शायरी ज़रूरी नहीं कि माशूका की मुहब्बत के लिए ही हो

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नामचीन शायरों और कवियों की रचनाओं में कई निहितार्थ छुपे होते है जो उन अर्थो से अलग होते है जो सामान्यतः हम कविता पढ़ कर जान पाते है । ये उस वक्त की बात है कि जब छायावाद के अन्तिम स्तंभ श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल जिन्दा थे ,उनके बेटे स्वर्गीय श्री दिलीप शुक्ल जी कटनी कॉलेज में प्रोफेसर थे और मुझपे बड़ा स्नेह् रखते थे |

अंचल जी उनके पास कटनी आए हुए हैं | ये बात जब मुझे पता लगी तो मै उनसे मिलने पहुँच गया | इतने बड़े कवि होने के बाद भी बड़े सहज ढंग से उन्होंने मुझे अपने पास बैठा कर मेरे बारे में पूछताछ की ..क्या पढ़ रहे हो , क्या करोगे ,आदि आदि | मै तब स्नातक कोर्स का विद्यार्थी ही था | बातचीत के बाद मैंने उनसे अपनी डायरी में लिखी उनकी कविता “ धुँध डूबी खोह “ पर उनके आटोग्राफ चाहे । उन्होंने दिए भी , पर अपनी ही उस कविता की एक पंक्ति को पढ़ कर मुस्कुराते हुए पूछा इसका मतलब समझे ?

डूब मेरे ही अतल में जाय मेरी आत्मजा,
जी सकेगी कब तलक अभिव्यक्ति के उपवास में ।
पर फरिश्तों और परियों को दिए अच्छा किया ,
पंख क्यों कतरे विहंगो के भरे मधुमास में ॥

मुझे जो समझ आया मैंने बताया , किशोर अवस्था में जैसे अर्थ समझे जा सकते है वैसे ही मेरे दिमाग में थे | हँसते हुए कहने लगे अरे भाई ये मैंने इमरजेंसी के दौरान लिखी थी , उन दिनों रुख़साना सुल्ताना और जो युवा नेता संजय गाँधी के निकट थे , उनके लिए फरिश्ते और परियों के उपमान दिए हैं और जो नवजवान उस दौरान जेलों में बंद कर दिए गए उन्हें विहंग कहा है । मै बस चकित उन्हें देखता और सोचता ही रह गया कि हमारे समझ से परे भी कविता के अर्थ होते है । इसी तरह मशहूर शायर अहमद फराज़ साहब की वो प्रसिद्ध ग़ज़ल का ध्यान करें , जो मेंहदी हसन ने बड़ी खूबसूरती से गायी है ।

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ।
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ ॥

लगता है जैसे कोई अपनी महबूबा से शिकायत कर रहा हो पर वास्तव में ये ग़ज़ल उस दौर की है जब पाकिस्तान में लोकतंत्र कामयाब नहीं हो पा रहा था और बार बार फौजी शासन लग जा रहा था । तब ये उसी जम्हूरियत के लिए लिखा गया है ना कि मेहबूबा के लिए | है ना दिलचस्प अब आप फिर से पुरी ग़ज़ल सुनेगें तो एक अलग ही आनंद आयेगा | इसी ग़ज़ल से जुड़ा क़िस्सा है , राजनंदगाँव में जब मैं पदस्थ था तो श्री लक्ष्मी कांत द्विवेदी भी वहीं डिप्टी कलेक्टर थे । सप्ताहांत जब भी कभी राजनंदगाँव जाना होता तो द्विवेदी जी बिना खाना खिलाए वापस नहीं आने देते थे ।

खाने के बाद हाथ से फेंटी काफ़ी का स्वाद अभी तक मुझे याद है । अपने टेप रिकार्ड पर मेंहदी हसन की यही ग़ज़ल वे खुद भी सुना करते और हमें भी सुनाते । मैंने अपने साथी नरेंद्र परमार से पूछा कि द्विवेदी जी को ये ग़ज़ल इतनी क्यों पसंद है ? परमार बोले “ आपको मालूम नहीं , “आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ “ से द्विवेदी जी के जीवन की ट्रेज़डी जुड़ी है । श्रीमती द्विवेदी कालेज में पढ़ाती हैं , ये जहां भी पदस्थ होते हैं , वहाँ बड़े प्रयत्न से भाभी का ट्रान्स्फ़र कराते हैं और जब तक भाभी इनके साथ आ पाती हैं , इनका ट्रान्स्फ़र दूसरे ज़िले में हो जाता है । इस शेर की एक नई व्याख्या से हम घण्टों हँसते रहे ।