जातीय राजनीति बिहार में ध्वस्त होने की नव क्रांति का जय घोष

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जातीय राजनीति बिहार में ध्वस्त होने की नव क्रांति का जय घोष

आलोक मेहता

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बिहार से राजनीतिक व्यवस्था के लिए ‘ सम्पूर्ण क्रांति ‘ का आव्हान किया था | इसके 50 साल बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जातीय राजनीति की कलंकित सत्ता व्यवस्था को बदलने में सफलता पाकर नव क्रांति कर दी है | विशेष रूप से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल याफ्ता लालू यादव के यादव मुस्लिम वोट बैंक को फेल करने और कांग्रेस द्वारा दलित मुस्लिम मतदाताओं को बंधक गुलाम समझने की दादागिरी को भी विफल किया जाना दूरगामी हितों का परिचायक है | बिहार विधानसभा चुनावों ने एक स्पष्ट संकेत दिया है — जातिगत और सामुदायिक राजनीति की सीमाएँ हैं, और सिर्फ पहचान-राजनीति अब उतनी मजबूत शक्ति नहीं रही जितनी पहले मानी जाती थी। महागठबंधन की हार इस तथ्य को दर्शाती है कि पुराने समीकरण, पुराने वोट बैंक अब बिना आधुनिक और विकास-उन्मुख रणनीति के काम नहीं कर सकते। इसी तरह कम्युनिस्ट माओवादी पार्टियों का लाल किला भी टूट फूट गया | नक्सल प्रभावित इलाका भी हिंसा से मुक्त हो गया है |
युवा मतदाता, आशावादी सामाजिक परिवर्तन, और बेहतर शासन की मांग ने बिहार की राजनीति को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। भविष्य के लिए, जो दल इन बदलते रुझानों को समझेगा और उसे अपनी राजनीति में आत्मसात करेगा, वह अधिक सफल होगा।मोदी के ‘ सबका साथ सबका विकास ‘ का फार्मूला जनता ने स्वीकार कर लिया | प्रधान मंत्रीं नरेंद्र मोदी के सत्ता के 25 वर्ष और नीतीश कुमार की सत्ता के 20 वर्ष के कार्यकाल में दोनों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लग सका | यह इस बात का भी प्रमाण है कि जनता भ्रष्ट , अपराधी और बेईमान नेतृत्व के बजाय ईमानदार और जनता के सर्वांगीण विकास के लिए समर्पित नेतृत्व को पसंद करती है |
बिहार की सामाजिक संरचना जटिल समझी जाती रही है। 2023 की जाति-गणना के मुताबिक, अत्यंत पिछड़ी जातियाँ राज्य की लगभग 36% हैं। पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ , उच्च जातियाँ — सभी का यहाँ महत्वपूर्ण प्रतिशत है। इस प्रकार, बिहार में जातिगत विभाजन राजनीतिक समीकरणों का मूल आधार रहा है। यह वह जमीन है जिस पर दल हमेशा वोट बैंक विकास की रणनीति तैयार करते रहे। लेकिन हाल के समय में, बिहार के मतदाता “पुराने जातिगत समीकरण” के अलावा नई आशाओं और मुद्दों की ओर भी झुके हैं। यह युवा मतदाता वर्ग, पहली बार वोट देने वाले, विकास, रोज़गार और शासन-परदर्शिता जैसे एजेंडों को महत्व दे रहा है। – इस बदलाव का मतलब यह है कि सिर्फ जाति-गणित) अब चुनाव जीतने का पर्याप्त आधार नहीं रहा। लालू यादव की पारंपरिक ताकत मुसलमान + यादव वोट बैंक माना जाता रह |, यह वोट बैंक लगभग 30% तक पहुंचता है। यह वही वोट बैंक है जिस पर लालू-राज की राजनीति लंबे समय से आधारित रही। – लेकिन 2025 में, यह पुराना समीकरण पूरी तरह नाकाम रहा |
तेजस्वी यादव अन्य पिछड़ी जातियों में गहराई तक पैठ नहीं बना सके। इसके साथ ही, गठबंधन के आंतरिक मतभेद और सीट आवंटन की लड़ाइयों ने भी सुनिश्चित सहयोग को कमजोर कर दिया। महागठबंधन के विभिन्न घटक ( राजद , कांग्रेस, लेफ्ट) के पास एक राजनीतिक संदेश नहीं था। इस तरह, आम मतदाताओं के लिए गठबंधन की “कहानी” स्पष्ट नहीं थी और यह एक बड़ी कमजोर कड़ी साबित हुई।
महागठबंधन में नेतृत्व का अस्थिर ढांचा था। राजद और कांग्रेस के बीच मुख़्यमंत्री चेहरे को लेकर विवाद, और रणनीति पर तालमेल की कमी सार्वजनिक रूप से दिखी।तेजस्वी यादव ने जो राजनीतिक आक्रामकता दिखाई, वह विशाल वोट बैंक तक नहीं पहुंच पाई क्योंकि उनकी रणनीति कहीं-कहीं अहस्तक्षेपपूर्ण रही। – गठबंधन में ‘ कथित फ्रेंडली ‘ मित्रवत मुकाबले भी हुए | कुछ सीटों पर राजद , कांग्रेस, वी आई पी आदि के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हुए। – महागठबंधन की स्थानीय संगठन उतनी मजबूत नहीं थी जितनी कि मोदी शाह नीतीश गठबंधन की थी।बूथ मैनेजमेंट में कमजोरी, उम्मीदवारों की पहचान की कमी और गठबंधन के अंदरूनी मतभेदों ने उनकी चुनावी लड़ाई को कमजोर कर दिया।इसमें यह भी देखा गया कि कांग्रेस द्वारा कुछ उम्मीदवारों का चयन गलत रहा | स्थानीय समीकरणों की अनदेखी हुई, जिससे मतदाता नाराज हुए। युवा मतदाता, विशेष रूप से नौकरी, आर्थिक भविष्य और विकास-विकास एजेंडा पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। पहले वोट देने वाले बहुतों ने जातिगत कार्ड की सीमाओं को पहचान लिया है | भाजपा-जदयू गठबंधन ने विकास, सुशासन, कानून-व्यवस्था पर एक स्पष्ट एजेंडा पेश किया , जिसे कई मतदाताओं ने पसंद किया |इसके विपरीत, महागठबंधन का एजेंडा धुंधला रहा — जाति-समर्थित रणनीतियाँ, लेकिन ठोस विकास व शासन की पहल कम दिखाई दी। यही “नवीन राजनैतिक चेतना” कुछ इलाकों में जाति-संकेतों की ताकत को कम कर रही है।
बिहार में “सांप्रदायिक राजनीति”का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा किया गया, लेकिन 2025 में यह उतना निर्णायक नहीं रहा जितना पहले माना जाता था।
राजद हमेशा मुसलमान-समर्थित दावेदार समझता रहा , लेकिन महागठबंधन ने मुसलमान वोट को अकेले मुद्दे तक सीमित नहीं रखा — वे बड़े सामाजिक न्याय, गरीबी राहत और आर्थिक मुद्दों पर भी बात करना चाहते थे। लेकिन उनकी पहुँच मात्र पहचान-आधारित राजनीति तक सीमित रही। इसके अलावा, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने सबका साथ के रास्ते को प्राथमिकता दी | गठबंधन में सीटों की टकराहट और बूथ मैनेजमेंट की कमजोरी ने नुकसान पहुंचाया।
महागठबंधन में नेतृत्व की वैचारिक अस्पष्टता, भरोसे की कमी और चयन प्रक्रिया सुधारने में असमर्थता ने मतदाताओं के मन में अनिश्चितता पैदा की | इस बीच एन डी ए ने एक अधिक केंद्रित, विकास-उन्मुख और संगठनात्मक रूप से मजबूत अभियान चलाया जिसने मतदाताओं को भरोसा हुआ । 2025 का बिहार चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण साबित हुआ कि पारंपरिक जातिगत और पहचान-राजनीति अब “अपर्याप्त” हो गई है। नए मुद्दे — जैसे रोज़गार, युवा आकांक्षाएँ, आर्थिक समावेश, महिला सशक्तिकरण मतदाताओं के लिए पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। इसके साथ ही, मतदाता अब केवल जातिगत पहचान से संतुष्ट नहीं हैं; वे “नियंत्रण एवं जवाबदेही ”, “प्रभावी शासन” और “दूरगामी विकास” की मांग कर रहे हैं। महागठबंधन के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि सिर्फ पुराने जातिगत समीकरणों को दोहराना और वोट बैंक के भरोसे राजनीति करना अब पर्याप्त नहीं है।उन्हें अपनी रणनीति को पुनर्गठित करना होगा — बूथ स्तर की मजबूत संगठन, स्थानीय उम्मीदवारों का चयन, वास्तविक विकास-पक्षीय नारे, और नेतृत्व की स्पष्टता।साथ ही, नए मतदाताओं (युवा, पहली बार वोट देने वाले) को लक्षित करने के लिए एजेंडा तैयार करना होगा, ना कि सिर्फ जातिगत समीकरणों पर निर्भर रहना।
वामपंथी दलों में, भाकपा (माले) विपक्ष की सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी रही है । 2020 में 19 में से 12 सीटें जीतने के बाद, इस बार भाकपा (माले) ने 20 सीटों पर उम्मीदवार उतारे | कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बार 33 उम्मीदवार उतारे ,जिनमें केवल 3 जीत पाए | मतलब कम्युनिस्ट अब बिहार से उखड़ गए हैं | वहीँ राहुल गांधी का नेतृत्व विफल होने से गठबंधन की दशा दिशा बदलने वाली है |

बेहतर शासन की मांग ने बिहार की राजनीति को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। भविष्य के लिए, जो दल इन बदलते रुझानों को समझेगा और उसे अपनी राजनीति में आत्मसात करेगा, वह अधिक सफल होगा।मोदी के ‘ सबका साथ सबका विकास ‘ का फार्मूला जनता ने स्वीकार कर लिया | प्रधान मंत्रीं नरेंद्र मोदी के सत्ता के 25 वर्ष और नीतीश कुमार की सत्ता के 20 वर्ष के कार्यकाल में दोनों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लग सका | यह इस बात का भी प्रमाण है कि जनता भ्रष्ट , अपराधी और बेईमान नेतृत्व के बजाय ईमानदार और जनता के सर्वांगीण विकास के लिए समर्पित नेतृत्व को पसंद करती है |