सर्वस्व बलिदान की पर्याय थी माता गुजरी…

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सर्वस्व बलिदान की पर्याय थी माता गुजरी…

देश में पहली बार ‘वीर बाल दिवस’ मनाए जाने पर हमने लिखा था कि ‘दिवस बताएगा कि भारत की संस्कृति कितनी महान है।’ इस आलेख में मुझे खेद हुआ कि माता गुजरी, गुरु गोविंद सिंह और वीर साहिबजादों के बीच रिश्तों की बात के साथ मैं पूरी तरह न्याय नहीं कर पाया था। उसी की भरपाई के लिए एक बार मैं पूरा आलेख माता गुजरी जी पर ही लिख रहा हूं। वैसे यदि देखा जाए तो राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने वाली कोई मां है, तो वह माता गुजरी ही हैं। समर्पण, त्याग और वीरता की पर्याय मातृशक्ति में माता गुजरी का नाम शीर्ष पर ही रहेगा।

श्री गुरु तेग बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे। श्री गुरु तेग बहादुर जी विश्व मे प्रभावशील गुरू है। उन्होंने कश्मीरी पंडितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुस्लिम बनाने का विरोध किया। 1675 में मुगल शासक औरंगज़ेब ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को कहा। पर गुरु साहब ने कहा कि सीस कटा सकते हैं, केश नहीं। इस पर औरंगजेब ने सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया था।

गुरु तेग बहादुर की जीवनसाथी माता गुजरी थी। जिन्होंने अपने पति को राष्ट्र की बलिवेदी पर न्यौछावर होते हुए देखा। इनकी इकलौती संतान गुरु गोबिन्द सिंह भी मुगलों का विरोध करते हुए भारत माता पर न्यौछावर हो गए। और माता गुजरी के चारों पोते यानि गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों बेटे भी वीरता पूर्वक अपने प्राणों को न्यौछावर कर शहीद हो गए थे। और जब माता गुजरी का दिल पोतों की शहादत पर भर आया, तब उन्होंने भी देह से विदा ली और पंचतत्व में विलीन हो गईं थीं।

विस्तार से देखें तो 1666 में गुरु तेग बहादुर जी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ था, जो दसवें गुरु- गुरु गोबिन्दसिंहजी बने। गुरु तेग बहादुर के बलिदान कारण मुस्लिम शासन और उत्पीड़न के खिलाफ गुरु गोविन्द सिंह का संकल्प और भी दृढ़ हो गया था।गुरु गोबिन्द सिंह अपने पिता जी श्री गुरू तेग बहादुर जी के बलिदान के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को 10 वें गुरू बने। आप एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ (पन्थ) की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। गुरु गोविन्द सिंह जी के चार बच्चे अजीत सिंह,जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह थे। गुरु गोविन्द सिंह ने अन्याय, अत्याचार और पापों का खात्मा करने के लिए और गरीबों की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ (पूरे परिवार का दानी) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।

27 दिसम्बर सन्‌ 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है। 8 मई सन्‌ 1705 में ‘मुक्तसर‘ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन्‌ 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए।

इससे पहले मुगलों ने श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से बदला लेने के लिए जब सरसा नदी पर हमला किया तो गुरु जी का परिवार उनसे बिछड़ गया था। छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह और गुरु गोविन्द सिंह की मां माता गुजरी अपने रसोईए गंगू के साथ उसके घर मोरिंडा चले गए।रात को जब गंगू ने माता गुजरी के पास मुहरें देखी तो उसे लालच आ गया। उसने माता गुजरी और दोनों साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह बाबा फतेह सिंह को सरहिंद के नवाब वजीर खां के सिपाहियों से पकड़वा दिया।

वजीर खां ने छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह बाबा फतेह सिंह तथा माता गुजरी जी को पूस महीने की तेज सर्द रातों में तकलीफ देने के लिए ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया। यह चारों ओर से खुला और उंचा था। इस ठंडे बुर्ज से ही माता गुजरी जी ने छोटे साहिबजादों को लगातार तीन दिन धर्म की रक्षा के लिए सीस न झुकाने और धर्म न बदलने का पाठ पढ़ाया था। यही शिक्षा देकर माता गुजरी जी साहिबजादों को नवाब वजीर खान की कचहरी में भेजती रहीं। 7 व 9 वर्ष से भी कम आयु के साहिबजादों ने न तो नवाब वजीर खां के आगे शीश झुकाया और न ही धर्म बदला। इससे गुस्साए वजीर खान ने 26 दिसंबर, 1705 को दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवार में चिनवा दिया था। जब छोटे साहिबजादों की कुर्बानी की सूचना माता गुजरी जी को ठंडे बुर्ज में मिली तो उन्होंने भी शरीर त्याग दिया।श्री गुरु गोबिंद सिंह के चार साहिबजादों में दो अन्य चमकौर की जंग में शहीद हुए थे। गुरु गोबिंद ने अपने दो पुत्रों को स्वयं आशीर्वाद देकर जंग में भेजा था। चमकौर की जंग में 40 सिखों ने हजारों की मुगल फौज से लड़ते हुए शहादत प्राप्त की थी। 6 दिसंबर, 1705 को हुई इस जंग में बाबा अजीत सिंह (17) व बाबा जुझार सिंह (14) ने धर्म के लिए बलिदान दिया था। इस तरह माता गुजरी के पति गुरु तेग बहादुर जी और चारों पोते राष्ट्र की बलिवेदी पर न्यौछावर हुए थे और पोतों के निधन पर दादी माता गुजरी का दिल भी दुनिया से भर गया था और उन्होंने भी देह त्यागकर इस दुनिया से विदा ली थी। तो त्याग, समर्पण और बलिदान की प्रतिमूर्ति माता गुजरी को शत शत नमन। ऐसी मातृशक्ति के बारे में सभी को जानकारी होना ही चाहिए।