बिहार में नीतिश कुमार का एनडीए गठबंधन से इस्तीफा देकर यूपीए का दामन थामने के बाद यह संकेत मिल रहे हैं कि 2024 के हिसाब से राज्यों में दलों ने तैयारी शुरू कर दी है। इससे पहले महाराष्ट्र राज्य भी इसकी गवाही दे चुका है। यहां यूपीए घटक के साथ चल रही उद्धव ठाकरे की सरकार औंधे मुंह गिरी, तो उनके ही दल के विधायकों ने भाजपा संग गठबंधन कर सरकार बना ली। दोनों में समानता भी है तो अंतर भी है। समानता यह कि कम विधायकों वाले दल के नेता की ताजपोशी मुख्यमंत्री के रूप में हुई है। जेडीयू 45 विधायकों के दम पर नीतिश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने का इतिहास रच रहा है और राजद के 79 विधायकों के बाद भी तेजस्वी उपमुख्यमंत्री बनने को राजी है।
जैसा कि महाराष्ट्र में भी हो चुका है। एकनाथ शिंदे भी कम विधायकों के साथ एनडीए गठबंधन का हिस्सा बन मुख्यमंत्री बन गए और अधिक संख्याबल के बावजूद भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को उपमुख्यमंत्री पद पर बैठने को मजबूर होना पड़ा। अंतर यह है कि तेजस्वी कभी मुख्यमंत्री नहीं रहे तो देवेंद्र फडणवीस को तो मुख्यमंत्री रहने के बाद महाराष्ट्र में उपमुख्यमंत्री बनने का कड़वा घूंट पीकर नीलकंठ ही बनना पड़ा। तो अंतर यह भी है कि उद्धव ठाकरे चाहते तो अपनी दलीय एकता कायम रखते हुए खुद ही यूपीए गठबंधन से नाता तोड़कर एनडीए संग मुख्यमंत्री की दूसरी पारी शुरू कर देते। लेकिन यहां पर नीतिश कुमार का लंबा अनुभव साबित करता है कि तोहफे में मिला उत्तराधिकार का हश्र उद्धव जैसा होता है और खुद जमीन बनाने पर ही नीतिश कुमार बना जा सकता है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में ममता ने अपनी क्षमता दिखाई है। पर बात यहीं घूम फिर कर आ रही है कि क्या यह 2024 की निर्णायक लड़ाई की पृष्ठभूमि है? जिसमें महाभारत के लिए योद्धा अपना-अपना खेमा चुनने का काम पूरे सोच-विचार के साथ तय कर रहे हैं।
उधर बंगाल में ममता ने बिना समझौता किए बगैर यह साबित कर दिया कि भाजपा भले ही देश को कांग्रेस मुक्त करने का सपना देख रही हो, लेकिन उसके बूते में पश्चिम बंगाल को ही तृणमूल कांग्रेस मुक्त करने की राह आसान नहीं है। तो बंगाल की वही दीदी अब 2024 के चुनावी रण में दादागिरी के साथ ताल ठोकते हुए यूपीए गठबंधन के नए योद्धाओं में प्राण फूंकने का काम कर रही है। दीदी बनाम दादा यानि मोदी का बंगाल का संग्राम विकट था। भले ही भाजपा ने 3 से 77 सीटों का जादुई आंकड़ा पेश कर उपलब्धियों का पहाड़ बनाने की कोशिश की हो, लेकिन वह हार मोदी को अकेले में चिंतन-मनन करने पर आजीवन त्रास देती रहेगी। और दीदी का चेहरा यह याद दिलाएगा कि चक्रवर्ती सम्राट बनना राजतंत्र में संभव हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में इस तरह की सोच जुमला ही है।
तो उधर दिल्ली में मोदी की जागीर में बैठे केजरीवाल ने ताल ठोककर दो बार दिल्ली फतह करने के बाद पंजाब पर कब्जा कर आइना दिखा दिया है कि एक जंगल में एक ही शेर वाली कहावत अब पुरानी हो चली है। अब तो लोकतंत्र में एक जंगल में ही टैरिटरी छोटी-छोटी कर कई शेरों को सामंजस्य बिठाने की आदत डालनी पड़ती है। और जब नीतिश कुमार एनडीए को छोड़ यूपीए का दामन थाम रहे थे, उसी समय यह खबर भी आ रही थी कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली, पंजाब और गोवा में क्षेत्रीय दल का दर्जा मिल गया है। एक राज्य की बात और है, फिर “आप” को राष्ट्रीय दल बनने का उपहार मिलने ही वाला है। इस साल के अंत में दो राज्यों और अगले साल पांच राज्यों के चुनाव तक स्थितियां केजरी को यह तोहफा दे दें, तो कोई बड़ी बात नहीं।
तो मुद्दे की बात यही है कि एनडीए ने 2014 में केंद्र में सरकार बनाने का दावा किया और सरकार में आ गई। और फिर एनडीए ने 2019 में 300 प्लस संग सरकार बनाने का दावा किया और खुद को साबित भी कर दिया। अब एनडीए ने 2024 में 400 प्लस के साथ सरकार बनाने की ताल ठोकी है। क्या यह मुमकिन है? या फिर 2024 का संग्राम विकट होने वाला है। या फिर अभी 2024 में बहुत फासला है और तब तक भाजपा तयशुदा रणनीति के साथ ममता, नीतिश और केजरी जैसी चुनौतियों को पीछे धकेल एक बार फिर राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रहित और राष्ट्रवाद की नाव पर सवार होकर 400 प्लस की जीत का जश्न मनाकर साबित करके रहेगी कि जब तक मोदी हैं, तब तक केंद्र की कुर्सी पर कोई और कब्जा नहीं कर पाएगा।