पुरखों की विरासत और हम खुदगर्ज लोग..

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पितरपक्ष समापन की बेला में है। इसके बाद मातृपक्ष शुरू होगा यानी कि नौदुर्गा। पंद्रह दिन का पितृपक्ष और शरद और चैती नौदुर्गा को मिलाकर अठारह दिन का मातृपक्ष। हमारे पूर्वजों ने कितना अनूठा विधान रचा था। यह हमारी सनातनी संस्कृति की विशिष्टता है कि प्रकृति से जुड़े पर्व है तो जीव से जुड़े भी। प्रकृति माया है तो जीव ब्रह्म। दोनों के समन्वय से सृष्टि का अस्तित्व है। प्रकृति के हर तत्व पूज्यनीय हैं चाहे वे व्यक्त हो या अव्यक्त। हर वनस्पति में ईश्वर का वास है। सब का कहीं न कहीं उपयोग। नदी-पर्वत-सागर-सरोवर-झरने सभी दैवीय रूप से पूज्य हैं। उसी तरह हर जीव भी हमारे जीवन संस्कार और संस्कृति से जुड़ा है। नागपंचमी होती होती है तो उसके चार दिन बाद ही नेवला नवमी आती है। साँप और नेवला जानी दुश्मन लेकिन हमारी परंपरा में दोनों समभाव से पूजे जाते हैं। माँ दुर्गा की सवारियां भी बड़ी विचित्र हैं। सिंह तो गदर्भ भी, सियार है तो उलूक भी। एक पर्व आता है बहुला चौथ का। अद्भुत पर्व है यह। गाय और बाघ की कथा। गाय बाघ को भाई मानती है तो बाघ बछड़े को अपना भान्जा। बाघ भाई भी है और मामा भी। वह अपने सबसे सुभेद्य शिकार को अभयदान देता है। अद्भुत और मार्मिक पर्व है बहुला चौथ जो लगभग पूरे देश में अपनी-अपनी परंपराओं के अनुसार मनाया जाता है। संसार में प्रकृति और जीव को लेकर ऐसा दैवीय भाव शायद ही किसी संस्कृति और सभ्यता में मिले।

अब प्रश्न यह कि क्या सनातन की इस विरासत को हम सहेज पा रहे हैं? उसके मर्म और उसके अर्थ से स्वयं को जोड़ पा रहे हैं..? शायद नहीं। इसी लिए हम एक दिन का बाजारू मदर्स डे, फादर्स डे आदि-आदि मनाकर फारिग हो जाते हैं। रिश्ते अब फास्टफूड हो चले हैं। इस भागमभाग में हम अपनी संस्कृति को कहीं पीछे वैसे ही निर्वासित करते जा रहे हैं जैसे कि माँ का दर्जा प्राप्त. गोमाता को। अलशीशियन के लिए बेडरूम में जगह है, गोमाता के लिए घर-चौबार में भी कोई गुंजाइश नहीं। ऐसे पशुवत रिश्ते समाज और घरपरिवार में भी पनपते जा रहे हैं।

चलिए इस पितरपक्ष की चर्चा कर लें और उन जिंदा पितरों का हालचाल जान लें। इनमें से कई घर में ही पितर बन जाने की प्रतीक्षा में हैं, कईयों को घर में ठौर नहीं इसलिए वृद्धाश्रम में जिन्दगी की उलटी गिनती गिन रहे हैं। यह जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि कल हम भी पितर में परिवर्तित हो जाने वाले हैं। पता नहीं कोई हमारा पिंडा पारने,गया में तारने जाता भी है कि नहीं। अभी तो घर में हलवा, पूड़ी खीर की श्राद्ध का रिवाज बचा है। संभव है कल यह सब वर्चुअल हो जाए..। अब तो बड़े- बड़े तीर्थों में विराजे देवी देवताओं की वर्चुअल पूजा-पाठ का भी चलन है। इस मीडियावी व स्वार्थी युग में पुरखे कबतक स्मृतियों में बने रहते हैं यह भी एक बड़ा प्रश्न है। जो आज जिन्दा हैं वो जो अपने पितरों के लिए कर रहे हैं जब ये पितर बन जाएंगे तो इनके बाद की पीढ़ी वही करेगी जो उसने देखा है..। इस कटु यथार्थ से हम सबको एक दिन बवास्ता होना है।

फिलहाल एक ऐसे ही जिंदा पितर की सत्यकथा सुनिए। पितरों की श्रेणी में पहुंचने से पहले ये बडे़ अधिकारी थे। आफिस का लावलश्कर चेले चापड़ी, दरबारियों से भरापूरा बंगला। जब रसूख था और दौलत थी तब बच्चों के लिए वक्त नहीं था। लिहाजा बेटा जब ट्विंकल ट्विंकल ..की उमर का हुआ तो उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया। आगे की पढाई अमेरिका में हुई। लड़का देश, समाज, परिवार, रिश्तेदारों से कैसे दूर होता गया साहब बहादुर को यह महसूस करने का वक्त ही नहीं मिला। वे अपने में मुदित रहे। उधर एक दिन बेटे ने सूचना दी कि उसने शादी कर ली है। इधर साहब बहादुर दरबारियों को बेटे की माडर्न जमाने की शादी के किस्से सुनाकर खुद के भी माडर्न होने की तृप्ति लेते रहे क्योंकि इसके लिए भी वक्त नहीं था।

एक दिन वह भी आया कि रिटायर्ड हो गए। बड़ा बंगला सांय-सांय लगने लगा। सरकारी लावलश्कर, दरबारी अब नए अफसर का हुक्का भरने लगे। जब तक नौकरी की नात रिशतेदारों को दूरदुराते रहे। रिटायर हुए तो अब वे नातरिश्तेदार दूरदुराने लगे। तनहाई क्या होती है अब उससे वास्ता पड़ा। वीरान बंगले के पिंजडे में वे पत्नी तोता मैना की तरह रह गए।

एक दिन सूचना मिली कि विदेश में उनका पोता भी है जो अब पाँच बरस का हो गया। बेटे ने माता पिता को अमेरिका बुला भेजा। रिटायर्ड अफसर बहादुर को पहली बार गहराई से अहसास हुआ कि बेटा, बहू, नाती पोता क्या होता है। दौलत और रसूख की ऊष्मा में सूख चुका वात्सल्य उमड़ पड़ा। वे अमेरिका उड़ चले। बहू और पोते की कल्पित छवि सँजोए।

बेटा हवाई अड्डा लेने आया। वे मैनहट्टन पहुंचे। गगनचुंबी अपार्टमेंट में बेटे का शानदार फ्लैट था। सबके लिए अलग कमरे। सब घर में थे अपने अपने में मस्त। सबके पास ये सूचनाएं तो थीं कि एक दूसरे का जैविक रिश्ता क्या है पर वक्त की गर्मी ने संवेदनाओं को सूखा दिया था। एक छत के नीचे सभी थे पर यंत्रवत् रोबोट की तरह। घर था, दीवारें थी,परिवार नहीं था। रात को अफसर साहब को ऊब लगी पोते की। सोचे इसी के साथ सोएंगे, उसका घोड़ा बनेगे, गप्पे मारेंगे आह अंग्रेजी में जब वह तुतलाकर दद्दू कहेगा तो कैसा लगेगा।

वे आहिस्ता से फ्लैट के किडरूम गए। दरवाजा खोलकर पोते को छाती में चिपकाना ही चाहा ..कि वह नन्हा पिलंडा बिफर कर बोला..हाऊ डेयर यू इंटर माई रूम विदाउट माई परमीशन..दद्दू। दद्दू के होश नहीं उड़े बल्कि वे वहीं जड़ हो गए पत्थर के मूरत की तरह। दूसरे दिन की फ्लाइट पकडी भारत आ गए। एक दिन अखबार में वृद्धाश्रम की स्पेशल स्टोरी में उनकी तस्वीर के साथ उनकी जुबान से निकली यह ग्लानिकथा पढने व देखने को मिली।

इस कथा में तय कर पाना मुश्किल है कि जवाबदेह कौन? पर यह कथा इस बात को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि संयुक्त परिवारों का विखंडन भारत के लिए युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। संवेदनाएं मर रही हैं और रिश्ते नाते वक्त की भट्ठी में स्वाहा हो रहे हैं। कभी संयुक्त परिवार समाज के आधार थे जहां बेसहारा को भी जीते जी अहसास नहीं हो पाता था कि उसके आगे पीछे कोई नहीं। वह चैन की मौत मरता था। आज रोज बंगले या फ्लैट में उसके मालिक की दस दिन या महीने भर की पुरानी लाश मिला करती है। वृद्धों में खुदकुशी करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

रिश्ते नातों का जो वृस्तित संसार हमारे यहाँ रहा है वह दुर्लभ है। घर-परिवार के साथ ही नहीं गाँव और मेड़ौर के दूसरे वर्ग के लोग भी रिश्तों में बँधे होते थे। हमारे हरवाह की बेटी बिदा हो रही है तो लगता था अपनी ही बिटिया है। पाश्चात्य संस्कृति ने और देश की खुदगर्ज राजनीति ने हमारे समाज को जातियों में बाँट दिया। परिवार भी ऐसे ही विखंडित हो चले। हम एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं तलवार भाँजते नाश मनाते।

प्रकृति अब भोग्या बन गई है। पहले आम का वृक्ष इतना पूज्य माना जाता था कि हम उसका ब्रतबंध करते थे..फिर व्याह भी रचाते। आम के बगीचे में समाज के कुशलक्षेम के लिए यग्य होते थे। अब वे पेड़ बुजुर्ग हो गए हमारे किसी काम के नहीं रह गए। प्लाट काटना, कालोनी बसाना जरूरी हो सो ऐसे बगीचे साफ कर दिए जाते हैं पूरी क्रूरता के साथ। पुराने और पुरखों के जमाने के बाग बगीचे ऐसे ही मारे जा रहे हैं..क्या शहर क्या गाँव। सरोवर और तालाब पाटकर कालोनियां काटी जाती हैं। इन्हें हमारे पुरखों ने मंत्रों के उच्चारण व पवित्र संकल्प के साथ बनाया था। पीपल-बट-मौलश्री के पेंड़ लगाए, मंदिर बनाकर महादेव बिराज दिया या देवीदाई की मेढुली बना दी। अब वे ध्वस्त की जा रही हैं। शापिंग माल, वाटर पार्क और रिसार्ट बन रहे हैं। पर्वतों के पंख होते थे ऐसी कल्पना हमारे पुराणों में है। वे हमें आश्रय देते थे। प्रभुराम कामदगिरि में रहे तो कृष्ण के गोकुल की रक्षा गोवर्धन पर्वत ने की। पुराण कथाओं में पर्वतों की महत्ता शिखर पर है। उस शिखर को हम जेसीबी-पोकलेन से ढहाकर वहाँ से खनिज निकाल रहे हैं। सड़कों में ढहा रहे हैं। आने वाली पीढ़ी सिर्फ कथाओं में पढ़ेगी कि नर-और नारायण ने बद्रीनाथ के पर्वतों में तपस्या की थी। क्योंकि अब वहाँ आपको रिसार्ट मिलेंगे या पोंदाडिया महंतों के पाँच सितारा आश्रम..। पुरखे चाहे प्रकृति के हों या जीव के दोनों संकट में हैं। दोनों ही अनाथ और उपेक्षित।

पुरखे हमारी निधि हैं और पितर उसके संवाहक। हमारी संस्कृति व परंपरा में पितृपक्ष इसीलिए आया कि हम अपने बाप दादाओं का स्मरण करते रहें। और उनकी जगह खुद को रखकर भविष्य के बारे में सोचें। हमारे पुरखे श्रुति व स्मृति परंपरा के संवाहक थे। भारतीय ग्यान परंपरा ऐसे ही चलती चली आई है और वांगमय को समृद्ध करती रही है। ये पितरपक्ष रिश्तों की ऊष्मा और त्रासदी पर विमर्श का भी पक्ष है। रवीन्द्र नाथ टैगोर की चेतावनी को नोट कर लें -जो पीढी पुरखों को विस्मृत कर देती है उसका भविष्य रुग्ण और असहाय हो जाता है।