साँच कहै ता..! सृष्टि का आदि समाजवादी परिवार जिसने बताया जियो और जीने दो का अर्थ!

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गणपत बप्पा घर-घर बिराज गए। क्या महाराष्ट्र, क्या गुजरात, समूचा देश गणपतिमय है। बडे़ गणेशजी, छोटे गणेशजी, मझले गणेशजी। गणेशजी जैसा सरल और कठिन देवता और कौन? लालबाग के राजा के गल्ले में एक अरब का चढावा आया। तो अपने रमचन्ना के गोबर के गनेश में एक टका। पर कृपा बराबर। रमचन्ना की औकात लालबाग के राजा वाले पंडाल के संयोजक से कम नहीं।
गणपति बप्पा की कृपा समदर्शी है।

शंकर जी का परिवार ही अद्भुत है। भरापूरा अनेकता में एकता का जीता जागता समाजवाद लिए। गणेश जी प्रथमेश हैं। देवताओं के संविधान में है कि बिना इनकी पूजा किए एक इंच भी आगे नहीं। मुझे याद है पढाई के पहले दिन अम्मा ने भरुही की कलम से काठ की पाटी में..हाथ पकड़कर ..सिरी गानेशाए नमह..लिखवाया था। वे पढीलिखी नहीं थी पर अपनी दस्तखत और गणेश जी का नाम लिख लेती थी। वे कहती थी कि कागज में कुछ लिखने के पहले श्री गणेश जी का नाम लिखा करो अकल आयेगी। पिताजी ने गणेशजी का एक श्लोक सिखाया था..गजाननम्.. भूतगणादि …वे भी मानते थे कि घर से निकलने से लेकर हर काम शुरू करने से पहले श्लोक पढना चाहिए।

आस्था और विश्वास सबसे बड़ी ताकत है। यह मनुष्य को अनाथ नहीं होने देती। अनाथ तुलसी ने लिखा ..भवानी शंकरौ बंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ। वे सनाथ हो गए, उन्हें राम रतन धन मिल गया।

सृष्टि को,प्रकृति को, समाज को समझना है तो शिव परिवार को समझ लीजिए। ज्यादा धरम करम की जरूरत नहीं। यह विश्व का आदि समाजवादी परिवार है। सबकी तासीर अलग अलग फिर भी गजब का समन्वय। गणेश जी का वाहन मूस तो शंकरजी के गले में काला नाग। वाह साँप मूस को देखे चुप रहे। उधर से कार्तिकेय का मयूर ..खबरदार मेरे भाई की सवारी पर नजर डाली तो समझ लेना। माँ भगवती की सवारी शेर, तो भोलेबाबा नंदी पर चढे हैं। समाजवाद में जियो और जीने दो का चरम। प्रकृति में सब एक दूसरे के शिकार, पर मजाल क्या कोई चूँ से चाँ बोल दे। गजब का आत्मानुशासन।

आज तो जबरा निबला को सता रहा है, खा रहा। दुनिया में मत्स्यन्याय चल रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाना चाहती है। दुनिया को शिवत्व का आदर्श ही बचा सकता है। शिव वैश्विक देवता हैं। वही आदि हैं वही अंत भी। जलहली के ऊपर शिवलिंग सृष्टि के सृजन का प्रादर्श।

मेरी धारणा पुराण कथाओं से पलट है। शिव संहारक नहीं सर्जक और पालक हैं। शिव इसलिए आर्यों अनार्यों दोनों के देवता हैंं। शिव कल्याण के प्रतिरूप हैं। उपेक्षित, वंचित, दमित, शोषितों के भगवान्। जिसको दुनिया ने मारा उसे शिव ने उबारा। साँप पैदा हुआ लोग डंडा लेकर मारने दौड़े शंकरजी ने माला बनाकर पहन लिया। गाय देवताओं की श्रेणी में रख दी गई बपुरा भोंदू बैल कहाँ जाए। भोले ने कहा आओ तुम हमारे पास आ जाओ। भूत, प्रेत, पिशाच,अघोरी,चंडाल जो कोई हो आओ हमारे साथ। देखते हैं भद्रलोक तुम्हारा क्या उखाड़ सकता है।

प्रकृति समन्वयकारी है। दिन है तो उसी मात्रा में रात है। सुख-दुख,ग्यान-अग्यान, उजाला-अँधेरा। अमृत निकला तो उसी मात्रा में विष भी। कौन पिए, शिव बोले लाओ हम पिए लेते हैं। तुम लोग मौज करो। शिव परवार से बड़ा कल्याणक कौन।

वेद की ऋचाएं और पुराण की कथाएं कर्मकान्डी नहीं। आध्यात्म के साथ उनका वैग्यानिक समाजशास्त्रीय पक्ष भी है। धरम-करम खूब करें। उत्सव ,त्योहार पर्व मनाएं पर जब तक इनके भीतर छुपे मर्म को नहीं जाना तो यह सिर्फ कर्मकाण्ड। अंत्योदय, शोषितोदय, गरीब,वंचित, पीडित, उपेक्षित इनको उबारना है तो खुद के शिवत्व को जगाना होगा। शोषणविहीन, समतामूलक समाज की प्राण प्रतिष्ठा करनी है तो शिव परिवार से बड़ा प्रेरक,उससे बड़ा प्रादर्श और कहीं नहीं। शिवत्व को ढोलढमाके के साथ पंडालों में पूजने से पहले अपनी अंतरात्मा में पूजिए।