Silver Screen:सिनेमा में सतही रहा साबरमती का संत!

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फिल्मों में राजनीति और नेताओं का जब भी और जहां भी जिक्र होता है, वो कभी सकारात्मक नहीं होता। अमूमन फिल्मों में ये किरदार भ्रष्ट व्यवस्था का प्रतीक बताए जाते हैं। लेकिन, जब भी गांधीजी का जिक्र हुआ, उन्हें सच्चे देशभक्त और मॉस कम्युनिकेटर के रूप में दिखाया गया। महात्मा गांधी यानी ऐसा सर्वमान्य व्यक्तित्व जिसकी एक आवाज पर पूरा देश उठकर खड़ा हो जाता था। गांधी को देश ने कभी व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा माना। जब बदलते समय की विचारधाराओं का समकालीन सिनेमा पर असर पड़ता रहा, तो सिनेमा पर भी गांधी विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ना तय है। लेकिन, उनके व्यक्तित्व को ढाई घंटे में परदे पर उतार पाना संभव नहीं रहा। इसके बावजूद समय-समय पर ये कोशिश होती हुई है। पर, वास्तव में सिनेमा ने पूरी तरह उनके साथ पूरा न्याय नहीं किया! जो फ़िल्में बनी, उनमें गांधीजी के व्यक्तित्व को सही मायनों में प्रतिबिम्ब नहीं किया। सालभर में हजारों फ़िल्में बनाने वाले भारतीय सिनेमा ने गांधी विचारधारा को सही तरह से प्रचारित करने में कंजूसी ही दिखाई! जो प्रयास किए गए, वे संख्या की दृष्टि से नगण्य ही कहे जाएंगे। इस मामले में जो अपार सफलता हासिल हुई, वो विदेशी फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ से मिली। बेन किंग्सले ने गांधी के किरदार को जो जीवंतता दी, वो अद्भुत ही कही जाएगी।

Silver Screen:सिनेमा में सतही रहा साबरमती का संत!

जब भी सिनेमा में महात्मा गांधी का जिक्र आया, बात ‘गांधी’ से शुरू होकर ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ पर ख़त्म हो जाती है। इस नजरिए से देखा जाए तो राजकुमार हिरानी ने गांधीवाद को एक नया नजरिया जरूर दिया, पर ये कोशिश आगे नहीं बढ़ सकी। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट के युग में वी. शांताराम और विमल राय की फिल्मों ने गांधीवाद के आदर्श को प्रश्रय जरूर दिया। इस दौर की दो बीघा जमीन, दो आंखें बारह हाथ, आवारा और ‘जागृति’ को ऐसी ही फिल्में माना गया, जिनमें गांधी विचारधारा की झलक थी। पहले फ़िल्में देखना अच्छा नहीं समझा जाता था! किंतु, अब यह धारणा बदल गई। ऐसे में यदि किसी ने गांधी को नहीं पढ़ा, तो वे दर्शक ‘गांधी’ पर बनी हुई फिल्में देखकर गांधी दर्शन समझ सकते हैं।

महात्मा गांधी के चरित्र ने फिल्मकारों को प्रभावित तो किया, पर उन पर फिल्म बनाने वाले कम हुए। गांधीजी के काल से अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं। गांधी चरित्र पर बनी फिल्मों में सबसे पहले जागृति (1954) में बनी थी। इसके गीत कवि प्रदीप ने लिखे थे। फिल्म का लोकप्रिय गाना था ‘दे दी हमें आजाद बिना खड्ग बिना ढाल!’ 1962 में बाल चित्र समिति ने ‘बापू ने कहा’ बनाई थी। इसमें नाना पलसीकर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म में एक छोटा बालक बापू के आदर्शों से प्रभावित होता है और बापू के आदर्शों को अपने गांव में लोगों को सिखाता है। 1969 में बनी ‘बालक’ का गीत ‘सुन ले बापू ये पैगाम मेरी चिट्ठी तेरे नाम’ भी पसंद किया गया था। ‘महात्मा : लाइफ ऑफ गांधी’ में 1948 तक के गांधी जीवन और भारत की आजादी के लिए उनके संघर्ष को दिखाया था। अंग्रेजी में बनी यह फिल्म ब्लैक एंड वाइट थी और इसे बेहद पसंद किया गया था। बाद में इस फिल्म को हिंदी में भी बनाया गया। इसके बाद लम्बे अरसे तक फिल्मकारों का इस तरफ ध्यान नहीं गया।

Silver Screen:सिनेमा में सतही रहा साबरमती का संत!

1982 में रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ में मुख्य भूमिका बेन किंग्सले ने निभाई थी। यह फिल्म गांधी की बायोग्राफी पर केंद्रित थी। इसे 8 ऑस्कर अवॉर्ड मिले थे।ऑस्कर के साथ ही बाफ्टा, ग्रैमी, गोल्डन ग्लोब और गोल्डन गिल्ड समेत 26 अवार्ड मिले थे। इसके बाद 1993 में आई फिल्म ‘सरदार’ केतन मेहता ने निर्देशित की जिसमें अन्नू कपूर ने महात्मा गांधी का किरदार निभाया। इसमें गांधी और सरदार पटेल के वैचारिक मतभेद को दर्शाया था। वास्तव में यह फिल्म दो महापुरुषों के रिश्तों को समझने का बेहतरीन उदाहरण थी। इसमें सरदार पटेल का चरित्र परेश रावल ने निभाया था। 1996 में ‘मेकिंग ऑफ महात्मा’ का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया, जिसमें गांधी की भूमिका रजत कपूर ने निभाई। इसमें मोहनदास करमचंद गांधी के ‘महात्मा’ बनने की कहानी को विस्तार से दिखाया गया। ब्रिटेन और अफ्रीका में रहने के दौरान गांधीजी ने क्या देखा और उससे उनके जीवन में क्या कुछ बदलाव हुआ इस पूरी यात्रा को काफी प्रभावी ढंग से इस फिल्म में दिखाया गया है।

सन 2000 में बनी ‘हे राम’ को कलाकार कमल हसन ने बनाया और फिल्म की कहानी भी उन्होंने ही लिखी। उन्हीं के निर्देशन में यह फिल्म बनी। इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ने गांधी का किरदार निभाया। इसमें विभाजन के बाद फैली अशांति और गांधीजी के हत्या के बीच की कहानी दिखाई थी। 2005 में आई फिल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ जानू बरुआ के निर्देशन में बनी थी। फिल्म में अनुपम खेर ने उत्तम चौधरी की भूमिका निभाई थी, जो यह स्वीकार करता है कि उसने ही गांधी की हत्या की है। उसके बाद उनकी बेटी उर्मिला मातोंडकर यह पता लगाने की कोशिश करती है कि क्या सच में उसके पिता ने गांधी की हत्या की है या कोई और बात है!

राजकुमार हिरानी के निर्देशन में आई फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में मुख्य भूमिका में संजय दत्त थे। इसमें अरशद वारसी और बोमन ईरानी ने भी काम किया था। यह फिल्म गांधी विचारधारा पर बनी थी और इसमें उनकी शिक्षाओं पर भी रोशनी डाली गई थी। फिल्म में दिखाया गया था कि आज के दौर में गांधी की प्रासंगिकता क्यों जरूरी है! फिल्म में बेहद मनोरंजक ढंग से गांधी के किरदार को परदे पर उतारा था। इसमें मूल किरदार को गांधी विचारधारा से प्रभावित दिखाया था। लेकिन, जब भी यह किरदार गलत रास्ते पर चलने की कोशिश करता है, उसे बापू नजर आते हैं। इस कॉमेडी फिल्म में आज के युग की गांधीगिरी को बेहद रोचक अंदाज में प्रचारित किया गया था।

Silver Screen:सिनेमा में सतही रहा साबरमती का संत!

फिरोज अब्बास मस्तान के निर्देशन में 2007 में बनी फिल्म ‘गांधी माई फादर’ महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल के रिश्तों पर केंद्रित थी। गांधी का किरदार दर्शन जरीवाला ने और बेटे की भूमिका में अक्षय कुमार थे। हरिलाल को लगता है, कि देश के पिता होने के बावजूद महात्मा गांधी एक अच्छे पिता होने में असफल रहे। इस फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला था। 2018 में आई फिल्म ‘गांधी : द कॉन्सपिरेसी’ को अल्जीरिया के निर्देशक करीम टांडिया ने बनाया था। यह फिल्म भारत विभाजन के बाद से गांधीजी की हत्या तक के घटनाक्रम पर आधारित थी। इसमें गांधी का किरदार एक्टर, प्रोड्यूसर और राइटर जीसस सेंस ने निभाया था। इन सारी फिल्मों में आजादी के समय के गांधीवाद से लगाकर आजतक की गांधीगिरी को समाहित किया गया, जिसे दर्शकों ने पसंद भी किया।

Silver Screen:सिनेमा में सतही रहा साबरमती का संत!

चीनी मूल के घुमंतू फोटोग्राफर एके चेट्टियार ने 1938 में लगभग एक लाख किलोमीटर की भारत यात्रा के बाद गांधीजी के प्रति आस्था और प्रभाव को देखते हुए एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘महात्मा गांधी 20 सेंचुरी प्रोफेट’ (बीसवीं सदी के पैगंबर महात्मा गांधी) बनाई थी। 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में इसका प्रसारण किया गया था। 1953 में वे इस फिल्म को अंग्रेजी में डब करके वे अमेरिका भी ले गए जहां तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डीडी आइसन होवर और उनकी पत्नी के लिए के ख़ास स्क्रीनिंग की। एक समय के महान कलाकार चार्ली चैपलिन भी गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। 1936 में चैपलिन ने अपनी फिल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ में मशीनीकरण के कारण मजदूरों के मजदूरों के हो रहे नुकसान को दर्शाता जो महात्मा गांधी की ही प्रेरणा थी। 1940 में चार्ली की क्लासिक फिल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ आई थी, जिसमें हिटलर के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध को चार्ली ने फिल्म का मूल विषय बनाया था।

गांधीजी पर फिल्मों के अलावा कई डॉक्यूमेंट्री भी बनी। महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता पर 1963 में जेएस कश्यप ने ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ बनाई। 1968 में ‘महात्मा : लाइफ ऑफ गांधी’ बनी और फिर आई ‘महात्मा गांधी : ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट।’ आशय यह कि अभी भी सिनेमा के परदे पर गांधीजी को जीवंत किया जा सकता है। पर, कोई फिल्मकार हिम्मत तो करे! क्योंकि, गांधी एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा है और विचार कभी नहीं मरते। कोई नाथूराम गोडसे भी गांधी विचारों की हत्या नहीं कर सकता।