पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों से पहले ही रोजगार, महंगाई के मुद्दों के साथ सत्तारूढ़ दलों खासकर केंद्र की सरकार और भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनैतिक आर्थिक चुनौतियाँ दिखाई दे रही हैं| वहीं अपनी खबरों या लेखों की फाइलें पलटने पर महसूस होता है कि 1971 से पिछले विधान सभाओं अथवा लोक सभा चुनावों के दौरान भी कमोबेश यह मुद्दे सभाओं, मोहल्लों में उठते रहे हैं| तब सवाल उठता है कि इतने बदलावों और मोदी सरकार के सारे प्रयासों, कार्यक्रमों, योजनाओं और दावों के बावजूद क्या कुछ नहीं बदला है? इसमें शक नहीं कि अब भी समस्याएं हैं लेकिन विभिन्न पिछड़े या उन्नत कहे जा सकने वाले राज्यों की तथ्यात्मक और व्यावहारिक स्थिति का अध्ययन करने से समझा जा सकता है कि जी हाँ गरीब ग्रामीण आदिवासी अंचलों से श्रमिकों का पलायन निरंतर कम हो रहा है| महानगरों अथवा अन्य बड़े शहरों में शिक्षित बेरोजगार अधिक दिखते हैं, लेकिन छोटे शहरों और गांवों में स्व रोजगार, किसी स्किल (कौशल) से जुड़े लोगों को काम मिल रहा है| यही नहीं दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों में सामान्य इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर जैसे कामगार सामान्यतः पांच सात घर में मरम्मत का काम करके लगभग दो हजार रूपये कमा लेता है| यदि वह तीस में से पच्चीस दिन भी काम करे तो उसे पचास हजार मिल जाते हैं| लेकिन जब सरकारी या निजी सर्वे एजेंसियां क्या उनका सही रिकार्ड इकठ्ठा करती है? इसके विपरीत जब सर्वे में उसी व्यक्ति से पूछा जाता है तो उत्तर मिलता है – हाँ उसके पास कोई नौकरी नहीं है | मतलब वह बेरोजगार है| योजना या नीति आयोगों और मीडिया के रिकार्ड में ऐसे ही आंकड़े अधिक मिलते हैं|
इसी पृष्ठभूमि में कुछ ताजे उदाहरण देना चाहता हूँ| बीस साल पहले दिल्ली में पड़ोसी उत्तराखंड से ही नहीं छत्तीसगढ़, बिहार झारखण्ड, उड़ीसा, बंगाल और पूर्वोत्तर क्षेत्र से दिल्ली मुंबई कोलकाता में बड़ी संख्या में स्त्री पुरुष या उनके परिवार बड़ी संख्या में आते रहे और घर, दुकान, छोटे बड़े उद्योगों में काम पा जाते थे| मुंबई में तो एक समय शिव सेना बाहरी श्रमिकों का विरोध करते हुए हिंसा तक करने लगी थी| मेरे अपने घर और कुछ अन्य परिवारों में छत्तीसगढ़-बंगाल से आए परिवार के सदस्य (समझ लीजिये-दो पीढ़ी के सदस्य) निरंतर काम कर रहे हैं| पंजाब-हरियाणा में खेत खलिहानों में इन्हीं बाहरी इलाकों के अधिकांश श्रमिक मिलते थे| पिछले सप्ताह मैंने रायपुर, पटना, रांची, गुवाहाटी में कुछ परिचित पत्रकारों और अधिकारियों को फोन किये और जानना चाहा कि मुंबई और बैंगलूर में रहकर घर में काम करने वाली कोई महिला अथवा व्यक्ति मिल सकता है| मुझे लगभग एक जैसे उत्तर मिले| उनका कहना था कि अब ऐसे लोग मुश्किल से मिल सकते हैं| हाँ अधिक पढ़ लिखकर देश विदेश में लोग जा रहे हैं| लेकिन पिछले कुछ वर्षों से श्रमिकों का पलायन बहुत कम हो गया है, क्योंकि उन्हें यहीं कुछ काम धंधा मिलाने लगा है| अब तो उड़ीसा के श्रमिक छत्तीसगढ़ या झारखंड नहीं आ रहे| आप पंजाब में ही पता कर लें, कोरोना संकट से पहले भी बाहरी श्रमिकों का मिलना मुश्किल हो गया था| कोरोना काल से पहले हरियाणा विधान सभा चुनाव से पूर्व फरीदाबाद-गुड़गांव के लघु मध्यम श्रेणी के उद्यमियों और कारखानों में जाकर बात करने का अवसर एक टी वी टीम के साथ मिला था| उनका कहना था कि सरकार के कौशल विकास केंद्र से निकले सभी युवाओं को हमारे यहाँ काम मिल रहा है, उलटे हमें ऐसे अधिक कुशल कारीगरों की आवश्यकता रहती है| इन कारीगरों को लगभग पच्चीस तीस हजार रूपये वेतन और कुछ सरकारी स्वास्थ्य बीमा पी ऍफ़ आदि भी मिल जाता है| हाँ एक समस्या तब होती है, जब कुछ महीने या एक दो साल में वह कारीगर कहीं और काम पाकर चला जाता है|
जहाँ तक कुशल कारीगर की बात है, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में भी कौशल विकास केंद्रों से निकले युवाओं को काम मिलने की बातें मुझे वहां जाकर सुनने को मिली| इसी तरह असम और मणिपुर से दिल्ली में काम कर चुकी महिलाएं अथवा युवाओं के घर वापसी का कारण वहां अपना मकान शौचालय बनाने, खेती बाड़ी करने, सरकारी स्वास्थ्य योजना का लाभ मिलना भी रहा है| ओड़ीसा में तो नवीन पटनायक बीस वर्षों से राज कर रहे हैं| राष्ट्रीय राजनीतिक दल अब भी उन्हें पराजित नहीं कर सके, क्योंकि जितना संभव हुआ उन्होंने प्रदेश के गरीब ग्रामीण आदिवासी अंचलों के लिए लाभकारी योजनाएं क्रियान्वित की| इसलिए चुनौतियां केवल एक पार्टी की नहीं है और न ही किसी एक सरकार की| भारत की असली समस्या यह है कि आर्थिक प्रगति और अनेक योजनाओं और कार्यक्रमों का क्रियान्वयन विभिन्न क्षेत्रों में सही ढंग से नहीं हो पाता है| कौशल विकास केंद्रों की बात हो या सरकारी स्कूल कालेजों की, स्वास्थ्य सुविधाओं-आयुष्मान भारत जैसी मुफ्त बीमा योजना की या अंसगठित क्षेत्रों के श्रमिकों के लिए दो लाख रुपयों की मुफ्त बीमा योजना की|
बिहार-उत्तर प्रदेश ही नहीं राजधानी दिल्ली में कम शिक्षित गरीब श्रमिक स्त्री पुरुष जब भटकते हैं तो उनसे दो सौ पांच सौ रुपयों में कार्ड बनाकर मिलने की जानकारी मुझे स्वयं श्रमिकों ने दी| इसी तरह उत्तर प्रदेश, बिहार या बंगाल में यदि मकान बनाने के सरकारी ढाई लाख रुपयों की अलग किस्तों में स्थानीय अधिकारियों द्वारा अपनी सूची में नाम रखने, काटने या काम की प्रगति पर रिपोर्ट अथवा मनरेगा में या किसान को दी जाने वाली दो हजार की किस्तों के सीधे बैंक खाते में जाने पर भी वसूली की शिकायतें मिलती हैं| मुफ्त राशन देने में भी दिल्ली सहित कई स्थानों पर लोगों की शिकायतें मिलती हैं| यहीं केवल सरकारों से अधिक विभिन्न राजनैतिक दलों के कार्यकर्त्ता ईमानदारी से सक्रिय रहकर पहरेदारी और गरीब लोगों की मदद कर सकते हैं| जो राजनीतिक दल दस बीस करोड़ या कई लाख सदस्य संख्या होने का दावा करते है, क्या वे केवल वोट बूथ की चिंता के साथ ऐसे अशिक्षित अथवा कम जानकारी वाले लोगों की सहायता नहीं कर सकते हैं? केवल आरोपों की राजनीति के बजाय इस तरह सक्रिय रहने पर उन्हें अधिक समर्थन मिल सकता है| चुनाव, मुद्दे, सरकारें आती जाती रहेंगी, लेकिन देश को सही अर्थों में आत्म निर्भर बनाने के लिए अधिक ईमानदार प्रयास विभिन्न स्तरों पर करनी होगी|
(लेखक आई टी वी नेटवर्क इण्डिया न्यूज़ दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं)