झूठ बोले कौआ काटे! ‘छठ’ से लो सीख, वर्ना 2030 तक पानी के लिए तरसोगे

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झूठ बोले कौआ काटे! ‘छठ’ से लो सीख, वर्ना 2030 तक पानी के लिए तरसोगे

कितनी बड़ी त्रासदी है कि हर साल की तरह जहां, आज अस्त होते सूर्य को अर्घ के साथ 2022 का चार दिवसीय छठ पर्व प्रकृति के संरक्षण, साफ-सफाई और खानपान की शुचिता का संदेश देगा वहीं, 2030 तक देश की लगभग 60 करोड़ की आबादी पर जल संकट का खतरा मड़राने की भी खबर है। भारत में हर साल साफ पानी न मिलने की वजह से दो लाख लोगों की मौत हो जाती है तो, खाद्य पदार्थों में मिलावट का धीमा जहर अलग खतरा बना हुआ है।

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लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में 17 मार्च 2022 को जल शक्‍ति मंत्रालय ने बताया कि 2030 तक भारत के लगभग 40 फीसदी लोगों तक पीने के पानी की पहुंच खत्म हो जाएगी। इस किल्लत का सामना सबसे अधिक दिल्ली, बंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद के लोगों को करना पड़ेगा। रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक तमिलनाडु में तीन नदियां, चार जल निकाय, पांच झील और छह जंगल पूरी तरह से सूख जाएंगे। जबकि कई अन्य जगहों को भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरना पड़ेगा।

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बोले तो, लगभग चार साल पहले नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि देश में जल संरक्षण को लेकर अधिकांश राज्यों का काम संतुष्टिजनक नहीं है। मौसम विभाग ने तब बताया था कि कई वर्षों से देश के कुछ राज्यों में औसत से भी कम बारिश दर्ज की गई थी। जबकि कई राज्य सूखे की स्थिति से गुजर रहे हैं। यही वजह है कि भू-जल स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1952 के मुकाबले पानी की उपलब्‍धता एक तिहाई ही रह गई जबकि, इस दौरान आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ पहुंच गई। एक रिपोर्ट के अनुसार जल का स्‍तर हर साल एक फीट नीचे जा रहा है। सरकार के जल शक्‍ति मंत्रालय के अनुसार उद्योग और ऊर्जा क्षेत्र में कुल भू-जल की मांग आज के करीब सात प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2025 तक 8.5 प्रतिशत हो जाएगी, जो कि वर्ष 2050 तक बढ़ कर करीब 10.1 प्रतिशत हो जाएगी। पानी की कमी के कारण देश की जीडीपी में छह प्रतिशत की कमी आ सकती है। 70 प्रतिशत प्रदूषित पानी के साथ भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में 120वें पायदान पर है। जलसंकट के आधार पर 189 देशों में भारत 13वें पायदान पर है।

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केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 91 जलाशय ऐसे हैं जिनमें मात्र 20 प्रतिशत पानी ही बचा है। पश्चिम और दक्षिण भारत के जलाशयों में पानी पिछले 10 वर्षों के औसत से भी नीचे चला गया है। जलाशयों में पानी की कमी की वजह से देश का करीब 42 फीसदी हिस्सा सूखाग्रस्त है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की करीब 5 फीसदी जनसंख्या (7.6 करोड़ लोग) के लिए पीने का पानी उपलब्ध नहीं है और करीब 1.4 लाख बच्चे हर साल गंदे पानी की वजह से होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं। जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश के 639 में से 158 जिलों के कई हिस्सों में भूजल खारा हो चुका है और उनमें प्रदूषण का स्तर सरकारी सुरक्षा मानकों को पार कर गया है।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की एक रिपोर्ट ‘2021 स्टेट ऑफ क्लाइमेट सर्विसेज’ में बताया गया है कि भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगातार घट रही है। यह वर्ष 2001 के 1,816 क्यूबिक मीटर की तुलना में वर्ष 2011 में घटकर 1,545 क्यूबिक मीटर हो गई। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वर्ष 2031 में और घटकर 1,367 क्यूबिक मीटर हो जाएगी।

झूठ बोले कौआ काटेः

‘छठ’ पर्व जीवन में जल की महत्ता को रेखांकित करते हुए उसके प्रकृति निर्मित और मानव-निर्मित दोनों प्रकार के स्रोतों के संरक्षण व विकास पर ध्यान देने के साथ ही साफ-सफाई और खानपान की शुचिता का संदेश देता है। संतान के स्वास्थ्य के अतिरिक्त पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए भी इस पर्व को मनाया जाता है।

मैं अपने 5 वर्ष के बिहार प्रवास के दौरान मुजफ्फरपुर और भागलपुर, दोनों स्थानों पर सहेजे छठ पर्व के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि यह प्रकृति से प्रेम का पर्व है। यह पर्यावरण संरक्षण, रोग निवारण और अनुशासन का पर्व है। कौन किस रंग का है, किस जाति का है, किस वर्ण से है और कितना अर्थ लेकर जीवन यापन कर रहा है ये सब भगवान भास्कर के सामने निरर्थक हो जाता है। बड़े-छोटे, धनी-गरीब और छूत-अछूत तक का भेद मिट जाता है। चार दिन के इस महापर्व में व्रती महिला एंव पुरुष 36 घंटे का निर्जला व्रत रखकर सूर्यदेव-छठी मईया की पूजा करते हैं।

आडंबर-दिखावे से दूर और भक्ति-आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बिजली के लट्टुओं की चकाचौंध, पटाखों के धमाके और लाउडस्पीकर के शोर से दूर यह पर्व बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है। नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं।

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छठ पूजा के महीने भर पहले से घर की सफाई होने लगती है। पूजाघर की पुताई करा कर एक कमरा व्रती के लिए आरक्षित कर दिया जाता है। छठ व्रतियों को इन दिनों पलंग पर सोना और अर्घ्य के समय सिले हुए कपड़े पहनना मना रहता है। इसलिए महिलाएं केवल साड़ी और पुरूष धोती पहनते हैं। लोक कथाओं के अनुसार गन्ने का इस्तेमाल पूजा में इसलिए होता है क्योंकि गन्ने पर कोई भी पक्षी और पशु नहीं बैठता है इसलिए इसे शुद्ध माना जाता है।

ठेकुआ का प्रसाद बनाने के लिए गेहूं को धोया-सुखाया जाता है। गेहूं सूखने के दौरान कोई न कोई पहरा देता है कि कोई उसे छू न दे, चिड़िया चोंच न मार दे। आटा चक्की वाले 2-3 दिन अपना प्रांगण और मशीन धो-पोंछ कर साफ रखते हैं। इन दिनों वे केवल छठपूजा के लिये धुले गेहूं की पिसाई करते हैं। उधर, पानी में खड़े होकर अर्घ देने की परंपरा के कारण नदियों-जलाशयों की साफ-सफाई पर भी पूरा ध्यान दिया जाता है।

जल में खड़े होकर सूर्य की किरणों से पोषित हो उपजे अन्न और फल का प्रसाद उन्हें अर्घ्य रूप में अर्पित करने के पीछे शायद यही भाव है कि प्रकृति से सिर्फ लिया ही नहीं जाता, वरन उसको देने का संस्कार भी मनुष्य को सीखने की जरूरत है। केवल लेते रहने से एक दिन प्रकृति अपने हाथ समेट लेगी, तब मनुष्य के लिए कोई चारा नहीं बचेगा।

दिल्ली स्थित गैर सरकारी संस्था टॉक्सिक लिंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर की कुछ चुनिंदा और प्रमुख जीवनदायिनी नदियां कुल 1,404,200 टन प्लास्टिक कचरे का बोझ सहन कर रही हैं। चीन की यांगत्जे नदी के बाद भारत की गंगा नदी दुनिया में प्लास्टिक कचरे की दूसरी सबसे बड़ी वाहक है। रिपोर्ट में यह भी अनुमान है कि 2050 तक 99 फीसदी समुद्री पक्षियों के पेट में प्लास्टिक कचरा पहुंच चुका होगा। वहीं, 600 से अधिक प्रजातियों को इससे नुकसान पहुंचेगा। विडंबना है कि प्राकृतिक संपदा के अस्तित्व को हम जाने-अनजाने मिटाने पर तुले हैं।

नेशनल वाटर एकेडमी के पूर्व निदेशक प्रोफेसर मनोहर खुशलानी के अनुसार सरकार को चेन्नई में रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी रुपये खर्च करके पानी का खारापन दूर करना पड़ रहा है। हम सब यह भूल चुके हैं कि धरती की एक सीमा है और समुद्र सूख जाएंगे। हम अपने बच्चों के लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं। हो सकता है कि हमारा बैंक बैलेंस बहुत हो लेकिन हम उन्हें पानी की जगह रुपये-पैसे तो पीने के लिए नहीं कह सकते ना! समुद्र के पानी का खारापन दूर करके अपनी जरूरतों को पूरा करना समस्या का हल नहीं है। हमें हर हाल में वाटर हार्वेस्टिंग करना होगा। यह सरकार और देश के लोगों का सामूहिक दायित्व है कि वे पानी की बचत करें और भूजल स्तर को बढ़ाएं।

झूठ बोले कौआ काटे, छठ जीवन जीने का तरीका सिखाने वाला पर्व है। इसलिए, इस महान पर्व को स्वच्छता का राष्ट्रीय पर्व घोषित किया जाना चाहिए। छठ को राष्ट्रीय पर्व घोषित करने से देश के कोने-कोने में फैले जलाशयों की स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा होगी और इससे जल संरक्षण अभियान को भी गति मिलेगी। वर्ना, 8-10 साल बीतने में देर नहीं लगेगी। तब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत !

और ये भी गजबः

भारतीय परंपरा में राजा भागीरथ का नाम इसलिए मशहूर है क्योंकि उन्होंने गंगा को स्वर्ग से उतार कर जमीन पर लाने का काम किया था। उन्होंने यह काम इसलिए किया क्योंकि इसके बगैर उनके पुरखों की आत्मा को शांति नहीं मिलने वाली थी। आज के समय में भी अगर कहीं भी नदी-तालाब, कुओं या जमीन में पानी नहीं हो तो वहां के लोगों का जीवन नर्क से भी बदतर हो जाता है।

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ऐसे ही कुछ हालात आज से करीब 47 साल पहले अलवर जिले में थे। जहां की थानागाजी तहसील के गोपालपुरा गांव के निवासी हैं ‘जल पुरूष’ राजेंद्र सिंह। राजेंद्र सिंह ने बीएएमएस की पढ़ाई की और अपने गांव और आसपास लोगों का इलाज करने जाने लगे। उस समय अलवर में पानी की इतनी ज्यादा कमी थी कि गांवों में खेती-बाड़ी की कौन कहे, पीने के लिए भी पर्याप्त पानी मिलना कठिन था। अधिकांश नौजवान रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर पलायन कर गए थे। साफ पानी की कमी के कारण लोगों में रोगों का प्रकोप बहुत था।

इसके बाद राजेंद्र सिंह ने राजस्थान में पानी के लिए काम करने का फैसला किया। उन्होंने अनुभवी किसानों से ही बरसात के पानी को रोकने के तरीके सीखना शुरू कर दिया। जिसका एक बुनियादी सिद्धांत ये था कि जहां बारिश का पानी गिरता है, वहां उसे रोकने की कोशिश करनी है। जिससे वह भूमिगत जल को रिचार्ज करे। राजेंद्र सिंह ने अपने जीवट से अलवर, जयपुर, करौली, धौलपुर और दौसा में अपने कार्य क्षेत्र में सूख चुकी 9 नदियों में फिर से पानी लौटाकर उनको पुनर्जीवन दे दिया।

इस इलाकों में आज से 45 साल पहले केवल 2 फीसद हरियाली थी। जबकि आज 48 फीसद से ज्यादा इलाका हरियाली से भर चुका है। राजेंद्र सिंह के जल संरक्षण के काम से ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का काम भी हो रहा है। पहले यहां हरियाली नहीं थी, तब वहां बादल आते तो जरूर थे लेकिन बरसते नहीं थे। हीटवेव के कारण वे बादल उड़ जाते थे। अब वहां ज्यादा बारिश होने लगी है। राजस्थान के हजारों गांवों को राजेंद्र सिंह के जल संरक्षण के प्रयासों से लाभ मिला है। गांवों में इससे खेती और पशुपालन से जुड़े रोजगार खड़े हो गए हैं। राजेंद्र सिंह ने महाराष्ट्र में अग्रणी और महाकाली नदियों और कर्नाटक में भी बहने वाली अग्रणी और इचनहल्ली नदियों को भी पुनर्जीवन दिया है।