Akbar Ilahabadi: हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम …

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Akbar Ilahabadi: हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम …

कौशल किशोर चतुर्वेदी की खास रिपोर्ट 

शायर के शब्दों में वह ताकत होती है कि पढ़ने वालों को वाह वाह करने को मजबूर होना ही पड़ता है। और कहा जाए तो ऐसी ही गजलों को सुनकर लोग लाखों गमों को भुलाने की हिम्मत पा लेते हैं। अब एक शेर यह ही पढ़ कर देख लीजिए, अगर वाह-वाह करने को मजबूर न हो जाएं तो बताना…

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम

वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता…

तो इसके आगे बढ़ता हूं, तो एक शेर है जिसे पढ़कर भी आह निकल जाए…

जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर

हँस के कहने लगा और आप को आता क्या हैं…

और इसके बाद फिर वह शेर जिसे पढ़कर हर पीने वाले का दिल बाग बाग हो जाए…और न पीने वाले भी वाह वाह करने लगें…

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है

और यह शेर पढ़कर तो किसी के भी मन में यह आ ही सकता है कि क्यों न पूरी गजल सुन ली जाए। तो यहां सुनने जैसी सहूलियत नहीं है, तो चलो पढ़ ही लेते हैं यह पूरी गजल। सुनना है तो गुलाम अली साहब की आवाज में सुनकर मन प्रसन्न हो जाएगा।

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है

ना-तजरबा-कारी से वाइ’ज़ की ये हैं बातें

इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना

मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है

ऐ शौक़ वही मय पी ऐ होश ज़रा सो जा

मेहमान-ए-नज़र इस दम इक बर्क़-ए-तजल्ली है

वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में कि सब सह लो

उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से

हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं

बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है

ता’लीम का शोर ऐसा तहज़ीब का ग़ुल इतना

बरकत जो नहीं होती निय्यत की ख़राबी है

सच कहते हैं शैख़ ‘अकबर’ है ताअत-ए-हक़ लाज़िम

हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है…

वाह वाह वाह…नई उम्र के बच्चों की बात तो नहीं कर सकता, पर चालीस पार वाले हर शख्स ने यह गजल सुनी भी होगी और कई बार सुनी होगी।

यहां हम बात कर रहे हैं अकबर इलाहाबादी की। आज उनका जन्मदिन है। और उन्होंने जो लिखा है, वह पढ़कर और मशहूर गायकों की आवाज में सुनकर मानो कोई भी खो जाता है। खुद से बेखबर हो जाता है।

अकबर ने सैयद अकबर हुसैन के नाम से 16 नवंबर 1846 में इलाहाबाद के निकट बारा में एक सम्मानजनक, परिवार में जन्म लिया। उनके पिता का नाम सैयद तफ्फज़ुल हुसैन था। अकबर इलाहाबादी उर्दू भाषा के एक प्रतिभाशाली शायर और लेखक थे। इनके द्वारा लिखे गए लेख स्वतंत्रता संग्राम के समय बहुत ज्यादा मशहूर थी।अकबर ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने पिता द्वारा घर पर ही ग्रहण की। उन्होंने 15 साल की उम्र में अपने दो या तीन साल बड़ी लड़की से शादी की थी और जल्द ही उन्की दूसरी शादी भी हुई। दोंनो पत्नियों से अकबर के 2-2 पुत्र थे। अकबर ने वकालत की अध्ययन करने के बाद बतौर सरकारी कर्मचारी कार्य किया। हालांकि अकबर एक जीवंत, आशावादी कवि थे। उसके बाद के जीवन में चीजों के बारे में उनकी दृष्टि घर पर उसकी त्रासदी के अनुभव से घिर गई थी। उनके बेटे और पोते का निधन कम उम्र में ही हो गया। यह उनके लिये बड़ा झटका था और निराशा का कारण बना। फलस्वरूप वह अपने जीवन के अंत की ओर काफी तेजी से चिंताग्रस्त और धार्मिक होने लगे थे। व 75 साल की उम्र में 1921 में अकबर की मृत्यु हो गई। वैसे भी दुनिया के बारे में उनके शेर और गजल का कुछ जवाब नहीं है…

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ

बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी

हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बे-लौस

साया हूँ फ़क़त नक़्श-ब-दीवार नहीं हूँ

अफ़्सुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत

ग़म का मुझे ये ज़ोफ़ है बीमार नहीं हूँ

वो गुल हूँ ख़िज़ाँ ने जिसे बर्बाद किया है

उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

या रब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से

मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ

गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में

बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ

अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं ‘अकबर’

काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ

तो अकबर एक शानदार, तर्कशील, मिलनसार आदमी थे। और उनकी कविता हास्य की एक उल्लेखनीय भावना के साथ कविता की पहचान थी। वो चाहे गजल, नजम, रुबाई या क़ित हो उनका अपना ही एक अलग अन्दाज़ था। वह एक समाज सुधारक थे और उनके सुधारवादी उत्साह बुद्धि और हास्य के माध्यम से काम किया था। शायद ही जीवन का कोई पहलू है जो उनके व्यंग्य की निगाहों से बच सका था।उनकी मशहूर पुस्तक गाँधीनामा को उनके पोते ने 1948 में छपवाया था उसका हिंदी अनुवाद भी हुआ था। तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी को पढ़कर और उनकी गजलों को सुनकर आज भी कोई ऐसा नहीं, जो खुद को उनके करीब न पाए…आइए वीकेंड के इस शनिवार को अकबर की गजलों को पढ़कर और सुनकर दिन अच्छा बनाते हैं…। शुरुआत करते हैं गजल सुनकर जिसका शेर है कि “हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम

वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता…।”