आधुनिक युग में सादगी की विजय यानी बहादुरा के लड्डू

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अगर आप स्वादिष्ट मिठाइयों की शौकीन है और आपकी स्वाद तंत्रिका प्रणाली को अच्छी मिठाइयों का स्वाद पता है तो ग्वालियर के बहादुरा के लड्डू जरूर खाइएगा।

मेरा मानना है कि दुनिया में सिर्फ दो तरह के लोग हैं। पहले वह जो गौरवशाली भारत की हृदय स्थली मध्य प्रदेश आए हैं और दूसरे वो जो मध्य प्रदेश नहीं आए। मध्य प्रदेश आने वालों में भी दो श्रेणी है, पहले वह जो ग्वालियर तक पहुंच सके हैं दूसरे वह जो मध्य प्रदेश आकर भी ग्वालियर नहीं जा पाए।

ग्वालियर आने वाले लोगों को भी दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है पहले वह जिन्होंने ग्वालियर आ कर बहादुरा के लडडू खाए हैं दूसरे वह जिन्हें यह सौभाग्य नहीं मिला। सौभाग्य से मैं इस पावन धरा के उन गिने चुने सौभाग्यशाली लोगों में हूं, जो पहली वाली श्रेणी में आते हैं जो ग्वालियर जाकर बहादुरा के उन स्वादिष्ट लड्डू का रसास्वादन कर चुके हैं। ये वही लड्डू हैं जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को भी अत्यधिक प्रिय थे।

बताते हैं कि अटलबिहारी वाजपेई को बहादुरा के लड्डू इतने अच्छे लगते थे कि कभी-कभी वो दिल्ली से विशेष तौर पर लड्डू खाने बहादुरा स्वीट्स पर आते थे। ग्वालियर के लोगों को पता था कि जब भी अटल जी का बिगड़ा मूड ठीक करना हो तो बहादुरा के बूंदी के लड्डू ये काम आसानी से कर देते थे। ग्वालियर के लोग जब भी दिल्ली उनसे मिलने जाते थे तो बहादुरा के लडडू जरूर ले जाते थे। कई बार तो उन्होंने फरमाइश करके भी लड्डू दिल्ली मंगवाए थे।

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ग्वालियर के नया बाजार, लश्कर स्थित दुकान के बाहर बहादुरा स्वीट्स का एक बदरंग हो चुका पुराना सा बोर्ड लगा है और बाहर से दुकान देख कर आपको एक बार निराशा भी हो सकती है कि क्या यह वही चर्चित दुकान है जिसके बारे में मैंने कहीं इतना सुना या पढ़ा था। आधुनिकता से दूर दुकान के बाहर मिट्टी से बनी कोयले की पुरानी सी भट्टी में बूंदी छानता हलवाई दिखता है, अंदर बीच में रखे एक थाल में रखी बूंदी को लड्डू का शेप देने में कुछ लोग जुटे हुए थे। दुकान के अंदर साफ सफाई पर पूरा जोर था। लगभग 90 साल पुरानी होने जा रही बहादुरा की दुकान में मिठाई होने के बावजूद एक भी मक्खी नहीं थी। दुकान में ना कोई आधुनिक साज-सज्जा है और ना ही लड्डू के रखने के लिए लाइट वाले सुंदर व सजावटी काउंटर हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री के कारण मशहूर होने के बावजूद दुकान में अटल बिहारी वाजपेई या किसी अन्य बड़े नेता की कोई तस्वीर नहीं लगी है। इन स्वादिष्ट लड्डुओं के लिए कभी कोई प्रचार प्रसार नहीं किया पर माउथ पब्लिसिटी के चलते इन मिठाइयों ने देश में ही नहीं विदेश में भी अपनी पहचान बना ली है। विदेश में रहने वाले ग्वालियर के लोग जब भी कोई मित्र या परिजन ग्वालियर से आता है तो उससे इन लड्डुओं की फरमाइश अक्सर करते हैं। देशी घी के साथ बेसन की सोंधी खुशबू जहां किसी की भी स्वाद तंत्रिकाओं को झकझोर देती हैं वहीं इन लड्डू की खासियत ये है कि इन्हें मुंह में रखते ही ये घुल जाते हैं। इन लड्डुओं में सिर्फ देशी घी, बेसन व चीनी का ही प्रयोग किया जाता है। गार्निशिंग के लिए भी बादाम काजू आदि मेवों का बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया जाता है।

सादगी का आलम यह देखा जा सकता है कि दुकान के बाहर लगे बदरंग बोर्ड पर टेलीफोन नंबर तक नहीं है। साथ ही डिब्बों पर भी संपर्क करने के लिए कोई सूचना संपर्क सूत्र- फोन नंबर, मोबाइल नंबर या ईमेल तक नहीं दिया गया है।
इस आधुनिकता के दौर में तड़क-भड़क से दूर स्वाद के देसी भोलेपन का आभास कराती बहादुरा स्वीट्स के विकास शर्मा बताते हैं कि अटल जी खाने के काफी शौकीन थे। यहां पर वे अपनी मित्र मंडली के साथ बैठा करते थे और लड्डू जरुर खाते थे।आपको अगर बहादुरा स्वीट्स के बूंदी के लड्डू खाने हो तो शाम के पहले ही दुकान पर पहुंचना होगा। अक्सर शाम सात बजे तक लड्डू खत्म हो जाते हैं। देर से पहुंचने पर लड्डू ना खा पाने का मलाल आपको हो सकता है।

विकास कहते हैं समय की पाबंदी पर कठोरता से अमल होता है,क्योंकि ये हमारे लिए मात्र पैसा कमाने के लिए व्यवसाय भर नहीं है। हम लोगों को विरासत में मिली अच्छी चीज ही खिलाना चाहते हैं। इसी वजह से बहुत सीमित मात्रा में सुबह कचौड़ी और मिठाई में केवल बूंदी के लड्डू और रसगुल्ला ही तैयार करवाया जाता है। वर्तमान महंगाई को देखते हुए लड्डू के रेट 560 रुपया किलो है और 1 किलो में लगभग 36 लड्डू आते हैं। त्यौहार में यहां से बूंदी के लड्डू खरीदने के लिए बड़ी सिफारिशें भी आतीं है पर हम सीमित मात्रा में लड्डू तैयार करने के कारण अक्सर मना करने के लिए मजबूर रहते हैं।

बताते हैं कि इन लड्डुओं की फ्रेंचाइजी और ब्रांच खोलने के लिए कई ऑफर आए पर इन्होंने सभी को अस्वीकार कर दिया क्योंकि स्वाद के इस विरासती महायज्ञ में यह हमारी एक अंजुलि भर आहुति है।