गठबंधन के तात्कालिक लाभ और भविष्य के खतरे

दलबदल विरोधी कानूनों को कड़ा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट और संसद करे विचार

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गठबंधन के तात्कालिक लाभ और भविष्य के खतरे

पांच विधान सभा चुनावों में विजय के दावे हर पार्टी कर रही है , लेकिन जमीनी सच्चाइयों का आकलन करने वाले मानते हैं कि गोवा , पंजाब , उत्त्तराखंड ही नहीं उत्तर प्रदेश में भी गठबंधन सरकार की संभावना हो सकती है | आख़िरकार समाजवादी पार्टी ही नहीं भाजपा ने भी कुछ छोटे दलों से चुनावी समझौते किए हैं | इसे मज़बूरी और तात्कालिक लाभ के लिए समझा जा सकता है | लेकिन इस बार भी जिस तरह से उत्तर प्रदेश में टिकट कटने या असंतोष के कारण बड़ी संख्या में भाजपा से जुड़े नेता पलायन किए हैं या पहले गोवा में कांग्रेस विधायकों ने दल बदले , वह इन बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों तथा चुनाव व्यवस्था के लिए गंभीर विचार का मुद्दा होना चाहिये |

 दलबदल के दलदल से मुक्ति के लिए राजीव गाँधी के सत्ताकाल 1985 में एक कानून बना और फिर अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ताकाल में 2003 में चुनाव सुधार कानून में एक और संशोधन हुआ | मतलब सुधारों के बीस साल से अधिक समय निकल चुका , लेकिन चतुर नेताओं ने जाति , संप्रदाय , क्षेत्रीय हितों के बहाने और कानूनों की कुछ खामियों से सौदेबाजी कर स्वार्थ पूर्ति की सुरंगें बना ली | सरकारों की स्थिरता  किसी एक दल को पर्याप्त बहुमत मिलने पर निर्भर करती है | अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों की लोकतांत्रिक देशों में दो तीन राष्ट्रीय स्तर के दल होने से दलबदल के संकट नहीं आते | विशाल भारत में राष्ट्रीय दलों के कमजोर होने और कुछ राज्यों में  क्षेत्रीय दलों के प्रभावी होने से समस्या घटती बढ़ती रही है | वैचारिक आधार पर राजनैतिक नेताओं या दलों में मतभेद और टकराव की स्थिति सत्तर के दशक समझ में आती थी | अब सामाजिक , आर्थिक और बहुत हद तक राजनैतिक विचारों पर

 अधिकांश  दलों में कोई अंतर नहीं है | कम्युनिस्ट पार्टियों या धार्मिक आधार वाले छोटे दल अपवाद हो सकते हैं | इसी तरह क्षेत्रीय दलों की दो चार बातें भिन्न हो सकती हैं | तबादलों , ठेकों , मलाईदार विभागों और सत्ता की अधिकाधिक सुविधाओं को लेकर सौदेबाजी करने वाले अब जाति के हितों के नाम पर दलबदल या नए गठबंधन करने लगे हैं |

यह स्वीकारा जाना चाहिये कि दलबदल विरोधी कानून के साथ जातिगत राजनीति के खिलाफ राजीव गाँधी ने गंभीर प्रयास किए | वर्षों तक गाँधी परिवार और कांग्रेस से सत्ता का लाभ उठाने वाले वी पी सिंह ने  मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू   करने के बहाने जातीय राजनीति की आग लगाई | बोफोर्स और भ्रष्टाचार का नैरा दिया , लेकिन अरुण नेहरू सहित कई ऐसे ही नेताओं के बल पर सत्ता पाई , जो उन आरोपों के असली दोषी थे |

बोफोर्स सौदे में मुख्य भूमिका तो अरुण नेहरू की ही थी | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद विकास और गांव गरीब की आर्थिक स्थिति सुधारने के साथ निश्चित रूप से हिंदुत्व के मुद्दे को महत्व देकर जान समर्थन पाया है | इससे जातीय आधार पर अनुचित स्वार्थ सिद्ध करने वालों के लिए अधिक संकट आ रहा है | विकास  योजनाओं और आर्थिक सुविधाओं में सभी जातियों और अल्पसंख्यकों के हितों में भेदभाव असंभव है | हाँ हिंदुत्व के नाम पर कुछ कट्टरपंथी संगठनों की  गैर जिम्मेदाराना गतिविधियों से मोदी सरकार और भाजपा की छवि को दाग लग रहे हैं |

ऐसे साम्प्रदायिक संगठनों को जनता का भी व्यापक समर्थन नहीं मिलता है , लेकिन वे सामान्य लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर सत्ता पर भी अनावश्यक दबाव बनाने लगे हैं | यह बात केवल हिन्दू संगठनों पर ही नहीं मुस्लिम या अतिवादी जातीय संगठनों पर भी लागू होती है | इस दृष्टि से चुनावों में इस तरह के स्वार्थी तत्वों और दलीय समर्पण और गठबंधन पर अंकुश के लिए विचार की आवश्यकता है |

 इस समय केवल गोवा , मणिपुर और पंजाब की ही नहीं देर सबेर जम्मू कश्मीर और 2024 के लोक सभा  में होने वाले चुनावों के लिए सोचने की जरुरत है | सीमावर्ती राज्यों में सीधे केंद्र से टकराव , विदेशी प्रभाव वाले नेताओं के सत्ता में आने , सौदेबाजी करने से सम्पूर्ण देश और लोक्ततंत्र के लिए खतरे उत्पन्न होंगे | पंजाब और कश्मीर में भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों को बढ़ावा देने , मादक पदार्थों और हथियारों की तस्करी करने वालों से गठजोड़ करने वाले सत्ता में आने से देश पहले ही बहुत नुकसान उठा चुका है |

इसी तरह सांप्रदायिक मुद्दों पर भी बहुत खून ख़राबा हुआ है | आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के लिए इस बार चुनाव आयोग ने मतदाताओं को पर्याप्त जानकारी देने का फरमान निकाला है | लेकिन यह कदम पर्याप्त नहीं है | ग्रामीण मतदाता कौन सी वेबसाइट और आपराधिक धाराओं को देख समझ वोट दे सकते हैं ? गांव की बात दूर है , यदि सर्वे किया  जाए तो दिल्ली जैसे महानगरों में लाखों मतदाता चुनाव चिन्ह के आधार पर वोट दे देते हैं , लेकिन स्थानीय पार्षदों या विधायक के नाम तक नहीं बता सकते हैं |

डिजिटल संपर्क की बीमारी ने तो नेताओं को ही नहीं कार्यकर्ताओं तक को महानगरों में जनता से दूर कर दिया है | इसलिये   आपराधिक  पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों पर रोक के लिए चुनाव आयोग द्वारा वर्षों से की गई इस सिफारिश को संसद और सुप्रीम कोर्ट से कानून बनवाना जरुरी है , जिसमें अदालत में चार्जशीट दाखिल होने के बाद चुनाव लड़ने पर रोक का प्रावधान है | इसी तरह पिछले वर्षों के दौरान गोवा , कर्नाटक , मध्य प्रदेश , राजस्थान में हुए दलबदल से सरकारों में आई अस्थिरता से भी सबक लेकर चुनाव कानूनों में यथा शीघ्र संशोधनों की जरुरत है |

चुनाव के बाद विधायकों या सांसदों के दल परिवर्तन पर सदन के अध्यक्ष और राज्यपाल द्वारा निर्णयों में पूर्वाग्रहों की घटनाएं सामने आती रही हैं | इसलिये कुछ वर्ष पहले यह सिफारिश भी की गई थी कि चुनावों के बाद दल बदलने के मामलों के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले ट्रिब्यूनल का गठन होना चाहिये |  चुनावों में खर्च की सीमा इस बार कुछ बढ़ा दी गई है , लेकिन अनुभव बताता है कि सारी सीमाएं लांघने के रास्ते पार्टियां और उम्मीदवार निकाल लेते हैं |

पांच दस करोड़ रूपये खर्च करने वाला उम्मीदवार या उसके नजदीकी समर्थक सत्ता में आने पर अपने लाभ का इंतजाम करेंगे ही | वर्तमान संसद में सरकार और भाजपा का बहुमत है और कुछ  अन्य पार्टियां चुनाव सुधार की आवाज उठाती रही हैं |  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी से लेकर कश्मीर को धारा 370 से मुक्ति दिलाने और तलाक व्यवस्था को ख़त्म करने जैसे क्रन्तिकारी कदम उठाये हैं |   इसलिये उनके  सत्ताकाल में चुनाव  कानूनों में व्यापक बदलाव की अपेक्षा की जानी चाहिये | इसी अभियान में संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत प्रतिनिधित्व का कानून भी लोकतंत्र का नया ऐतिहासिक अध्याय बन जाएगा |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के सम्पादकीय निदेशक हैं )

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।