अब तो दिल पर यकीं नहीं होता …

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यह दिल भी बहुत दगाबाज हो गया है। अब तो इसने डॉक्टरों और स्वास्थ्य सुविधाओं को भी बायपास कर ठेंगा दिखा दिया है। मेडिकल साइंस को तो मानो कहीं का नहीं छोड़ा है। मजाक ऐसा कि व्यक्ति यह समझ ही नहीं पाता कि वह दिल का मरीज है और अचानक खबर आती है कि फलां-फलां का ह्रदयघात से निधन हो गया है। निर्दयी इतना कि उमर का कोई ख्याल नहीं कर रहा है यह दिल। कोई तीस के दशक में है, चालीस के दशक में है, पचास के दशक में है या कम और ज्यादा में, इससे क्रूर दिल का अब कोई वास्ता नहीं रहा। सोमवार की सुबह जब भाई राजकुमार मिश्रा ने अल सुबह दुखद समाचार साझा किया कि प्रदेश टुडे के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार पंकज पटेरिया जी का अभी सुबह साढ़े छह बजे हृदय गति रुक जाने के कारण निधन हो गया है। तो मानो समूचा वातावरण दु:ख के सागर में डूब गया।

ऐसा लगा जैसे अपना दिल भी न धड़क रहा हो और आत्मा कहीं वायुमंडल की ऊपरी परत से झांक कर इस देह को आइना दिखा रही हो कि ज्यादा गुरूर मत करो…मैं दिल हूं और एक दिन तुम्हारे या किसी के साथ भी ऐसा दगा कर सकता हूं। और इस गुमान में मत रहना कि तुम सत्ता में हो, तुम सत्ता के गलियारों में चहलकदमी करते हो या सत्ताधीश खुद तुम्हारे कदमों में पड़े हैं। इस अहंकार में भी मत रहना कि तुमने बहुत सारा धन जमा कर लिया है और डॉक्टर-दवा-अस्पताल जैसी चीजें तो चुटकी बजाते ही हाजिर हो जाएंगी और इजाजत मांगेंगीं कि आका हुकुम करो … शरीर का कौन सा हिस्सा बदलकर नया करना है। और अगर ऐसी मूर्खता में नहीं पड़े हो तो यह भी समझ लो कि हमें गरीबी और अमीरी, ताकतवर और कमजोर, ऊंच और नीच, गोरे और काले, जवान और बूढ़े वगैरह वगैरह शब्दावलियों से न ही कुछ लेना-देना है और न ही भेदभाव करना और पक्ष लेना हमारे स्वभाव में है। लोग यह सोचें कि हम सज्जनों के दुश्मन हैं या दुर्जनों पर मेहरबान हैं, ऐसा भी कोई मानक हमने तय नहीं किया है। हम तो दिल हैं, जब तक दिल में आता है साथ देते हैं और जब दिल ऊब जाता है तो साथ छोड़ देते हैं। फिर यह नहीं देखते कि कौन क्या है, मजबूर है या मजबूत है। जवान है या बूढ़ा है। सज्जन है या दुर्जन है।

दिल की ऐसी बातें सुनकर मेरा भी दिल भर आया। गुस्से से चेहरा तमतमा गया। आंखों से अंगारे बरसने लगे। शरीर से मानो आग की लपटें फूटने लगीं। ह्रदयघात के चलते हाल ही में जुदा हए प्रियजनों श्रीकांत शर्मा, उमेश शर्मा, प्रशांत दुबे और पंकज पटैरिया के चेहरे आंखों में तैरने लगे। दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। मैंने तमतमाकर दिल से सवाल दाग दिया कि तुम आखिर इतने अहंकारी क्यों हो गए हो? तब से सुन रहा हूं। तुम कुछ भी बके जा रहे हो। आखिर तुम्हें कुछ शर्म हया कुछ है कि नहीं। सारे सज्जन चेहरे तो मानो तुम्हारी निर्दयता का शिकार होने के लिए ही बने हैं। तुम्हें यह चिंता भी नहीं कि किसी के छोटे-छोटे मासूम बच्चे हैं। किसी के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई ही नहीं हो पाई, तो किसी के बच्चों की शादी वगैरह सब बाकी है। बेचारी महिलाओं का क्या दोष, क्या सब तुम्हारे सताने के लिए ही पैदा हुईं? अभी तक तो सुना था कि देह बूढ़ी और जर्जर हो जाती है, तब आत्मा छोड़कर नई देह धारण करती है। वैसे ही जैसे पुराने, फटे वस्त्र को हम त्याग देते हैं। पर तुम तो नए कपड़ों को भी बेशरमी से तार-तार कर रहे हो। जवान देहों को बेरहमी से अपना ग्रास बना रहे हो। क्या ‘जीवन देने वाले दिल’ की जगह तुम ‘जान लेने वाले दिल’ बन गए हो? कोमल की जगह कठोर बनकर भय और आतंक फैलाकर निर्दोषों की जान ले रहे हो।

दिल मौन था और एकटक हो मेरी बकबक सुन रहा था। और फिर बोला अब एक भी शब्द मत बोलना..कान खोलकर सुनो कि मैं कौन होता हूं जीवन देने और जान लेने वाला…? यदि तुम गीता का ज्ञान बता रहे हो तो कृष्ण से ही पूछ लो। आखिर उन्होंने अर्जुन को यह भी तो बताया था कि तुम कौन होते हो किसी के प्राण लेने वाले…? जन्म और मृत्यु का कारक मैं ही हूं अर्जुन, तुम तो माध्यम हो। युद्ध करोगे तो भी ठीक और नहीं करोगे तब भी जिनकी मृत्यु का समय तय है, उन्हें मरना ही है। फिर मेरी यानि दिल की हस्ती ही क्या है कि किसी की जान ले सकूं और ऐसा न होता तो फिर डॉक्टर और मेडिकल साइंस तो भगवान ही बन जाती। तुम दुनिया वालों ने तो डॉक्टर को दूसरे भगवान का दर्जा दे ही दिया था। फिर क्यों वह डॉक्टर अस्पताल में भर्ती मरीज की जान भी नहीं बचा पा रहे हैं…!

अब मेरे पास भी जवाब देने के लिए शब्द नहीं थे। अब दिल भी मौन था और मैं भी नि:शब्द था…। मेरी नम आंखों में ह्रदयघात से दुनिया छोड़ने वाले अपनों के चेहरे तैर रहे थे और दिल भारी था…! मन गमगीन हो फिर वही पंक्तियां गुनगुना रहा था … ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…! यही रट रहा था कि दिल अब तो तुम पर यकीं ही नहीं होता..।