मन को मोह लेता है यह मौनिया नृत्य…

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मौनिया नृत्य बुंदेलखंड की लोक संस्कृति की बड़ी धरोहर है। आज इस बहाने मौनिया नृत्य पर लिखने का बेहतर अवसर मुझे प्रतीत हुआ है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान छतरपुर जिले के बिजावर कस्बे में आयोजित मौनिया नृत्य महोत्सव में शिरकत करने पहुंचे। वैसे तो मौनिया नृत्य में वह ताकत है कि हर देखने वाले के मन को नृत्य करने के लिए मचलने को मजबूर कर दे। और घरों के बच्चे तो खुद को नाचने और मटकने से रोक ही नहीं पाते। और बच्चे तो आपस में लकड़ियां लेकर मौनिया नृत्य को अपने खेल में भी शामिल कर ही लेते हैं। दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजन के दिन ‘मौनिया’ गांव-गांव हर घर की देहरी के सामने नृत्य करते हैं और उपहार स्वरूप भेंट प्राप्त करते हैं।

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यह बहुत ही समृद्ध परंपरा है, जो लोक में समाई हुई है। बुंदेलखंड के गांव में जन्म लेने और पलने-बढ़ने के चलते हमारी नन्हीं आंखों और नन्हे मन को भी मौनिया नृत्य बहुत भाया है और दिल के लोक में बसा है। मौनिया नृत्य और दिवारी गीत का भी गाढ़ा रिश्ता है। दिवारी गीत दिवाली के दूसरे दिन उस समय गाये जाते हैं, जब मोनिया मौन व्रत रख कर गाँव- गाँव में घूमते हैं। दीपावली के पूजन के बाद मध्य रात्रि में मोनिया -व्रत शुरू हो जाता है। गाँव के अहीर – गडरिया और पशु पालन और बटाई पर खेती-किसानी करने वाले किसान तालाब नदी में नहा कर,सज-धज कर मौन व्रत लेते हैं। इसी कारण इन्हें मौनिया कहा जाता है।

मान्यता है कि द्वापर युग से यह परम्परा चली आ रही है,इसमें विपत्तियों को दूर करने के लिए ग्वाले मौन रहने का कठिन व्रत रखते हैं। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक मौनिया पर्व के दिन रखना पड़ता है। इस दौरान मांस मदिरा का सेवन वर्जित रहता है। तेरहवें वर्ष में मथुरा व वृंदावन जाकर यमुना नदी के तट पर पूजन कर व्रत तोड़ना पड़ता है।

शुरुआत में पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं और प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है। परम्परा के अनुसार पूजन कर पूरे नगर में ढोल,नगड़िया की थाप पर दीवारी गाते, नृत्ये करते हुए हुए अपने गंतव्य को जाते हैं। इसमें एक गायक ही लोक परम्पराओं के गीत और भजन गाता है और उसी पर दल के सदस्य नृत्य करते हैं। मौनिया नर्तक समूह में गाने वाला टेर लगाता है तो कुछ सदस्य बहुरूपिए बनकर स्वांग रचाकर भी दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। जो बच्चों  और बड़े लोगों, घरों की महिलाओं, बुजुर्गों सभी को खूब लुभाते हैं। मौनिया  कौड़ियों से गुथे लाल पीले रंग के जांघिये और लाल पीले रंग की कुर्ती या सलूका अथवा बनियान पहनते हैं। जिस पर कौड़ियों से सजी झूमर लगी होती है , पाँव में भी घुंघरू ,हाथों में मोर पंख अथवा चाचर के दो डंडे का शस्त्र लेकर जब वे चलते हैं तो सबकी नजरें उन पर टिकी रह जाती हैं। मौनियों के इस निराले रूप और उनके गायन और नृत्य को देखने लोग ठहर जाते हें ।

मान्यताएं और भी हैं। पर अगर संभव हो तो सभी को एक बार इस मौनिया नृत्य का आनंद जरूर लेना चाहिए। जैसे होली के दिन बुंदेलखंड अंचल में सड़कों पर हुरियारों की टोली नजर आती है। ठीक उसी तरह दीपावली के दूसरे दिन बुंदेलखंड के गांवों में मौनिया नृत्य देखने को सहज ही मिल जाता है। यह दावा है कि जो भी देखेगा, उसे मौनिया नृत्य देखने का मन दूसरी बार भी जरूर होगा। क्योंकि मन को मोह लेता है यह मौनिया नृत्य…। जिस तरह मौनिया साल के इस दिन का इंतजार करता है, उसी तरह दीपावली के दूसरे दिन मौनिया का इंतजार हर घर करता है।