justice and law: आत्महत्या के प्रयास के लिए सजा का प्रावधान अनुचित

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एक फैसले में यह माना गया था कि ‘जीवन का अधिकार’ मरने के अधिकार के साथ स्वाभाविक रूप से विरोधाभासी है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कि मौत के साथ जीवन।

जीने के अधिकार में गरिमा के साथ जीना सम्मिलित है। जब तक व्यक्ति के जीवन का समापन प्राकृतिक रूप से नहीं होता है तब तक यह अधिकार यथावत रहेगा।

भारतीय कानून आत्महत्या को अपराध मानता है तथा वह कुछ अपवादों को छोड़कर आज भी यथावत है। लेकिन, यह न्यायसंगत नहीं है तथा इस पर माननीय संवेदनाओं के साथ पुनः विचार किया जाना आवश्यक है।

भारत में आत्महत्या को एक अपराध माना है। लेकिन, आत्महत्या के प्रयासों से संबंधित भारतीय संहिता की धारा 309 के संबंध में उसे क्रूर होने की चर्चा की जाती है। इस धारा में आत्महत्या को दंडनीय अपराध माना गया है। एक प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना है।

सर्वोच्च न्यायालय ने इसे क्रूर और तर्कहीन माना था। इस धारा में उस व्यक्ति को सजा देने के प्रावधान है जो पहले ही आत्महत्या के प्रयासों के कारण और उसमें विफल होने की पीड़ा झेल चुका है।

भारत में सन् 1971 में अपनी 42वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने इस पर विचार कर इस धारा को हटाने की सिफारिश की थी, लेकिन दुर्भाग्य से इसे अभी तक हटाया नहीं जा सका।

सन् 2006 में भारत के विधि आयोग ने गंभीर रूप से बीमार रोगियों पर 196वीं रिपोर्ट पेश की। इसमें विशेष परिस्थितियों में इच्छा मृत्यु को वैध बनाने की सिफारिश की गई थी।

रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि इच्छामृत्यु और चिकित्सक द्वारा सहायता प्राप्त आत्महत्या को वैध नहीं माना जाएगा। यह रिपोर्ट केवल उन मामलों में रोगियों की सुरक्षा से संबंधित है जहां गंभीर रूप से बीमार रोगी स्थायी रूप से गंभीर रूप से पीड़ित है तथा उसके ठीक होने की कोई संभावना नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अरूणा रामचंद्र शानबाग के प्रकरण में इस पर विस्तृत रूप से विचार किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया लेकिन ‘निष्क्रिय इच्छा मृत्यु’ को दिशानिर्देशों के तहत वैधानिक बनाया गया था।

इस फैसले में सक्रिय इच्छा मृत्यु को कानूनी होने से तब तक रोक दिया गया था जब तक कि संसद इस संबंध में कानून नहीं बनाए। न्यायालय ने इसकी वैधता से इंकार कर दिया था, क्योंकि इसके दुरुपयोग होने की आशंका थी।

आत्महत्या एक अपराध है। लेकिन, इसके लिये सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए। यदि वह जीवित रह जाता है, तो उसे सजा के स्थान पर उसकी सजा को समझकर उसके निराकरण की व्यवस्था की जाना चाहिए। यह सामान्य किस्म का अपराध नहीं है तथा इसके साथ मानवीय संवेदनाऐं जुड़ी होना चाहिए।

अरूणा शानबाग प्रकरण में पहली बार इच्छा मृत्यु का मुद्दा सार्वजनिक चर्चा में आया था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अरूणा की इच्छा मृत्यु की याचिका स्वीकारते हुए मेडिकल पैनल गठित करने का आदेश दिया था। बाद में न्यायालय ने अपना यह फैसला बदल दिया।

लेकिन, इस फैसले ने असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को इच्छा मृत्यु देने की बहस को आगे बढ़ाने का कार्य किया। इच्छामृत्यु के खिलाफ भी जोर शोर से तर्क दिए जाते हैं। दुनिया के कई देशों जैसे लक्जमबर्ग, नीदरलैंड और बेल्जियम आदि में इच्छा मृत्यु की अनुमति है। पर, भारत इसके लिए अभी तैयार नहीं है।

समाज में इसे अपराध ही माना जाता है। अनुमति वाले देशों में भी इच्छा मृत्यु मांगने वाले हर व्यक्ति को इच्छा मृत्यु नहीं दी जा सकती। इसके लिए बाकायदा कुछ नियम और कानून हैं। यह कहा जा सकता है कि समाज में यह एक जटिल तथा कठिन मुद्दा है।

संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं ने और भी व्यापक बनाया है।

इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किसी व्यक्ति से जीवन का अधिकार छीना जा सकता है। मौत की सजा कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जीवन समाप्त करने का एक उदाहरण है। लेकिन, इच्छा मृत्यु कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। अतः इसे वैधानिक मान्यता नहीं दी जा सकती है।

यूथेनेसिया यानी इच्छा मृत्यु को अनुमति देने के संबंध में किसी प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है। इसकी मांग करने वाले व्यक्ति को न्यायालय की शरण ही लेनी होती है तथा प्रावधानों के अभाव में तथ्यों को देखते हुए विवेकानुसार फैसले किये जाते हैं।

अतः यूथेनेसिया के संबंध में एक व्यापक कानून बनाया जाना चाहिये जो इसे स्वीकारने या अस्वीकारने के संबंध में मजबूत और वैध तर्क प्रस्तुत करता हो।

सरकार का कहना है कि विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया (कोमा में पड़े मरीज का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटना) सही तो है! लेकिन, वह लिविंग विल का समर्थन नहीं करती है। भयंकर पीड़ा के आधार पर इच्छा मृत्यु का समर्थन किया जाता रहा है।

इसके लिए आंशिक तौर पर पैसिव यूथेनेसिया की इजाजत है। एक्टिव यूथेनेशिया और पैसिव यूथेनेशिया इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग इच्छा मृत्यु के लिए किया जाता है।

‘एक्टिव यूथेनेशिया वह स्थिति है, जब इच्छा मृत्यु मांगने वाले किसी व्यक्ति को इस कृत्य में सहायता प्रदान की जाती है, जैसे जहरीला इंजेक्शन लगाना आदि।

वहीं ‘पैसिव यूथेनेशिया’ वह स्थिति है, जब इच्छा मृत्यु के कृत्य में किसी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं की जाती। संक्षेप में एक्टिव यूथेनेशिया वह है, जिसमें मरीज की मृत्यु के लिये कुछ किया जाए, जबकि पैसिव यूथेनेशिया वह है जहां मरीज की जान बचाने के लिए कुछ न किया जाए।

न्यायपालिका इन मामलों में सकारात्मक नहीं रही है। पी. रथिनाम बनाम भारत संघ मामले में आईपीसी की धारा 309 की संवैधानिकता पर यह कहते हुए सवाल उठाया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।

लेकिन, ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में मृत्यु वरण का अधिकार शामिल नहीं है अर्थात् जीने का अधिकार तो है, लेकिन मरने का अधिकार नहीं है।

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छामृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को शर्तों के साथ कानूनी मान्यता दे दी है।

सर्वोच्च न्यायालय एक ऐतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छामृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को गाइडलाइन्स के साथ कानूनी मान्यता दी है।

न्यायालय ने कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि कब वह आखिरी सांस ले। कोर्ट ने कहा कि लोगों को सम्मान से मरने का पूरा हक है।

लिविंग विल एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति उसे किस तरह का इलाज दिया जाए।

पैसिव यूथेनेशिया (इच्छामृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंषा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने कहा कि मरणासन्न व्यक्ति लिविंग विल के जरिए अग्रिम रूप से बयान जारी कर यह निर्देश दे सकता है कि उसके जीवन को वेंटिलेटर या आर्टिफिशियल सपोर्ट सिस्टम पर लगाकर लंबा नहीं खींचा जाए।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह बिल्कुल सही कहा है कि जीवन और मृत्यु अलग नहीं किया जा सकता। हर क्षण हमारे शरीर में बदलाव होता है। बदलाव एक नियम है। जीवन को मौत से अलग नहीं किया जा सकता। मृत्यु जीने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है।

सुप्रीम कोर्ट ने ‘पैसिव यूथेनेशिया और लिविंग विल को मान्यता देते हुए कहा कि ये जीने के अधिकार का हिस्सा है। अनुच्छेद 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है।

इस पर केंद्र सरकार ने कहा कि इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती। लेकिन, मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न का सपोर्ट सिस्टम चिकित्सकों की सलाह पर हटाया जा सकता है।