांति से मिली , जिसके दौरान जोर काम और उत्तरदायित्व का न होकर अधिकार का रहा | ये मांगें निरंतर बढ़ती ही गई हैं | इससे आर्थिक कठिनाइयां समस्याएं बढ़ती गई | अनुशासन के बिना कोई भी सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है | विशाल नदियों के भी दो किनारे होते हैं | अगर उसने किनारा तोड़ दिया तो आफत आ जाती है | जब तक दोनों किनारों पर अनुशासन रहता है , तब तक उसकी अपार शक्ति का सदुपयोग सबके लिए हो सकता है | आख़िरकार प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी उसी अनुशासन और सामाजिक आर्थिक विकास में सबके सहयोग – साथ की बात कर रहे हैं | आत्म निर्भरता के लिए भी विभिन्न क्षेत्रों में संतुलन आवश्यक है | प्रधान मंत्री ही नहीं देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी अनावश्यक मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति पर अंकुश की आवश्यकता बताई है | खासकर कुछ दलों या संगठनों द्वारा चुनावों या अन्य अवसरों पर अधिकाधिक प्रलोभन या वायदे करने से समाज में भ्रम और अराजकता पैदा होती है | गरीब लोगों को जीने की न्यूनतम आवश्यकता रोटी , कपड़ा , मकान , शिक्षा , स्वास्थ्य , गैस , शौचालय इत्यादि उपलब्ध कराना प्रलोभन नहीं कहा जा सकता | उन्हें हर संभव स्व रोजगार , कौशल विकास की सुविधा , खेती बाड़ी में आवश्यक बीज पानी खाद इत्यादि दिलाने पर किसीको आपत्ति नहीं हो सकती है | लेकिन ब्रिटिश राज की तरह केवल सरकारी बाबू या सिपाही बनाकर केवल नौकरी की अनिवार्यता के लिए संघर्ष , आंदोलन की तरफ ले जाना , आमदनी के आधार के बिना मुफ्त में बिजली या अन्य सुविधाएं देने की मांगों से आर्थिक प्रगति कैसे संभव है ? यदि बड़े पैमाने पर सड़कों , पुलों , बिजली घरों , सौर ऊर्जा केंद्रों , पीने के पानी , रोजगार के अवसर पैदा करने हैं , तो उद्योगों का विस्तार करना होगा | उद्योगों के लिए सरकार से अधिक निजी क्षेत्र से देशी विदेशी पूंजी लगानी होगी | लेकिन यदि कुछ राजनीतिक या अन्य तत्व – संगठन इस तरह की पूंजी निवेश का ही विरोध करके रुकावट डालेंगें , तो सम्पूर्ण आर्थिक विकास का लक्ष्य कैसे पूरा होगा | फिर इस देश में तो विब्भिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों विचारों का प्रभाव हमेशा रहा है और उनकी प्राथमिकताएं भी भिन्न हो सकती हैं , लेकिन विकास की धारा तो एक ही होगी | कोई तो किनारे होंगें , जिनके लिए अनुशासन आवश्यक होगा |
यह स्मरण रखना होगा कि दिल्ली , मुंबई जैसी महानगर की खुशियां या समस्याएं पूरे भारत की नहीं है | सांस्कृतिक , भौगोलिक विविधता के साथ विभिन्न प्रदेशों क्षेत्रों के लोगों की समस्याएं प्राथमिकताएं और खुशियों के आधार भिन्न भी हैं | सर्वांगीण विकास के लिए सबको ध्यान में रखकर राजनीतिक सामाजिक आर्थिक गतिविधियों का संचालन – क्रियान्वयन होना चाहिए | टकराव सत्ता या प्रतिपक्ष का अंतिम अस्त्र नहीं हो सकता और न ही होना चाहिए |
( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं ) टकराव के रास्तों से न प्रगति होगी , न सत्ता मिलेगी