बाबा की जिद और अग्निपरीक्षा से गुजरती कांग्रेस…

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कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व इन दिनों विकट वक्त से गुजर रहा है। राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के नाम पर जितनी किरकिरी होनी थी, वह हो गई। जितने वफादार और विचारधारा को जीवनभर से समर्पित नेताओं ने पार्टी से बाहर जाने का फैसला किया, वह नुकसान भी पार्टी ने उठाया। पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेशों में जो दुर्गति हुई, वह सबके सामने है। अब जाकर पार्टी आजादी के अमृत महोत्सव में एक बार फिर पूर्णकालिक, निर्वाचित अध्यक्ष के चुनने का उत्सव मनाने की तैयारी में है। अच्छी बात यह है कि राहुल बाबा जिद पर अड़े हैं कि अब कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का नेता होगा। जिस तरह राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में भीड़ जुट रही है, उससे उनका आत्मविश्वास भी चरम पर है। ऐसे में अब सात राज्यों ने भले ही यह प्रस्ताव पारित कर दिया हो कि राष्ट्रीय अध्यक्ष बाबा को ही बनना चाहिए, लेकिन बाबा भी जिद के पक्के हैं कि अध्यक्ष तो इस बार परिवार के बाहर का ही चुना जाएगा। और अब जिस तरह मनमोहन सरकार के लिए कहा जाता था कि रिमोट कंट्रोल से सरकार चल रही है, तो इसकी मनाही तो अब भी नहीं है लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि बाबा अब परिपक्वता के संग ऐसी शिकायत का मौका भी देने वाले नहीं हैं। और अब यह तय हो गया है कि विपक्ष का परिवारवाद का अस्त्र भौथरा होकर ही रहेगा, यदि अंतिम समय तक बाबा की जिद चली तो…!
संशय की गुंजाइश तब तक बनी रहेगी, जब तक पूरी तस्वीर साफ नहीं हो जाती। जिस तरह अशोक गहलोत के मामले में यह बात सामने आ रही है कि ‘एक व्यक्ति और एक पद’ का पालन करना होगा, तो गहलोत की मंशा मुख्यमंत्री बने रहने की है। इससे पहले कमलनाथ भी यह साफ कर मध्यप्रदेश में बैठे हैं। ऐसे में अब फिर चर्चा में चल रहे दो नामों में से बस शशि थरूर बचते हैं। और फिर अभी कोई तीसरा नाम भी आया, तब क्या सहमति बनती है, कौन चुना जाता है…यह बहुत कुछ समय के साथ ही पता चलेगा। और यदि ऐसा हुआ कि जो चुना गया, उसने ही तय कर लिया कि बाबा की मर्जी के बिना कोई कदम नहीं उठाएंगे, तब॒ भी स्थिति ढाक के तीन पात जैसी ही बन जाएगी। इसलिए परिवारवाद का दाग धोने के लिए कवायद का लंबा दौर अभी बाकी है। फिलहाल गांधी परिवार बाबा की जिद के चलते अग्निपरीक्षा के कठिन दौर से गुजर रहा है। संगठन में लोकतंत्र लाने की यह परीक्षा क्या-क्या गुल खिलाती है, यह खास बात है। वैसे यह नहीं कहा जा सकता है कि कांग्रेस संगठन में लोकतान्त्रिकता का अभाव रहा है। आजादी के समय कृपलानी के अध्यक्ष रहने से 1996-98 तक सीताराम केसरी के अध्यक्ष रहने तक गांधी परिवार के बाहर के नामों की भरमार रही है, इनमें पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा भी शामिल थे। पर जिस तरह प्रधानमंत्री पद पर नेहरू-गांधी परिवार का बर्चस्व रहा है, उसके चलते विपक्ष ने परिवारवाद का जो स्थायी आरोप चस्पा किया है…उसकी माकूल जवाब कांग्रेस नहीं दे पाई, क्योंकि पावर सेंटर तो यह परिवार ही रहा है। और बाबा के समय हमले इतने तेज हो गए कि अब जिद करने पर बाबा को ही मजबूर होना पड़ा है। कांग्रेस ने आजादी से पहले भी संघर्ष की राह चुनी थी और अब आजादी के 75 साल बाद संघर्ष का कठिन दौर सामने है।