बदलता भारत: युग परिवर्तन का प्रतीक है द कश्मीर फाइल्स भी
यूं तो फिल्में ज्यादातर काल्पनिक होती हैं और मनोरंजन व धनार्जन के लिये होती हैं। बेशक, कुछ सत्य घटनाओं पर आधारित भी होती हैं, फिर भी उनमें नाटकीयता जरूर होती है। ऐतिहासिक फिल्में संदर्भों से जुड़ी होती हैं और यह फिल्मकार पर निर्भर करता है कि वह कितना वास्तविकता का चित्रण करे व कितना फसाना कहे। ऐसे में एक फिल्म आई द कश्मीर फाइल्स,जिसने स्वतंत्र भारत के फिल्म इतिहास में सर्वथा पहली बार अपने देश के भीतर घटी सदी की सबसे शर्मनाक त्रासदी को जस की तस रूपहले परदे पर प्रस्तुत कर जनमानस को झंझोड़ दिया। इसने हकीकत को सजीव दिखाने का साहस क्या दिखाया, देश में बैठे छद्म धर्म निरपेक्ष तबके के बीच जैसे भूचाल आ गया। वहीं देश का बहुसंख्यक वर्ग इसके समर्थन में उतर पड़ा और पहली बार यह देखा गया कि कोई फिल्म भी सच्चे अर्थों में जन जागरण कर सकती है । परदे के जरिये अनेक चेहरे बेपरदा भी कर सकती है। द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म बनना और प्रदर्शित करना,यह संभव हो पाया केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार होने की वजह से । जो लोग इससे असहमत हों, वे फिल्म आंधी के प्रदर्शन पर लगी रोक को याद कर लें,जिसमें महज इतना भर था कि कथानक श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन से मेल खाता था।
फिल्म कश्मीर फाइल्स ने देश में नई बहस शुरू की। हैरत है कि इसे फिल्म जगत ने शुरू नहीं किया, बल्कि आम भारतीय ने किया। जब कथित बुद्धिजीवियों,गंगा-जमुनी दिखावटी संस्कृति के हिमायतियों ने फिल्म को एक वर्ग की भावनायें भड़काने वाला कहना शुरू किया, तब बहुसंख्यक वर्ग पूरी तरह से मैदान में आ गया । पहले तो उसने इस फिल्म को अपार सफलता का खिताब दिलाया, फिर जवाब भी देने शुरू किये। अंतत: विरोधियों को दुबक जाना पड़ा। इस फिल्म का जलवा देखिये कि अलग-अलग व्यक्तियों,संस्थाओं ने इसके खास शो आयोजित किये और जन सामान्य से नि:शुल्क देखने आने की अपील की। मुझे याद नहीं पड़ता कि भारत में किसी फिल्म के लिये कभी ऐसा हुआ होगा। इस पूरे मसले का शर्मनाक पहलू यह था कि जो लोग फिल्मों की वजह से जाने जाते हैं, दर्शकों के बीच पूजे जाते हैं, जिनकी आजीविका ही नहीं चलती, बल्कि पीढ़ियों के लिये भी धन जमा कर चुके हैं, उनमें से कोई माई का लाल समर्थन में सामने नहीं आया। वजह ! संभवत फिल्म जगत पर अभी-भी दाउद गैंग का साया है।
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विसंगति देखिये कि फिल्म उद्योग से जुड़े जो लोग राजनीतिक या सामाजिक तौर पर होने वाले विवाद,घटना पर काली पट्टी बांधकर खड़े हो जाते हैं। महफिलों में,अखबारों,टीवी में बयान देते हैं, उन सबकी जबान पर जंग लग गया था। जीभ लकवाग्रस्त हो गई थी। कोई खुलकर सामने नहीं आया। स्वार्थ,लालच,डर,करियर बिगड़ने के खौफ का ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा। ऐसा लगा जैसे ये लोग अभी-भी मुगल या अंग्रेजों के शासनकाल में हैं। आज इस फिल्म के वास्तविक असर का अंदाज कोई भले न लगा पाये, लेकिन इतना् जरूर है कि 2014 में देश में हुए राजनीतिक परिवर्तन याने भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद भारतीयता,सनातन मूल्यों,परंपराओं और बहुसंख्यक हितों की खुलकर वकालत और चर्चा करने का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ और 2019 से उसमें राकेट की गति का विस्तार मिला,उसे और आगे ले जाने में इस फिल्म का भी योगदान माना जायेगा। यह फिल्म सच का वो आईना है, जिसमें देश के प्रति निष्ठा रखने वालों,सनातनी परंपरा के समर्थकों ने अतीत की असह्य पीड़ा और भविष्य के अंदेशे के अक्स देख लिये हैं। यह फिल्म उन्हें सावधान करती है, चेताती है कि इस देश का बहुसंख्यक वर्ग यदि अब भी शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन रेत में डाले रहा और धर्म निरपेक्षता के नाम पर आडंबरी सोच वालों के छलावे में उलझा रहा तो समय अब उन्हें मौका नही देगा। जिन आततायियों ने किसी सूरत कभी मुरव्वत नहीं की,उनके मौजूदा वंशज अवसर आने पर कोई रियायत नहीं देंगे, न किसी गंगा-जमुनी तहजीब के झुनझुने की झंकार करेंगे। वे तो जबरिया धर्म बदलने की, गर्दन काटने की,बलात कब्जे की,कत्ले आम की,सिर तन से जुदा करने की भाषा जानते हैं।
इस फिल्म का निर्माण संभव हुआ है मोदी युग के कारण। ऐसी किसी भी फिल्म का बनना और प्रदर्शित होना कांग्रेस शासनकाल में सपने से कम नहीं होता, न ही कोई निर्माता साहस कर पाता। जो सरकारें आपातकाल में फिल्मों के विषय तय करती हो। जिनके मंत्री हीरोइनों को हरम में बुलाने का हुक्म देते हों। जो गायकों को अपनी स्तुति में गीत न गाने के बदले आकाशवाणी से उनके गाने प्रतिबंधित कर देते हो, वे कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में बनने या प्रदर्शित होने देते, यह सोचना ही मजाक है।
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हालांकि यह फिल्म कश्मीर से 370 की समाप्ति के बाद आई, फिर भी इसने जो सवाल जनता के बीच लहराये हैं, उनकी गूंज जारी रहेगी। कश्मीर त्रासदी का कड़वा सच तो यह है कि इतनी मारकाट और जुल्मों की इंतिहा के बाद भी वामपंथियों,कांग्रेसियों और फिल्म जगत में बैठे बड़बोलों की तरफ से कभी इस त्रासदी को रोकने की आवाज,अपील नहीं आई। क्यों हुआ ऐसा? हद तो यह रही कि हत्यारों को तत्कालीन प्रधानमंत्री दिल्ली बुलाकर स्वागत,सत्कार करते रहे। कश्मीर में सेना पर पत्थर फेंकने की कभी निंदा किसी फिल्मकार,बुद्धिजीवी ने नहीं की। कोई याद कर बताये कि जब कश्मीर में तीन दशक से अधिक समय तक आतंकवाद,गुंडागर्दी होती रही, तब भी ठंड के दिनों में समूचे भारत में फैलकर गरम कपड़े,शालें,गलीचे बेचने वाले किसी कश्मीरी के साथ कोई दुर्घटना हुई क्या? ऐसा इसलिये कि आम भारतीय, जो कि हिंदू है, वह सनातनी मूल्यों,संस्कृति से पोषित है। वह सद्भाव,भाईचारे का हिमायती है। वह उदार और दिलदार है। वह अहिंसक और सहिष्णु है।वह प्रतिशोध में विश्वास नहीं करता। वह क्षमा और बलिदान को मानता है। इसकी खूब कीमत भी उसने अदा की। अतीत से लेकर तो वर्तमान तक वह बार-बार ठगा गया,आतंकित किया गया,छल-कपट का शिकार बनाया गया। लेकिन, अब वह बदल रहा है। वह सोचने लगा है कि क्या याद रखना है, क्या भूल जाना है। किसे माफ करना है और कब करना है?
अब मेरा भारत बदल रहा है। लोग अपना सोच बदल रहे हैं। हम सबका भारत नई करवट ले रहा है। वह चोरी करने वाले के हाथ नहीं काटेगा, बलात्कारी को पत्थर मार-मार कर जान से नहीं मारेगा, शांति और संधि का न्यौता देकर पीठ में खंजर नहीं घोंपेगा,क्योंकि ये उसके संस्कार और सोच नहीं, लेकिन सामने वाले को भी ये सब करने का मौका तो बिल्कुल नहीं देगा। वह शिवाजी-राणा प्रताप का वंशज है। अपनी अंतिम सांस तक मुकाबला करेगा और अपने बीच बैठे गद्दाऱों को ढ़ूंढ़ निकालेगा। उन्हें सबक सिखायेगा। यह दौर तुष्टिकरण का नहीं है। यह समय सर्वधर्म समभाव के खोखले नारों से दिल बहलाने का भी नहीं है। यह आत्म सम्मान,राष्ट्र वैभव बरकरार रखने और देश के प्रति निष्ठा और समर्पण का समय है। एकजुट होकर ऐसे खुराफाती तबके को किसी भी हरकत से रोकने के लिये वह कटिबद्ध है।
क्रमश: