कामरेड होमी दाजी और कांता बेन पारेख…!

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आज अखबार की सुर्खियों में कुछ खबरें पढ़ीं जो उपचुनाव की राजनीतिक गणित पर थीं..। पहली यह कि गूर्जर वोटरों को लामबंद करने खंडवा लोकसभा के चुनाव प्रचार में सचिन पायलट आएंगे। दूसरी निवाड़ी विधानसभा में हारजीत का फैसला यादव और कुशवाहा वोटर करेंगे..।

तीसरी रैंगाव में कांग्रेस को ठाकुर, काछी वोटर को अपने हक में करना है तो अजय सिंह राहुल और सिद्धार्थ कुशवाहा डब्बू को साधे रखना होगा। इन खबरों को पढ़ते हुए उस चुनावी समयकाल का स्मरण हो आया जब बिना जातीय आधार वाले होमीदाजी और कांताबेन पारेख सरीखे उम्मीदवार भी जीत जाया करते थे..।

इंदौर के कामरेड होमीदाजी और सतना की कांताबेन पारेख के व्यक्तित्वों में जमीन आसमान का फर्क था लेकिन जो एक अद्वितीय समानता थी वो यह कि दोनों ही अपने-अपने शहर में अति अल्पसंख्य पारसी व गुजराती परिवारों से वास्ता रखते थे और सार्वजनिक जीवन में इतने लोकप्रिय हुए कि जनता ने दो-दो बार इन्हें विधायक चुना। होमीदाजी तो लोकसभा सदस्य भी चुने गए।

जाति और संप्रदाय की भावनाओं से भीजीं राजनीति में अब चुनने की बात कौन करें कोई दल इस तरह के उम्मीदवारों को टिकट देने के लिए भी लाख बार सोचेगा।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की टिकट पर होमीदाजी इंदौर पश्चिम की विधानसभा सीट से 1957 व 1972 में चुने गए। इस बीच 1962 में वे इंदौर की लोकसभा सीट से निर्वाचित होकर संसद पहुंचे। कामरेड दाजी पारसी परिवार के हैं जब उन्होंने पहला चुनाव जीता तब उनकी विधानसभा में पारसियों के सौ वोट भी नहीं थे।

होमीदाजी का परिवार 1930-35 के आसपास मुंबई से इंदौर आया। दाजी की स्कूली और कालेजी शिक्षा यहीं हुई। वे स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में 1942 में जेल गए। 1946 में भाकपा से जुड़े और जीवनपर्यंत इसी में रहे।

दाजी छात्र राजनीति से निकलकर श्रमिक आंदोलनों से जुड़े और इंदौर की कपड़ा मिलों के श्रमिकों के नायक हो गए।

होमीदाजी इंदौर जैसे महानगर में गरीबगुरबों के ऐसे महानायक होकर उभरे कि उनके आगे जातिपाँति, धर्म-संप्रदाय की बाधाएं स्वमेव टूट गईं। उन्होंने राजनीति को दो जातियों में बाँट दिया एक गरीब दूसरा अमीर। वे गरीब जाति के नायक थे।

तरक्की के उच्च पायदान पर बैठे मर्करी की रोशनी में चकाचौंध इंदौर महानगर में क्या अब कल्पना की जा सकती है कि अब होमीदाजी सरीखा कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ व जीत सकता है ?

सतना आज जातीय राजनीति के चरम प्रभाव में है। 1967 में जब एक गुजराती परिवार की सामान्य महिला कांताबेन पारेख काँग्रेस की टिकट पर चुनाव मैंदान में उतरीं तो जनता ने सिरमाथे पर बैठाते हुए अपना विधायक चुन लिया। उन्होंने इस चुनाव में जनसंंघ के दिग्गज निवृतमान विधायक दादा सुखेन्द्र सिंह को हराया था।

आज सतना में मुश्किल से सौ गुजराती परिवार हैं। कांताबेन जब चुनाव लड़ी थीं तब गुजरातियों के सौ वोट भी नहीं थे।

कांताबेन समाजसेवा से राजनीति में आईं। स्कूल खोले, महिलाओं को शिक्षा और स्वाबलंबन हेतु प्रेरित किया। देखते ही देखते वे सतना भर की बहन हो गईं। यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके अपने बच्चे भी मम्मा की जगह बहन ही कहने लगे।

कांताबेन को राजनीति में लाने वालों में थे शिवानंद जी और डा. लालता खरे। सतना तब जनसंंघ का गढ़ था। जनसंंघ के पहले प्रदेशाध्यक्ष राजकिशोर शुक्ल इसी शहर के थे। दादा सुखेंद्र सिंह की तब वही हैसियत थी जो कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल की।

जनसंंघ के गढ़ को एक ऐसी महिला ने तोड़ दिया था जिसकी समाजसेवा की अविरल धार में जातिपाँति बह गई।

कांताबेन ने काँग्रेस की टिकट पर 1972 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर दादा सुखेन्द्र सिंह को भारी मतों के अंतर से हराया। वे विधानसभा के दो चुनाव लड़ीं और दोनों ही जीतीं।

अब प्रायः सभी दल अपने उम्मीदवार जातीय वोटों की गणित के हिसाब से उतारते हैं। वोटर की भी वरीयता में आसन्न समस्याओं से ऊपर जातीय भावना सवार रहती है। ऐसे में होमीदाजी और कांताबेन पारेख सरीखे नेता चुनावी लोकतंत्र के सुनहरे दौर का स्मरण कराते हैं।